हमारे समय का आर्तनाद है ‘शान्ति पर्व’ की कविताएँ
कार्तिक राय
05 मार्च 2025

आशीष त्रिपाठी का अद्यतन काव्य संग्रह ‘शान्ति पर्व’ विवेकशील मानस की भाव-यात्रा है। भाव के साथ चेतना भी जागृत है। इस यात्रा में सब कुछ है, सब कुछ! फणीश्वरनाथ रेणु के शब्दों में कहें तो—“इसमें फूल भी हैं, शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन भी, सुंदरता भी है, कुरूपता भी।” इस संग्रह की पहली कविता है ‘जीना’ और अंतिम ‘याद’; ये कविताएँ मैत्री भाव से आरंभ होती हुई स्मृति पर ठहर जाती हैं। मैत्री से स्मृति के बीच चलता है शान्ति पर्व का अनहद नाद। बालमन हो या बौद्धिक संचेतना अथवा क्रांतिधर्मा युगपुरुष या इन सबके अंतर्लय में छिपी प्रेम की निर्मलता और पारिवारिक-सांसारिक घटाटोप आदि सभी की स्मृति-रेखा इन कविताओं में सन्नद्ध है।
विगत दो-तीन दशकों में विश्व भर में सूचना क्रांति के संजाल ने मनुष्य के आयतन को पूरी तरह संकुचित किया है। पब्लिक और प्राइवेसी का भेद ख़त्म होता गया। इसका सबसे अधिक लाभ सत्तापरस्त वर्गों ने उठाया। नौवें दशक के बाद उभरे फूहड़ राष्ट्रवादी और धार्मिक उन्माद ने पूरे विश्व में जनतंत्र के अर्थ को निस्तेज किया है। शिक्षा, स्वास्थ्य और वैज्ञानिक चेतना के प्रसार का स्थान धर्मतंत्रमुखी विषमताओं, जाति-जेंडर और भाषायी-क्षेत्रीय हिंसक भावनाओं ने ले लिया। संवैधानिक मूल्यों का क्षरण अब बहस से नदारद होने लगे। धनबल, बाहुबल और राजनेताओं के दोचित्तापन ने मनुष्य के सामाजिक ओहदे को रक्तप्लावित किया है।
आशीष त्रिपाठी की कविताएँ इन ज्वलंत प्रसंगों का पक्ष और प्रतिपक्ष निर्मित करती जान पड़ती है। मंदिर-मस्जिद की अमानुषिक और ख़ूँख़ार लड़ाई में इंसानियत का धर्म नागवार लगने लगता है—“तुम देवताओं के घरों के लिए लड़ते हो/ पर क्या जानते हो कहाँ रहते हैं देवता/ त्रिशूल, तलवार और गड़ासा लेकर/ जब तुम निकलते हो सड़क पर/ ख़ून के प्यासे होकर/ मैं देख पाता हूँ तुम्हारी आत्मा से/ कूच कर गया है तुम्हारा भगवान।”
हत्यारी दृष्टि से धर्म, आस्था अथवा ईश्वर से जुड़ी भावनाएँ हमेशा के लिए छिटक जाती है। उन पर किसी उन्माद और षड्यंत्र का भूत सवार हो जाता है। धर्म का सार्थक रूप मनुष्यता की जय-यात्रा में है न कि हिंसक उन्माद में—“जब तुम प्यार करते हो बच्चों को बच्चों की तरह/ गले मिलते हो किसी अंजान को भाई मानकर/ मुझे तुम्हारी देह/ सच मानो/ भगवान का सबसे पवित्र घर लगती है।”
त्याग, बलिदान, प्रेम और कुटुंब की भावना ही किसी भी धर्म की थाती है। मनुष्य और मनुष्यता का संस्कार भी इसी में विन्यस्त है।
