भारत कृषिप्रधान देश हुआ करता था!
हर्ष कुमार 05 दिसम्बर 2024
बरसात का मौसम हर साल प्रकृति को साफ़ करने में योगदान करे या न करे लेकिन भौतिक विकास का प्रपंच किस राज्य की नगरपालिका ने कितना ज़्यादा किया है—यह क्रमशः दिखाने में कसर नहीं छोड़ता; और छोड़े भी क्यों जी? एक दुपहिया वाहन चालक अपना घर चलाए, ऑफ़िस में दिन-रात गाली खाए, और फिर यह भी देखे की कहीं सड़क पर चलते हुए उसकी दुपहिया गड्ढे में न घुसने पावे!
भारत क्या, वैश्विक स्तर पर भी संयम की सीमा पहले ही दिन प्रति दिन घट रही है। उस पर कोई दफ़्तर की गाली खाया व्यक्ति गड्ढों की धूल-धक्कड़ से शृंगार लेते हुए घर पहुँचकर अपनी सारी खुन्नस बीवी-बच्चों पर उतार दे, इसके अलावा उसके बूते में कुछ नहीं बचता। इसमें ग़लत कौन, इसका निर्णय आगे करने की कोशिश रहेगी, वैसे देखा जाए तो दोषी कौन है, इससे ख़ासा फ़र्क़ पड़ता नहीं है। सज़ा उसी को दी जाएगी, जिसका बल कम होगा चाहे घर हो या बाहर।
घर का मर्द बाहर से चुपचाप आया और घर में शेरख़ान हो गया, इसे शेरख़ान कहें या कुएँ का मेंढक इसका निर्णय भी अपने आप को देखते हुए कीजिए। समझ नहीं आता कि सरकारी आदमी कभी सड़क पर उतरता है कि नहीं? उनकी अपनी प्राइवेट सड़कें हैं? अगर किसी सरकारी अफ़सर की गाड़ी गड्ढे में धचकियाँ खाती होगी, तो वह ख़ुद को कौन-सी गाली देता होगा? गाली कोई भी हो, देता तो ज़रूर होगा; आख़िर गाली भारतीय संस्कारों का हिस्सा है।
यह बरसात का मौसम भारत की भभकी हुई तासीर को आराम देने के लिए है क्योंकि सर्दियाँ जा चुकी हैं और भारतीय बजट का आगमन फैटमैन से कम असर नहीं रखता। लोग इस विस्फोट से निकले ही होते हैं कि नए साल पर फिर एक नया बम जानता के सामने ऐसे पेश किया जाता है—जैसे संपूर्ण भारत की मिली-जुली थाली हो। साथ ही उस पर टीवी में हलवा परोसे जाने का कार्यक्रम, किस तरह का रिवाज़ है भला!
बजट देखकर आम जनता की हवा हर छिद्र से बाहर आती है और वहाँ मंत्री कढ़ाई से हलवा चाटते दिखाए जाते हैं। इस तरह की स्थिति में भगवान भी तरस खाकर बरसात करवाता है ताकि लोगों की आँखों से परदे उठें और वे समझें कि पिछली ग़लती फिर नहीं हो लेकिन हम वही ढीठ, अच्छा-बुरा काम एक जगह अपनी जात और धर्म का व्यक्ति एक जगह। जिनकी समझ में जात और धर्म ही सर्वोपरि हो—ऐसे लोग पहले ही अंधकार के गड्ढे में गिरे हुए हैं और उन पर भौतिक जगत के गड्ढों का उतना ही असर हो सकता है जितना मक्खी का आपके खाने पर।
बरसात का मौसम उस लीपा-पोती को धोने में सहायक है जो पिछले इलेक्शन से शुरू हुई थी, लेकिन गड्ढों का हिसाब लगाए नहीं लगता। आप अगर भारतीय मज़दूर की औसत आय पाँच सौ से छह सौ रुपए प्रतिदिन मान लें, तब 15-16 हज़ार से वह घर का राशन भरे, किराया दे, सड़क इस्तेमाल करने का टैक्स दे, हाईवे पर चले तब वहाँ अलग टैक्स दे, बच्चों की किताब पर टैक्स, इस पर-उस पर टैक्स दे, लिखेंगे तो ये फ़ेहरिस्त व्यक्ति-दर-व्यक्ति बदलेगी लेकिन ख़ुदा-न-ख़्वास्ता बंदा मर गया तो कफ़न ख़रीदने में भी अप्रत्यक्ष टैक्स जाएगा ही।
