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दारा शुकोह, मैनेजर पांडेय और कुछ झूठ

विश्वविद्यालयों में एक जुमला ख़ूब चलता है—“और भाई एमे, एम्फ़िल, जॉरगंस से निकल गए या वहीं फँसे हो।’’ मतलब यह कि नया विद्यार्थी ख़ूब भारी-भारी शब्द उछालना सीख जाता है। आजकल किसी भी किताब पर होने वाली चर्चा को सुनते हुए, यह जुमला बारहा याद आता है और अगर किसी चर्चा में यह नहीं याद आए या कम याद आए तो मेरे लिए वह चर्चा पचास प्रतिशत सफल तो यहीं हो जाती है। मैं बात कर रहा हूँ दिवंगत साहित्यकार मैनेजर पांडेय की किताब ‘दारा शुकोह’ पर हुई चर्चा की। 

चलिए शुरू से शुरू करते हैं। नहीं-नहीं, 20 मार्च 1615 से नहीं; बल्कि एक हफ़्ते पहले जब मुझे इस कार्यक्रम की सूचना फ़ेसबुक पर मिली या इससे भी पहले से जब फ़ेसबुक पर एक लेखक-पाठक शमीमुद्दीन अंसारी ने इस किताब में क़ुरआन की आयतों के ग़लत तर्जुमे का मुद्दा उठाया था। हालाँकि ‘आलोचना’ पत्रिका के संपादक और आलोचक आशुतोष कुमार ने बहुत समझदारी से इस बात को कार्यक्रम के शुरू में ही संबोधित करके एक विवादरहित अच्छी चर्चा का माहौल तैयार कर दिया था। 

फ़ेसबुक से जब इस कार्यक्रम की सूचना मिली तो सबसे पहले तो वीक-डे पर यह कार्यक्रम रखने के लिए आयोजकों को कोसा। पता नहीं यह क्या चलन है—वीक-डे पर कार्यक्रम करने का। शायद वेन्यू सस्ता मिल जाता होगा। फिर सोचा ऑफ़िस से कोई बहाना बनाकर निकल लूँगा। कार्यक्रम से आधे घंटे पहले नाश्ता शुरू हो जाएगा, यानी नाश्ता ख़त्म होकर कार्यक्रम शुरू होते-होते साढ़े छह बज जाएँगे। सात बजे तक दिल्ली के कुछ साहित्यकार लोग फ़ोन रिसीव करने के बहाने कुर्सी ख़ाली करके अपने घर चले जाएँगे, लेकिन फ़ेसबुक पर कार्यक्रम के फ़ोटो में वही छाए होंगे। ख़ैर, मुझे क्या मुझे तो उस बदक़िस्मत मुग़ल शहजादे पर चर्चा सुननी थी जिसे कोई साधु कोई काफ़िर तो कोई कायर कहता था।  

मैं इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की सीढ़ियाँ चढ़ रहा था कि गीता श्री को तेज़ी से जाते देखा। अंदर हॉल में पहुँचा तो लगभग सारी कुर्सियाँ भरी हुई थीं। एक सज्जन ने एक ख़ाली कुर्सी की ओर इशारा किया। 

प्रोफ़ेसर और इतिहासकार तनुजा कोठियाल ने हिस्टोरिओग्राफ़ी (Historiography) के टूल्स और उसकी सीमाओं पर बात की। उन्होंने कहा कि दारा के ऊपर इतिहास की कम पुस्तकें हैं। उन्होंने साहित्यिक और दार्शनिक टेक्स्ट के माध्यम से किसी ऐतिहासिक व्यक्तित्व जो कि एक बादशाह हो सकता था, लेकिन नहीं हो सका को समझने की कोशिश की। दारा और औरंगज़ेब की बाइनरी से बाहर आकर देखने का भी आग्रह किया। 

आजकल के नए उगे-उगे ही कहना सही होगा, क्योंकि ये उग ही गए हैं—इतिहासकारों में एक अजब-सी कल्पना है, “दारा शुकोह अगर बादशाह बनता तो मानो हम विश्वगुरु उसी समय बन गए होते।” 

उन्होंने आगे समझाया कैसे शासक कोई भी बनता, स्टेट की प्रवृत्ति में कोई ख़ास या कि बिल्कुल भी बदलाव नहीं आता। तनुजा की बातें चर्चा के लिए सटीक प्रस्थान बिंदु रहीं। 