‘शान्ति पर्व’ संग्रह की कविताएँ समय की शिला पर एक टेक है। अपने समय की अधिकांश चुनौतियों से टकराती कवि मन की गुत्थियाँ कभी सुलझती है तो कभी उलझती चली जाती है, ठीक उसी तरह जैसे ‘अँधेरे में’ कविता में मुक्तिबोध का अनिवार-आत्मसंभवा काव्यनायक बेहतर मनुष्य की तलाश (परम अभिव्यक्ति) अंत समय तक नहीं छोड़ता है। राजनीतिक जज़्बे वाली अधिकांश कविताओं के कोरस में ‘अँधेरे में’ के काव्यनायक का आत्मसंघर्ष द्रष्टव्य होता है। प्लूटोक्रेसी की विकृति को कवि ने आड़े हाथों लिया है—“गणतंत्र में अब सिर्फ़ सत्ता पक्ष होगा.../ सत्य सिर्फ़ वह माना जाएगा/ जिसकी आधिकारिक घोषणा करेंगे मंत्री/ राज्य के अधिकारियों की सहमति से/ जो दिखाया जाएगा/ रुपहले पर्दे पर/ वह सत्य से भी अधिक सत्य होगा/ रुपहला पर्दा सत्ता पक्ष हो जाएगा।”
और इस सत्ता संरचना में—“विरोधियों के लिए समाज से बाहर/ पृथक यातनागृहों की आवश्यकता न होगी/ परिवार ही यातनागृहों में तब्दील हो जाएँगे...चुनाव का अर्थ सिर्फ़ हाँ कहना होगा।”
यह पूरी कविता आँखों देखा बयान मालूम जान पड़ती है। कविता की एक-एक पंक्ति जनतंत्र और संविधान प्रदत्त जैसे अधिकारों के हनन का साक्ष्य बनती है। कवि ने इसे ‘नया गणतंत्र’ नाम दिया है। इस नए गणतंत्र की ज़ुबान में हिटलरशाही प्रवृत्ति मौजूद है। हिटलरशाही गणतंत्र को कवि आशीष त्रिपाठी ने कई काव्य रूपकों में अभिव्यक्त किया है। ‘समय’, ‘कलयुग’, ‘शान्ति पर्व’, ‘मुखौटे’, ‘मेरी नींद’ और ‘काला सूर्य’ आदि कविताओं की अंतर्ध्वनियाँ वर्तमान राजनीति और स्टार राजनेताओं के भीतर पैठे अमानुषिक वृत्तियों का चित्रांकन है। इन कविताओं ने उन चरित्रों और व्यवस्थाओं को बेनक़ाब किया है जिसने आम जनमानस को तुच्छ बना दिया है। ‘काला सूर्य’ कविता पढ़ते हुए ‘अँधेरे में’ कविता की स्मृति-छवियाँ कौंधने लगती है। ‘अँधेरे में’ कविता की आशंकाएँ, भय, उन्माद वर्तमान जीवन का दैनिक यथार्थ है। राजनीति के पहरेदार अब और भी भयावह रूप में जनतंत्र की चेतना को नेस्तनाबूद कर रहे हैं।
‘काला सूर्य’ कविता 21वीं सदी की रक्तपिपासु तानाशाही सत्ता का विराट प्रतिबिंब है। इसकी प्रचंडता में नरसंहार का आर्तस्वर अनुस्यूत है। आसमान पर दमक रहा ‘प्रचंड काला सूर्य’ तानाशाही सत्ता का प्रतीक है जिसकी चौंधीयाती रोशनी में पूरी व्यवस्था अपने मूल रंग (चरित्र) से अलग हो चुकी है। आम जनता के मूल सवालों से विलग उन्हें बाँटते-काटते, उनकी भावना को उन्मादी विचारधाराओं से भरते काले सूर्य के नुमाइंदों ने एक सुर में उन्हें, उनकी नई पीढ़ी को ‘हत्यारा’ बना दिया है। उनके बच्चों के हाथों में किताब-क़लम की जगह हिंसक हथियार थमा दिए गए हैं। प्रेम, करुणा और न्याय पर उन्हें भरोसा नहीं। न्याय के नायक वे स्वयं ही हैं—“हिंसा और हत्या के लिए उकसाने वाले वचन/ मंत्रों की तरह दुहराए जा रहे हैं/ उन्माद से भरे लोग/ सड़कों, बसों, ट्रेनों, बाज़ारों और खेतों में/ कहीं भी किसी को पीटना शुरू कर देते हैं/ भाषा, हुलिया और पोशाक देखकर/ बच्चों और स्त्रियों की/ अब तक निर्मल रही आई आत्मा में/ भरी जा रही है घृणा की स्याही/ काले सूर्य की प्रतिमाएँ/ प्रत्येक चौराहे पर मुस्कराती हैं आहिस्ता-आहिस्ता”