हिंदुओं के 16 शृंगार में समय-समय पर होने वाले ख़र्चों पर भी टैक्स देना है। भारत कृषि प्रधान देश हुआ करता था, अब टैक्स प्रधान है। कृषि में तो हालात और खस्ता हैं, पहले ही इतनी बड़ी जनसंख्या होने के कारण हर किसान अपनी ज़मीन पर बुआई करता हो—यह संभव नहीं है; और जो करते हैं या मज़दूरी देकर करवाते हैं वे पहले तो उसमें लगने वाले कीटनाशक, फ़र्टिलाइजर्स आदि की क़ीमत झेलते हैं जो बेकाबू होकर बढ़ रही है।
सरकारी दुकानों पर ताले और प्राइवेट पर क़ीमत के बोल्ड अक्षर, किसान को आत्महत्या पर मज़बूर करते हैं। इस सब के बावजूद कोई किसान अपनी लागत का दाम माँग ले तो सरकारी ख़ज़ानों का रुपया बाहर आते तक इतना दुबला हो जाता है कि उसकी ही देख-रेख करनी पड़ जाती है। समस्या टैक्स देने में क़तई नहीं लेकिन उसके बदले में जो मिलता है वह सुविधाएँ तो नहीं, उन्हें जो चाहे संज्ञा दीजिए पर सुविधा नहीं। सुविधाएँ लेंगे तो उसका ऋण भी देंगे ही ज़ाहिर है।
सरकारी ख़ज़ाना कोई कुबेरधन तो है नहीं, इसीलिए हर नागरिक का फ़र्ज़ होता है कि वह अपने देश के विकास में योगदान दे, उसकी प्रगति का हिस्सा बने। देश प्रगति करेगा तब कहीं ग़रीब जन के कटोरे में कोई सब्ज़ी गिरेगी, लेकिन देश तरक्की करे कैसे? धर्म के ठेकेदार कम नहीं थे कि आजकल भौतिक विकास के ठेकेदारों ने भी धँधा बनाया है कि रिकॉर्ड में जो हिसाब दिखाया जाता है और जो असल काम के बदले लिया जाता है, उसमें ज़मीन-आसमान का अंतर है। कॉन्ट्रैक्ट बनाकर उसे पैसों के बैग में रखा जाता है, ताकि पहले नज़र पैसों पर पड़े, फ़ाइलों का काम तो रि-चेकिंग के दौरान आता है, तब भी कोई समझदार व्यक्ति उसी तरकीब को दोहरा दे तो मामला ख़त्म।
ठेकेदार काम लेते हुए जो रिश्वत देते हैं, उसकी वसूली दो फ़ीट-रोड निर्माण से निकल लेते हों तो मुझे संदेह नहीं। हाँ, काम लेने में रिश्वत का लेन-देन विकासशील भारत की जनता अपना धर्म समझती है। क्वालिफ़िकेशन और क्वालिटी से ज़्यादा यहाँ फ़ाइल में वज़्न देखा जाता है, बाक़ी रोड निर्माण हो या कोई भी काम जितना हो सके पैसा अपनी जेबों में खींचा जाता है। काम तो आए दिन की बात है, फ़िर नया कॉन्ट्रैक्ट निकाला जाएगा फिर कोई तेज़ दिमाग़ का व्यक्ति आ जाएगा। इनकी बला से काम होता हो तो हो, नहीं होता हो तो भी सही।
फिर भी इस सब का कोई अंत तो होना ही चाहिए? कोई तो होगा भारतीय राजनीति का बैटमैन जिसके बूते पर शहर का कार्यभार छोड़ा जाए ताकि टैक्स देते हुए मुँह से गालियों का प्रवाह ना निकले। मेरा मानना है इसका अंत कोई एक व्यक्ति नहीं कर सकता, इस सिस्टम के हम सब उतने ही भागीदार हैं जितने सरकारी अफ़सर और राजनेता; क्योंकि हर किसी के साथ काला धन बाँटा जाए—पहले तो यह संभव ही नहीं और अगर हुआ भी तो देश एक दिन में दिवालिया घोषित हो जाएगा। इसलिए देश को बचाने का कार्य प्रत्यक्ष रूप से कुछ महानुभाव और अप्रत्यक्ष रूप से उस पैसे के भागीदार न होने के कारण हम सभी करते हैं।
समस्या एक यह भी नज़र आती है कि आम आदमी ही क्यों इस सब का नुकसान उठाता है? यह ख़याल कि वह बेचारा इस सब से क्यों नहीं निकल पाता है, इस समस्या से यह ज़रा नाजायज़-सा लगता है, क्योंकि जब रेड लाइट जंप करके व्यक्ति अपने काम को भागता है—तब याद करे कि वह किसी और को गालियों के स्वर-व्यंजनों से विभूषित करे इस लायक़ है? शाम को घर आकर दिन भर की खुन्नस बीवी-बच्चों पर निकाले, तब सोचे वह किस लायक़ है?