इसके बाद सरवरुल हुदा ने अपने वक्तव्य में दारा के बारे में कई सारी ग़लत धारणाएँ हैं, जैसे—वह बहुत हिंदूपरस्त या अपने आप में अकेला व्यक्ति था जो सहिष्णुता इत्यादि में भरोसा रखता था। उन्होंने दारा से पहले के ऐसे कई ऐतिहासिक चरित्रों के नाम बताए जो इसी तरह की सोच रखते थे। उन्होंने यह भी कहा कि एक वर्ग दारा के जिस गुण के लिए उसे साधु कहता है, दूसरा वर्ग ठीक उसी गुण की वजह से उसे काफ़िर कहता है। 

मेरे सामने वाली कुर्सी पर नीले कुर्ते में बैठे बुज़ुर्ग के बालों की तरतीब सरवरुल हुदा का बोलना सुनने में एक असंगतता पैदा कर रही थी। बाल बहुत बेतरतीब तरह से कटे थे, सरवरुल हुदा सधा हुआ बोल रहे थे। नाम, पता और साइन करने के लिए रजिस्टर मेरे पास आया तो मैंने कुर्सियाँ गिनकर जानना चाहा कि यह साहब कौन हैं! वह अशोक वाजपेयी थे। उनके हस्ताक्षर जैसे बेमन से किए गए हों। मुझे अंतिम समय में अपने शादीनामे पर किए गए हिटलर के हस्ताक्षर याद आ गए। 

सरवरुल हुदा के बाद आशुतोष कुमार ने फ़ारसी के प्रोफ़ेसर अख़लाक को बोलने के लिए बुलाया। उनके एक तरफ़ को खींचकर काढ़े हुए बाल देखकर मुझे एक बार फिर हिटलर की याद आ गई। उन्होंने बहुत सारगर्भित बोला और उनके बोलने में वह बोरियत भी नहीं थी, जो अक्सर अकादमिक लोगों में होती है। उन्होंने ‘शिकोह’ और ‘शुकोह’ का फ़र्क़ समझाते हुए, यह संभावना जताई कि उन्हें शिकोह कहने वाले उनके विरोधी रहे होंगे। ये वही लोग होंगे जो उन्हें काफ़िर कहते रहे हैं, क्योंकि फ़ारसी में शिकोह का अर्थ है—नीच, बद-बख़्त। वहीं शुकोह का अर्थ है—शानदार, गौरवपूर्ण। अर्थात् बहुत से दारा शिकोहों ने मिलकर दारा शुकोह के नाम की मिट्टी पलीद कर दी है। 

आख़िर में उन्होंने यह कहते हुए अपनी बात ख़त्म की, “किताब में अभी भी बहुत सारी ग़लतियाँ हैं। किसी पढ़े-लिखे आदमी को एक बार दिखा लें।” माहौल में एक हल्की हँसी तैर गई। 

इसके बाद अनामिका को बुलाया गया। उन्होंने दारा के बहाने हमारे समय, समाज और राजनीति पर टिप्पणी करते हुए। धर्म और मार्क्सवाद में समन्वय जैसी बात कही। संभवत वह धार्मिक मार्क्सवाद जैसा कुछ कहने की कोशिश कर रही थीं, उन्होंने इसके लिए ‘गलबहियाँ’ शब्द प्रयोग किया। मुझे यह एक सुकवि की भावुकता लगी। 

आशुतोष कुमार का संचालन बहुत संक्षिप्त रहा और उन्होंने सिर्फ़ वही बातें कहीं जो कहनी ज़रूरी थीं। संचालन में लंबी भूमिकाएँ बाँधकर वक्ता का समय ख़ुद हड़प जाने वाली हिंदी-प्रतिभा का प्रदर्शन उन्होंने नहीं किया और कमाल यह कि ऐसा उन्होंने प्रोफ़ेसर होने के बावजूद नहीं किया। 

इसके बाद सवाल-जवाब का सिलसिला शुरू हुआ और मेरे द्वारा ऑफ़िस में बोले गए झूठ की मियाद ख़त्म होने में बीस मिनट बचे थे। मैं फटाफट घर के लिए निकल गया।

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