काले सूर्य के प्रवक्ताओं में घृणा, कट्टरता और अंधश्रद्धा इस क़दर व्याप्त है कि वह किसी के मीठे बोल तक नहीं सुन सकते। इतिहास, भूगोल, संस्कृति की एकांगी, उपद्रवकारी समझ इनके छिछले मन-मस्तिष्क को हिंसक बना रही है। उजले सूर्य का काला होना जनचेतना की क्रांतिधर्मिता का कुंद होना है। बौद्धिकता और वैज्ञानिकता का लोप होना है। साधारण जनता की लालसा और क्रांति की अनुगूंजों को तानाशाह रौंदना चाहता है। कवि का अंतर्मन तानाशाह के फ़ासीवादी रवैयों से आप्लावित हो बेचैन है, त्रस्त है और मृत्यु से आक्रांत है। काला सूर्य एक विराट बिंब की तरह जनता की संवेदना को मलिनता के खोह में ले जा रहा है। कवि ‘उजाले की भाषा’ के साथ आद्योपांत खड़ा नज़र आता है। बक़ौल राजेश जोशी—“काला सूर्य में कवि देख पाता है कि इस समय जब उजाले की वह भाषा, जिसकी संधि में करोड़ों लोगों की निर्मलता समाई हुई थी, उस पर कालिमा के शब्द और वाक्य छाते जा रहे हैं। उस भाषा में प्रश्न करने के अधिकार और असहमति को बेदख़ल कर दिया गया है। उजले सूर्य आकाशगंगा से और उजली ऋचाएँ भाषा से बाहर फेंक दी गई हैं। धीरे-धीरे सब कुछ गिर रहा है। यह सिर्फ़ भाषा का संकट नहीं है। भाषा की नब्ज़ में समाज के शरीर की सारी व्याधियों का हालचाल छिपा है। कवि इस नब्ज़ पर अपनी उँगलियाँ रखकर, हमें हमारे आस-पास घटित प्रकट-अप्रकट को दिखाने का उपक्रम करता है।”
‘समय’ कविता हमारे समय के हत्यारे विचार और हिंसक हो चुकी भीड़ की शिनाख़्त है। धर्म और सनातनी के नाम पर अधर्म के इस व्यापार को समझना मुश्किल है।
‘कलयुग’ कविता का पूरा नैरेटिव ही वर्तमान युग का नैरेटिव है। लोकतंत्र में सभ्यता, उदारता और विनम्रता के साथ ही संवाद का लोप होना भयानक ख़बर की तरह है। यह लोकतंत्र में लोक को लुप्त किए जाने का प्रथम लक्षण है। लोकतांत्रिक मूल्य और संवैधानिक संस्थाओं के समानांतर व्यक्ति विशेष का महातम राष्ट्र के अंतिम नागरिक का अपमान है; राष्ट्र निर्माण के नायकों के बलिदान का अपमान है : “लोकतंत्र में संख्याबल ही एकमात्र कसौटी था/ राजनीति पारवारिक जायदाद/ जाति और धर्म/ मरी हुई खाल पर चिपके आभूषण/ प्रवचन उद्योग सबसे बड़ा उद्योग/ कुछ ख़ास संगठनों की सदस्यता देश प्रेम/ कुछ ख़ास कंपनियों का सामान ख़रीदना नागरिक ज़िम्मेदारी/ जनता को मुफ़्तख़ोर बनाने के लिए/ लखमुखी योजनाएँ/ यह उस युग की बात थी/ जब अपराधी का साथ सुरक्षा की गारंटी था/ हत्यारे नायक माने जा रहे थे।”
कवि अपने समय का हालिया बयान कलयुगी रूपी मेटाफर में बड़ी सहजता से कर जाते हैं। यह ‘उस युग’ के बहाने ‘इस युग’ की सत्कथा है। जनतंत्र में संख्याबल, जाति-धर्म आधारित राजनीति, देश-प्रेम का नफ़रती खेल, लखमुखी योजनाएँ और हत्यारे के पक्ष में खड़ा होना आदि जन सरोकारों से विमुख होना है, अपने मूल कर्त्तव्यों से फ़ारिग होना है। जनता को अँधेरे के गर्त में धकेलना है तथा अपने अहंकार को पुष्ट करना है।