मंदिर की एक लाइन में गर्मी लगी-घुटन हुई तो वीआईपी लाइन का प्रबंध हुआ—पैसे देकर सीधे भगवान के पास—यह कैसी समझदारी है? घूस दी भी तो कहाँ मंदिर प्रवेश में! मंदिर के बाहर बैठे फ़ुटपाथ पर सोए लोग भी इंसान हैं, उनके ऊपर गाली बरसाने से पहले कभी नहीं सोचा जाता है क्योंकि मनुष्य होने को सर्वोपरि समझते हैं। उस पर अगर चार पैसा हाथ हो तो तेवर देखने लायक़ होते हैं। ऐसी स्थिति में कमज़ोरों पर अपना बाहुबल दिखलाना तो सभी जीवों को गौरव से भरता है।
अब क्योंकि हमने माना की हम मॉडिफ़िकेशन बेहद अच्छे से करते हैं। हमारा संप्रेक्षण सबसे बेहतर है, लेकिन बेहद सूक्ष्म बातें हमें समझने के लिए अरसा लगता है—जैसे यही लीजिए कि रेड लाइट जंप करना ठीक समझते हैं कि देरी हुई थी इसलिए निकल आए। यह वाक्य कहते हुए ग़ौर कीजिए देरी किसने की? सरकार ने? नगरपालिका ने? आपके परिवार ने? जीव होने के कई फ़ायदों में से एक है कि हम ग़लतियाँ कर सकते हैं लेकिन रोज़ एक ही वाक्य दोहरा देना ग़लती नहीं हो सकती, उसकी अलग श्रेणी है ठीक-ठीक हिसाब लगाएँ तो करोड़ों में से बेहद कम लोग होंगे जो ऐसी क्रियाओं में अपने को नहीं घुसाते उन्हीं की समस्या असल समस्या है।
मेरे अपने अनुभव में यह बात मैंने पाई है कि घूस लेना-देना—साँस लेने जितना नैसर्गिक हो चुका है। जिस तरह कर्क रेखा भारत में लगभग बीच से होकर गुज़रती है, जिसके प्रमाण की आवश्यकता नहीं, उसी तरह भारतीय जनमानस के ठीक तीसरे और चौथे चक्र के बीच से गुज़रती है एक संस्कारी रेखा, जिसे भाषा में घूसख़ोरी कहते हैं।
'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए
कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें
आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद
हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे
बेला पॉपुलर
सबसे ज़्यादा पढ़े और पसंद किए गए पोस्ट
19 नवम्बर 2024
उर्फ़ी जावेद के सामने हमारी हैसियत
हिंदी-साहित्य-संसार में गोष्ठी-संगोष्ठी-समारोह-कार्यक्रम-आयोजन-उत्सव-मूर्खताएँ बग़ैर कोई अंतराल लिए संभव होने को बाध्य हैं। मुझे याद पड़ता है कि एक प्रोफ़ेसर-सज्जन ने अपने जन्मदिन पर अपने शोधार्थी से
27 नवम्बर 2024
क्यों हताश कर रही हैं स्त्री आलोचक?
लेख से पूर्व रोहिणी अग्रवाल की आलोचना की मैं क़ायल हूँ। उनके लिए बहुत सम्मान है, हालाँकि उनसे कई वैचारिक मतभेद हैं। ‘हिन्दवी’ के विशेष कार्यक्रम ‘संगत’ में अंजुम शर्मा को दिया गया उनका साक्षात्कार
10 नवम्बर 2024
कवि बनने के लिए ज़रूरी नहीं है कि आप लिखें
‘बीटनिक’, ‘भूखी पीढ़ी’ और ‘अकविता’ क्या है, यह पहचानता हूँ, और क्यों है, यह समझता हूँ। इससे आगे उनपर विचार करना आवश्यक नहीं है। — अज्ञेय बीट कविता ने अमेरिकी साहित्य की भाषा को एक नया संस्कार दि
09 नवम्बर 2024
बंजारे की चिट्ठियाँ पढ़ने का अनुभव
पिछले हफ़्ते मैंने सुमेर की डायरी ‘बंजारे की चिट्ठियाँ’ पढ़ी। इसे पढ़ने में दो दिन लगे, हालाँकि एक दिन में भी पढ़ी जा सकती है। जो किताब मुझे पसंद आती है, मैं नहीं चाहती उसे जल्दी पढ़कर ख़त्म कर दूँ; इसलिए
24 नवम्बर 2024
भाषाई मुहावरे को मानवीय मुहावरे में बदलने का हुनर
दस साल बाद 2024 में प्रकाशित नया-नवेला कविता-संग्रह ‘नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा’ (हिन्द युग्म प्रकाशन) केशव तिवारी का चौथा काव्य-संग्रह है। साहित्य की तमाम ख़ूबियों में से एक ख़ूबी यह भी है कि व