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हिंदुस्तान आपको नींद की ज़रूरत है

मेरे प्यारे दोस्तो, हिंदुस्तान कभी सुबह जल्दी उठने वालों का देश हुआ करता था। यह हमारे डीएनए में था। सुबह उठकर आप बिना किसी रुकावट के दस क़दम भी नहीं चलते कि एक आत्ममुग्ध चाचा जी मिल जाते, जो सुबह 4 बजे उठने, योग करने और तुलसी-नीम का कड़वा मिश्रण पीने के लाभों के बारे में बताने लग जाते। मुर्गे की बाँग केवल अलार्म घड़ी नहीं थी, बल्कि राष्ट्रीय एकता का प्रतीक थी। दूधवाला सुबह के समय में घर के दरवाज़े पर आकर दूध की बाल्टियाँ छोड़ जाता था और मंदिर की घंटियाँ सुबह के उगते सूरज के साथ आप के कानों में नए दिन की दस्तक देने लगतीं। 

आज लेकिन सब बदल गया है, अब हमें देखिए। हर परिवर्तन धीरे-धीरे आता है और यह परिवर्तन भी धीरे-धीरे आया। पहले यह रतजगे—‘रात भर की पढ़ाई’ थी, जो हम अपने माता-पिता से कहते थे, लेकिन अस्ल में वह सिर्फ़ क्रश के बारे में बातें करने या अस्तित्ववादी संकटों पर चर्चा करने की एक लंबी गुफ़्तगू हुआ करती थी। 

फिर आया टेक्नोलॉजी का युग और उसके साथ एक नया बहाना—‘ग्लोबल टीम्स’ के नाम पर रात भर जागना। भले ही ‘ग्लोबल टीम’ ओहायो में बैठे किसी ग्राहक की थी, जो यह भी नहीं जानता था कि आप अस्तित्व में हैं। अचानक, रात 12 बजे का वक़्त सुबह 7 बजे का समय बन जाता था। 

फिर आज नेटफ़्लिक्स, इंस्टाग्राम-रील्स, फ़ेसबुक, ट्विटर, स्नैपचैट, आदि-आदि-अनादि। ओह! सोशल मिडिया ने हमारी रातों को किस तरह तहस-नहस किया है या हमने किस तरह उन्हें अपनी ज़िंदगी को बर्बाद करने दिया है—कैसे कहा जाए। मुझे यक़ीन है कि “क्या आप अभी भी देख रहे हैं?”—वाला पॉप-अप (कोई सवाल नहीं, बल्कि एक कंबाइंड इंटरवेंशन जो एक किस्म का ‘एआई’ है) जब आपके सामने आता है और कहता है—“प्लीज सो जाओ।” तब क्या हम सुनते हैं? बिल्कुल नहीं। 

हम एक और एपिसोड, एक और ट्विस्ट में डूब जाते हैं और देखते-देखते रात के चार बज (या समय से जागने वालों के लिए सुबह के चार बजे) जाते हैं, और आप एक के–ड्रामा (कोरियन) के किरदार की प्रेम कहानी में इस क़दर खो जाते हैं, और मजे की बात तो यह आपकी भाषा तक नहीं।  

हमारी दादी-नानी, जो सुबह जल्दी उठने के आदर्श प्रतीक हैं, शायद इस परिवर्तन को देखकर धरना शुरू कर दें। ये वे लोग थे, जो सुबह के ठंडे पानी से नहाकर मंत्रों का जाप करते थे। अब, उनके पोते-पोतियाँ दुपहर तक सोते रहते हैं, आधी रात को मैगी खाते हैं, और उनका एकमात्र जप होता है—“एलेक्सा, लो-फ़ी बीट्स बजाओ”। अगर इसे सांस्कृतिक क्रांति नहीं कहा जा सकता, तो और क्या कहा जा सकता है?

कामकाजी दुनिया भी इस परिवर्तन में पूरी तरह शामिल है। नौ से पाँच का काम तो अब जैसे एक मिथ है और हमारे सामने हैं ‘गिग इकॉनमी’ और उसके अनगिनत असमय घंटों वाले मकड़ जाल। अब किसे फ़र्क़ पड़ता है अगर रात के 12 बजे हों, और आपको अपना दिमाग़ मैश्ड पोटैटो जैसा प्रतीत हो? एक और प्रोजेक्ट की डेडलाइन, एक और ज़ूम कॉल, या एक और एक अर्जेंट ई-मेल जो आप का ध्यान अपनी तरफ़ फ़ौरन चाहता है। 

बाक़ी समय का अंतर या टाइम ज़ोन? कौन इन बातों के बारे में सोचता है? बस इतना ही मायने रखता है कि न्यूयॉर्क में बैठा कोई आदमी आपको “चलो इसे कल फिर से देखेंगे” कहे और 20 मिनट में आप का कल आप के सामने हो। 

रात का जीवन या नाईट लाइफ़! अब यह जुमला पब्स या क्लब्स के बारे में नहीं रहा। अब असली मज़ा तो उन चाय की दुकानों में है, जो रात 10 बजे के बाद अपने असली रंग-ओ-जोश में आती हैं। पहले ये दुकानें सुबह के समय में खुलती थीं, जहाँ लोग एक कुल्हड़/कप चाय लेकर अपने काम की तरफ़ बढ़ते थे। अब, ये दुकानें रात के अँधेरे में अपने जादू से लोगों को अपनी तरफ़ खींचती हैं। 