‘शान्ति पर्व’ कविता सांगठनिक वैमनस्य प्रसार की ख़ुफ़िया योजनाओं की पड़ताल है। राष्ट्र के सबसे बड़े खलनायक को नायक और अवतार बनाने की फ़ांसीवादी कूटनीति है—“खड़ा होता है/ जो भी हमारे विरुद्ध/ सबसे पहले/ उसे गाली दो सेक्युलर कहकर/ ...घृणा पैदा करो उसके प्रति/ हू हू सेना को लगाओ पीछे/ डर पैदा करो उसके लोगों के मन में/ सबसे अधिक ज़रूरी है/ साबित करो उसे धर्म विरोधी।”
आमजन की समस्याओं को छोड़ धर्म, आस्था की ख़ूनी राजनीति को हवा देना जनतंत्र की चेतना को मलिन करना है। यह कूटनीति समाज को सैकड़ों वर्ष पीछे धकेलता है। आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास की गति को अवरुद्ध करता है। ‘मुखौटा’ कविता इसी कूटनीति का प्रसार है जहाँ जनता के बीच से चुने हुए प्रत्याशी, तथाकथित जन नेता सत्ता मिलने पर स्वयं को सर्वेसर्वा मान बैठता है।
आशीष त्रिपाठी की कविताओं का दूसरा छोर उनके निजी अनुभव वृत्तों को सम्यक आकार देता है। यह अनुभव जगत इंद्रधनुषी भाव-तरंगों से सुसज्जित है। इसमें जीवन का प्रत्येक रंग एक-दूसरे के साथ रहते हुए भी अपने अस्तित्व के साथ मौजूद है। ‘जीना’, ‘पुरवा’, ‘संकेत ध्वनि’, ‘उनके होने से’, ‘कालिदास’, ‘एक सुबह अस्पताल में’, ‘पुराना घर’, ‘मेरी नींद’, ‘याद’ आदि कविताएँ कवि की दुनिया के स्थायी भाव हैं। इस दुनिया में कवि का भावनात्मक विस्तार होता है। जीवन की सीख हो या प्रेम की अनंत पंखुरियाँ और सामाजिक दायित्वों के प्रति सचेतनता आदि भावों को कवि सरलता से आगे बढ़ाता है।
कोविड तालाबंदी पर लिखी ‘उनके होने से’ और ‘इन दिनों’ कविताएँ कवि व्यक्तित्व का उल्लास है। ‘उनके होने से’ कविता एक छात्र वत्सल अध्यापक का आंतरिक उजास है, उनमें रचा बसा छात्र-छात्राओं का अतुलित स्नेह और संभावनाओं का प्रयाण है। किताबों की दुनिया को व्यावहारिक दुनिया से मिला देने की अभिलाषा, उत्कट जिजीविषा और बौद्धिक चेतना छात्र और कुशल अध्यापक के आत्मीय संबंधों को प्रगाढ़ बनाता है—“उनके होने से किताबें हो जाती थीं जीवित/ किताबों से निकल कर हमसे बातें करने लगते थे चरित्र/ ...ये जगहें सिर्फ़ उनके होने से धरती की तीर्थ हैं/ वे हैं तो गिरेगा एक दिन/ सबसे ताक़तवर ज़मीनी देवता का/ सबसे सुरक्षित/ हज़ार परकोटों वाला महल/ वे हैं तो ज़िंदा हैं उम्मीदें/ मैं उन सबसे हाथ मिलाना चाहता हूँ/ चूमना चाहता हूँ उनके माथे/ बताना चाहता हूँ उन्हें/ उनका होना ज़िंदगी का होना है।”
कवि-अध्यापक का यह अंतरंग संवाद संसार की सबसे सुंदर परिघटना है। छात्र-छात्राओं की उपस्थिति को ‘धरती की तीर्थ’ कहना तथा उनकी क्रांतिधर्मी चेतना को ‘ज़िंदा उम्मीदें’ कवि की पक्षधरता को दर्शाता है।
‘शान्ति पर्व’ संग्रह की कविताओं में प्रेम बालसुलभ भावों-अनुभावों के साथ आता है। एकदम स्वच्छ, धवल, श्यामल-सुंदर और शांत। उच्छृंखलता और उत्कट भावना का वहाँ कोई स्थान नहीं। ऐसा कोई कवि नहीं जो प्रेम की धार में बहना न चाहते हों। ‘सुंदर विराम’, ‘तुम्हारी याद’, ‘तुम्हारा जाना’, ‘प्रतिरूप’, ‘समुद्र में आकाश’ आदि कविताओं में प्रेम निष्कलुष भाव से आकार लेता है। कवि प्रेम को जीवन में एक ‘सुंदर विराम’ की तरह महसूस करता है। प्रेम का साक्षी समस्त प्रकृति जगत बनता है। धरती, आसमान और समुद्र अपना आशीष प्रकट करता है। सांगीतिक लय में वह निविड़ शांत में आसक्त एक तान बन जाता है—“यह एक तान सदियों पुरानी/ तुम उसे लेकर अनंत की ओर उड़ रही हो/ अभी ठीक अभी/ तुम लौट रही हो धरती की ओर/ आसमान में तानों की लड़ी बनाते/ मध्य लय में तैरती/ तुम्हारी बाघिन-सी आँखें/ एक पल के लिए/ थिर गहरी आसक्ति से/ देखती हैं मुझे/ और खो जाती हैं।”
प्रेम का यह सुर-संगम प्रेमी हृदय को गहरे आकंठ में डुबोता है, उसे लयमान बनाए रखता है। ‘तुम्हारी याद’ कविता में भी पसरा सन्नाटा प्रेम की आस लिए हुए है। ‘तुम्हारा जाना’ और ‘जो छूट गया’ कविता जीवन में मिले प्रेम की सुखद स्मृतियों का कोलाज है। यह प्रेम कभी अपने ‘प्रतिरूप’ को देखता है तो कभी उसे ‘समुद्र में आकाश’ की तरह अपनी स्मृतियों में बसा लेना चाहता है “मैं उससे मिलना चाहता हूँ/ माँगना चाहता हूँ/ समुद्र में आकाश की छवियाँ।”
कवि बिल्कुल संयमित और सरल भाव से प्रेम की बावड़ी में उतरता है। कवि की भाषा और भाव के प्रति संयम देखते बनता है। इस बात को वरिष्ठ कवि राजेश जोशी ने भी रेखांकित किया है—“आशीष की कविता की भाषा का तापमान अक्सर बहुत संयत बना रहता है। भावों की रास कवि के हाथ से कभी छूटती नहीं।”
संग्रह की अधिकांश स्त्री-केंद्रित कविताओं का विधान नए पौरुष का संधान है। यहाँ स्त्री को देखने, सुनने और समझने का सलीक़ा अलहदा है। कवि पूरी मार्मिकता के साथ, सधी हुई भाषा में स्त्री-संसार को, साझा अनुभवों को अभिव्यक्त करता है। परिवार, समाज और भाषा में व्याप्त पुरुषवादी-मर्दवादी दंभ को कवि-मन बड़े सूक्ष्म ढंग से उसकी कलई को खोलता है। पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना में स्त्री-पुरुष का गढ़ा जाना आज भी अनवरत जारी है। बाज़ार, उपभोक्तावादी संस्कृति और इंटरनेट की दुनिया ने इसे और भी भयावह रूप दिया है। असमान मानकों पर निर्मित स्त्री-पुरुष संबंधों ने परिवार की अवधारणा को पूरी तरह परिवर्तित कर दिया है। इंटरनेट और बाज़ार में स्त्री को ऑब्जेक्ट बनाने की पुरज़ोर कोशिशें हो रही है। कवि आशीष की आलोचनात्मक सजगता इन तमाम बिंदुओं से होकर गुज़रती है। अपनी ‘गहनों की दुकान पर’ कविता में माँ-बेटी का संवाद, मनःस्थितियों और उनकी हिचकिचाहट में वे उन विमर्शों, सिद्धांतों और बाज़ार की लोभकारी दुर्नीतियों को सहजता से दिखा जाते हैं—“गहनों की दुकान पर/ कुछ सकुचाई-सी बैठी हैं दोनों/ माँ और बेटी/ भीतर का खद-बद को बाहर आने से रोकतीं/ बेटी के ब्याह के लिए/ ज़रूरी गहने ख़रीदने आई हैं इस शो-रूम पर/ ...