रात के दो बजे आप किसी सॉफ़्टवेयर इंजीनियर को गर्म और कड़क चाय के साथ पकौड़े खाते हुए एक डिलीवरी बॉय के साथ जीवन के बारे में दार्शनिक बहस करते हुए देख सकते हैं। यह सच में आश्चर्यजनक है—आकर्षक ज़रूर है लेकिन उससे ज़्यादा डरावना।

शादी की शहनाई जो पहले गोधूलि बेला में सुनाई दिया करती थी, अब रात बारह बजे सुनाई देती है। संगीत में लड़कियाँ जिन गानों पर नाचती हैं, उसकी प्रैक्टिस भी अब रात 12 बजे से शुरू होती है। और बारात? अब वह पूरी रात चलने वाली रेव पार्टी बन गई है, जिसमें एक घोड़ा सिर्फ़ शो के लिए होता है, और जयमाल के बाद के होने वाले फेरे और बाक़ी रिवाजों तक पहुँचने तक आधे मेहमान अपनी कुर्सियों पर सो चुके होते हैं। मंत्र पढ़ते पंडित जी कैफ़ीन और इच्छाशक्ति से काम चला रहे होते हैं।

चाय की बात करें तो—क्या हम इस चाय के प्रेम को नज़रअंदाज़ कर सकते हैं? भूल जाइए रेडबुल को; चाय अब असली सुपरफूड बन चुकी है। चाहे वह कॉर्पोरेट कामकाजी हो या कॉलेज का छात्र, हर किसी के हाथ में अब एक कप चाय होती है—उसी चाय के साथ, जो देर रात के संघर्ष, अस्तित्ववादी संकट और क्रिकेट मैचों की रणनीति के बारे में सोचने के लिए प्रेरित करना शुरू करती है। यह अब एक मुद्रा बन गई है, जो अनगिनत कपों और प्यालों में लेट-नाइट जैमिंग-सेशंस, अस्तित्ववादी सवालों और क्रिकेट मैचों के बीच बाँटी जाती है।

और क्रिकेट! अगर कुछ है, जिसने हमारी रातों के प्रति प्यार को मज़बूत किया है, तो वह है आईपीएल। इन प्राइम-टाइम स्लॉट्स ने यह सुनिश्चित किया है कि अब सबसे अनुशासित सुबह जल्दी उठने वाले भी रातों को जागने वाले उल्लू बन जाएँ। मैच आधी रात के बाद ख़त्म होते हैं। लेकिन क्या हम सोते हैं? नहीं, जनाब! हम एक और घंटा बिताते हैं—हर गेंद, हर चौके और हर चूके हुए मौक़े की आलोचना करते हुए। क्रिकेट सिर्फ़ एक खेल नहीं है; यह एक पूर्णकालिक प्रतिबद्धता बन चुकी है।

स्वास्थ्य विशेषज्ञ अब चिंतित हैं। वे बात करते हैं—सर्कैडियन रिदम, कोर्टिसोल लेवल्स और कुछ ऐसे शब्दों के बारे में, जो मुझे सिर्फ़ इतना समझ आते हैं कि प्लीज़ सो जाओ। लेकिन हम किसकी परवाह करते हैं? हम रात के 3 बजे के समय को अपना पवित्र समय मानते हैं। यही वह समय है, जब आप या तो ब्रह्मांड के रहस्यों का हल निकाल रहे होते हैं, या फिर यूट्यूब पर बिल्ली के वीडियो देख रहे होते हैं। यही भारतीय क्रिएटिविटी का पीक है! आख़िरकार, हिंदुस्तान में ही तो हम रात को जुगाड़ के नए-नए तरीक़े ढूँढ़ते हैं।

तो हम यहाँ तक आ पहुँचे हैं जो ट्यूब की लाइट्स, एलईडी स्क्रीन और कभी-कभी चाँद की रोशनी में फल-फूल रहा है। मुर्गा चाहे जितना भी बाँग दे, हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। हम ज़िंदगी के असली मज़े को पकड़ने में व्यस्त हैं। किसे पड़ी है सुबह-सुबह उठने और पेट साफ़ होने की, जब आधी रात की मैगी और ब्रेड पकौड़े इतने स्वादिष्ट हैं? इस महान् राष्ट्र का भविष्य सुबह जल्दी उठने वालों के हाथ में नहीं है। यह उनींदे मिलेनियल्स, चाय के दम पर कोड लिखने वाले, और थके हुए क्रिकेट प्रशंसकों में है, जो आख़िरी ओवर तक जागने का हौसला रखते हैं। 

हम हिंदुस्तान हैं—एक ऐसा राष्ट्र जो तब सोता है, जब सूरज बूढ़ा हो चलता है; और तब जागता है, जब चाँद अपनी रोशनी बिखेरता है। हमें मालूम है कि यह जो भी है हमारे लिए और आने वाली कई पीढ़ियों के लिए लाभकारी तो बिल्कुल भी नहीं है लेकिन सच कहें तो, हमें इससे बेहतर कुछ नहीं लगता। हम क्या करें!

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