माँ सोच रही थी यह मंगलसूत्र कैसे अचानक/ इतने कम समय में बन गया है सुहाग की ज़रूरी निशानी/ अभी कुछ सालों पहले तक कौन पहनता था मंगलसूत्र/ नानी और दादी,/ माँ, चाची, मामी, मौसी/ और उस उम्र की औरतों को/ नहीं देखा उसने कभी मंगलसूत्र पहने”
इन सहज, सरल दृश्यों, संवादों और मनःस्थितियों में विन्यस्त बाज़ार और धर्मतंत्रमुखी पितृसत्ता के गठजोड़ को देखा-पहचाना जा सकता है। स्त्री को मंगलसूत्र में क़ैद करने का सूत्र पूँजीवादी पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना में छिपा है। मंगलसूत्र में ‘मंगल’ केवल बाज़ार का है। स्त्री के गले आज भी केवल सूत्र (बंधन) ही आता है। टेलीविज़न जगत का पूरा प्रचार-तंत्र स्त्री को गहनों, आभूषणों, वस्त्रों, रसोइयाँ, पुरुष को कामुक बनाने वाले उपकरणों या सामग्री में ही सन्नद्ध किया जाता है। परिवार-समाज भी इसे सहजता से स्वीकार रहा है। शैक्षिक चेतना ने ज़रूर इस प्रचार-तंत्र पर थोड़ा अंकुश लगाया है। नई सचेत स्त्री इस पूँजीवादी पितृसत्तात्मक प्रचार-तंत्र की दुर्नीतियों को महसूस करने लगी हैं, वह जानती हैं कि ‘गहनों के विज्ञापन में औरत मतलब गहने’ होते हैं और ‘गहने ज़ंजीर होते हैं, ग़ुलामी की ज़ंजीर! मीठी ज़ंजीर!!’ इतना ही नहीं इस ग़ुलामी-ज़ंजीर के साथ को भी वह जान-समझ चुकी है—“पुराने ज़माने में/ औरतों को पहनाए जाते थे गहने/ निगरानी के लिए।/ पायल, करधन, झुमके तो बाक़ायदा जासूस होते थे मालिकों के”
कविता माँ-बेटी के संवादों से आगे भी जाती है। बेमन से तय हुए रिश्तों में भय का उपजना आकास्मिक नहीं। उच्छृंखल साथी पुरुष का लोभी, कामांध स्वभाव उसे गहरे आर्तनाद में डुबो देता है। उसके जीवन में प्रेम जादुई फूल-सा आया था लेकिन वह प्रेम का डोर अब छूट चुका था।
‘दूध पीते बच्चे को देखकर’, ‘कालिदास’, ‘पटकी हुई थाली’, ‘विदा’, ‘क्षमा में जुड़े हैं मेरे हाथ’, ‘एकल परिवार’, ‘तुम्हारा अभिनय’, ‘सिंदूर की डिबिया’ आदि कविताओं में कवि की दृष्टि उन अलक्षित भावों, आंतरिक हलचलों पर जाती है जहाँ सामान्य पुरुष जाना नहीं चाहता है। एक पुरुष स्त्री को, उसकी दुनिया, उसकी देह को कितना समझ सकता है, उसकी क़वायद है ये कविताएँ। ‘दूध पीते बच्चे को देखकर’ कविता में कवि जितनी सावधानी से शब्दों का चुनाव करता है वह अत्यंत सराहनीय है। माँ और शिशु के कोमल साहचर्य से प्रकृति और मानवेतर प्राणियों के ममत्व तक पहुँचना नायाब कहन है। कई अंतर्कथाओं को कहती यह कविता ‘मजबूर धाय माँओं’ की अलिखित ऐतिहासिक त्याग की ऋचाओं में कंपन पैदा करती हैं। इन्हीं व्यथाओं में अंतर्ग्रंथित है ‘धरती का दुख’ जो—“सदियों से मजबूर धाय की तरह/ अपने सगे बच्चों का हिस्सा/ शक्तिवानों की सेवा में समर्पित करती आ रही है।”
इस मार्मिक और हृदयस्पर्शी संवेदना की तरलता वहाँ भी दिखती है जहाँ ‘कालिदास’ के उत्तर संवाद में मल्लिका (कवि) कह उठती है—‘आज जाना मैंने/ तुम कभी कोई लोरी नहीं लिख सकते कालिदास!’ विराटता और महानता के मिथ (Myth) में डूबी रचनात्मकता में किलकारी नहीं फूट सकती है, ममत्व का उजास और उस नदी का प्रवाह नहीं फूट सकता जिसका एक सोता माँ के हृदय में होता है और दूसरा शिशु के मानस में। वह स्थल भी निर्मित नहीं हो सकता ‘जहाँ से झरती है दूध की धार’, प्रकृति ने इसे माँ (मातृत्व) के हिस्से ही आरक्षित रखा है। ‘विदा’ कविता स्मृति में रेखाचित्र की भांति जीवन के सुख-दुख, हर्ष-विषाद की बेआवाज़ कौंध है। ‘क्षमा में जुड़े हैं मेरे हाथ’, ‘तुम्हारा अभिनय’ कविता स्त्री संदर्भ लिए पुरुष के व्यक्तित्वांतरण की आत्म-गाथा है। पुरुष अपनी मर्दवादी केंचुल छोड़ते हुए अपने हमनवा-हमराही के सम्मुख आत्मग्लानि तदनंतर आत्मस्वीकृति के साथ उपस्थित है। क्षमा में जुड़े हाथ पुरुषवादी अहम का विलय है। ‘तुम्हारा अभिनय’ कविता में अभिव्यक्त स्त्री का आत्मकथ्य और संवाद कामकाजी गृहस्थन स्त्रियों के दैनिक जीवन का यथार्थ है। पति-पत्नी के घरेलू दायित्वों का असमान वितरण, कामकाजी स्त्रियों के आर्थिक स्रोतों/वेतन पर पति का कब्ज़ा तथा बच्चों के साथ-साथ पति की सेवा आदि आज भी स्त्री जीवन में बराबरी, समानता और बंधुत्व का भाव सपने की तरह है। काम से लौटकर स्त्रियाँ काम पर लौटती हैं, इस मुहावरे को सत्यापित करती यह कविता एक सचेत पुरुष के मन की अनगिनत गाँठों को खोलती है—“कभी नहीं सोचा मैंने उन दिनों के बारे में/ जब हमारे बीच से होकर गुज़रती है तनाव की नदी/ क्या इतना कठिन है अपने सबसे क़रीबी से भी जुड़ पाना।”
यह प्रश्न बदलते हुए पुरुष साथी के लिए चुनौती की तरह है। ‘एकल परिवार’ कविता पितृसत्तात्मक संरचना में पले दंभ की गझिन गुत्थियों को अलगाती है। स्त्री के श्रम को, उसकी मेधा को महत्वहीन समझना, मालिक का दंभ भरने वाले पुरुष वर्ग की पुरानी बीमारी है। एकल परिवार की अवधारणा भी उसी पुरानेपन का एक छिटका हुआ हिस्सा है। इसी पुरुषवादी दंभ का प्रतिरोध है ‘पटकी हुई थाली’। एक गर्भवती स्त्री के त्रासद स्वप्न को अभिव्यक्त करती कविता ‘सिंदूर की डिबिया’ स्त्री जीवन में आने वाले नित नए असुरक्षा बोध का अंतर्द्वंद्व है। पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना में भयानक हिंसा और पूजनीयता का भाव दो विपरीत ध्रुवीय विडंबनाओं को जीती स्त्री जीवन का अस्तित्व हमेशा से पेंडुलम की भाँति अधर में लटका रहता है। भ्रूण हत्या, दहेज दहन, बलात्कार, यौन हिंसा आदि आज भी विकसित होते समाज की सच्चाई है। सिंदूर की डिबिया का कथा-रूपक भ्रूण हत्या के मर्दवादी हत्यारी प्रवृत्ति को उजागर करता है। शिक्षित-अशिक्षित सभी इसके बराबर अपराधी हैं। अपनी ‘सपनप्रिया’ (गर्भस्थ शिशु) को बचाने-छुपाने के लिए गर्भवती स्त्री का अनंत भागमभाग उसे सामाजिक संस्थाओं के दोहरे चरित्र का आभास कराती है। वह उन सभी से गुहार लगाती है जिन्होंने स्त्री उत्थान का ज़िम्मा उठाया है लेकिन उसे निराशा ही हाथ लगती है—“मैं धरती की ओर भागी/ समंदर के तटों पर पड़ी सीपियों/ क़लमकारों की क़लमों/ संगीतज्ञों के वाद्यों/ विद्या-भवनों/ न्यायदेवी की आँखों/ नारी मुक्ति की पुस्तकों/ गहनों की पेटियों/ फ़ैशन परेडों के प्रकाश-वृत्तों/ लिपस्टिक की डिब्बियों/ कहाँ छुपाकर रख दूँ उसे/ जहाँ वह नुकीला बाघ-सा नख न पहुँच पाए।”
गर्भवती स्त्री का यह त्रासद स्वप्न हमारे अति आधुनिक समय की क्रूरता का भी रूपक है। कहते हैं कि स्त्रियाँ ईश्वर के संरक्षण में भी सुरक्षित नहीं है, इतना अधैर्य, इतनी हिंसा अपने हमसफ़र साथी, जन्मदात्री के साथ ही क्यों? इस सवाल पर पूरा समाज मौन है।
आशीष त्रिपाठी की कविताएँ अपनी बनक-ठनक में अपने समय की ज्वलंत समस्याओं, सामाजिक-राजनैतिक दुरभिसंधियों के साथ-साथ व्यक्ति के अंतर्मन के संसार को भी पूरी मार्मिकता के साथ उकेरती है। बक़ौल कवि राजेश जोशी—“आशीष त्रिपाठी की कविताएँ हमारे समय की कई आंतरिक परतों को भेदते और उधेड़ते हुए, उसके अंतर्विरोधों और विडंबनाओं से होकर अपने समय का वास्तविक चेहरा तलाश करने की कोशिश करती हैं।”
कवि का विवेकशील मानस आंतरिक और बाह्य यात्राओं में कभी जीने की सीख देता है तो कभी ‘कलयुग’ के फ़ांसीवादी गणतंत्र के ख़तरों से आगाह करता है। इतना ही नहीं प्रेम और भरोसे की नई ऊर्जा के साथ स्त्री की दुनिया में अपने होने के अर्थ को नया भाष्य देना चाहता है। कवि की आलोचनात्मक दृष्टि देश-दुनिया के बरक्स घर-परिवार की दशा को भी कविताई विवेक से देखना-समझना है। ‘शान्ति पर्व’ संग्रह की कविताएँ राजनीतिक तीखेपन, समाज में बढ़ रही कटुता, हत्यारी दृष्टि की प्रच्छन्नता के साथ ही निर्मल प्रेम की आस में ‘गहनों की दुकान पर’ बैठी माँ-बेटी, जीवन का अभिनय करती स्त्री (पत्नी) की उम्मीद और दूध पीते बच्चे की स्मृति-कथा की आकुलता के लिए याद रखी जाएँगी। भाषा में आक्रोश और माधुर्य का संगम ‘शान्ति पर्व’ की तख़सीस है।
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31 जनवरी 2025
शैलेंद्र और साहिर : जाने क्या बात थी...
शैलेंद्र और साहिर लुधियानवी—हिंदी सिनेमा के दो ऐसे नाम, जिनकी लेखनी ने फ़िल्मी गीतों को साहित्यिक ऊँचाइयों पर पहुँचाया। उनकी क़लम से निकले अल्फ़ाज़ सिर्फ़ गीत नहीं, बल्कि ज़िंदगी का फ़लसफ़ा और समाज क