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एलिस मुनरो की कहानी से

मेरी माँ मेरे लिए एक पोशाक बना रही थी। पूरे नवंबर के महीने में जब मैं स्‍कूल से आती तो माँ को रसोईघर में ही पाती। वह कटे हुए लाल मख़मली कपड़ों और टिश्‍यू पेपर डिज़ाइन की कतरनों के बीच घिरी हुई नज़र आती। वह एक पुरानी पेडल मशीन पर काम करती थी, जिसे खींचकर खिड़की की तरफ़ रखा गया था ताकि उजाला आ सके और इसके साथ ही बाहर का नज़ारा भी देखने को मिल सके। बाहर ठूँठदार खेतों और सब्ज़ियों के ख़ाली बगीचों के परे रास्‍ता भी दिखाई देता था जिस पर आने-जाने वालों को भी देखा जा सकता था। हालाँकि वहाँ कभी-कभार ही कोई दिखाई देता था।

इस लाल मख़मली कपड़े को सीना मुश्किल काम था क्योंकि वह खिंच जाता था और मेरी माँ ने जो तरीक़ा चुना था वह भी आसान नहीं था। वह अच्‍छी सिलाई नहीं कर पाती थी। यह अलग बात है कि उन्‍हें कपड़े सीना पसंद था। जब भी संभव होता—वह टाँके लगाने और बटन टाँकने से बचने की कोशिश करती थी। उसे मेरी चाची और दादी की तरह काज (बटन लगाने वाले छेद) बनाने, तुरपाई करने और सीवन (सिलाई का जोड़) को ढकने जैसी सिलाई की बारीकियों में कोई गर्व महसूस नहीं करती थी। लेकिन माँ इनसे अलग हटकर नई प्रेरणा के साथ साहसी और शानदार विचार से काम शुरू किया करती थी; लेकिन बाद में उसकी प्रेरणा कम हो जाती और उसके आनंद में कमी आने लगती थी।

पहली बात तो यह कि वह कभी ऐसा डिज़ाइन नहीं खोज सकी थी जो उनके अनुकूल होता। इसमें कोई आश्‍चर्य नहीं था क्‍योंकि उसके दिमाग में जैसे विचार कौंधते थे, उससे मिलते-जुलते हुए कोई डिज़ाइन पहले से मौजूद ही नहीं होते थे। जब मैं छोटी थी, तब माँ ने मेरे लिए कई बार फूलों की कढ़ाई वाली ओर्गेंडी पोशाक बनाई थी, जिसमें ऊँचा विक्‍टोरियन गला और किनारों पर मोटी झालर थी। इसके साथ मैच करता हुआ पोक बोनट (चौड़ी-गोल मुकुटनुमा हैट); यह स्‍कॉटिश परिधान था जिसके साथ मख़मली जैकेट और डोरी थी। क़शीदाकारी वाली देहाती जैकेट थी, जिसे लाल स्‍कर्ट और काले गोटे की चोली के साथ पहना जाता था।

जब मैं दुनियावालों की राय से अनजान थी तो मैंने इन सब पोशाकों को बहुत नम्रता और ख़ुशी से पहना। अब समझदार हो जाने पर मैं चाहती थी कि अपनी दोस्‍त लोनी की तरह पोशाक पहनूँ जो उसने बील्स स्‍टोर से ख़रीदी थी।

मुझे इसको पहनकर देखना पड़ा था। कभी-कभी लोनी स्कूल से मेरे साथ घर लौटती और सोफ़े पर बैठ कर देखा करती थी। जिस तरह मेरी माँ मेरे आस-पास घूमती रहती थी मुझे बहुत शर्मिंदगी होती थी। उनके घुटने कड़कड़ा रहे होते थे, उनकी साँसें बहुत भारी हो जाती थीं। वह अपने आपसे बुदबुदाती रहती थी। वह घर में कोई चोली या स्टॉकिंग (घुटनों तक पहने जाने वाली जुराबें) पहनती थी। वह ऊँची हील वाले जूते और टखने तक जुराबे पहनती थी; उनके पैरों में हरी-नीली नसों की इकट्ठा हुईं गाँठें दिखाई देती थीं। मुझे उनकी पालथी मार बैठने की मुद्रा बहुत निर्लज्‍ज, अश्लील लगती थी; मैं लोनी से बातें जारी रखकर, उसका जितना हो सके उतना ध्‍यान मेरी माँ से हटाने की कोशिश करती थी।

लोनी का लहजा शांत, प्रशंसात्‍मक और विनम्र होता था जो कि बड़ों की मौजूदगी में ओढ़ा गया आवरण था। उन लोगों को कभी पता नहीं चला कि वह उनका मख़ौल उड़ाती थी और नक़ल करती थी।

 मेरी माँ मुझे एक तरफ़ खींचती और पिन चुभा देती। वह मुझे घुमा देती थी, कभी वह मुझे चलने को कहती तो कभी एक जगह स्थिर खड़ा कर देती थी। “इसके बारे में तुम्‍हारा क्‍या कहना है लोनी?” वह मुँह में पिन दबाए हुए कहती थी। 

“यह सुंदर है” लोनी ने सौम्‍यता भरे लहजे में कहा। लोनी की अपनी माँ मर चुकी थी। वह अपने पिता के साथ रहती थी, जिन्होंने कभी उस पर ध्यान नहीं दिया था और इस वजह से मेरी नज़रों में वह अतिसंवेदनशील और विशेष हो गई थी।

“यदि मैं इसे फिट कर पाई तो यह सुंदर लगेगी”, मेरी माँ ने कहा। “अरे, हाँ”, वह घुटनों की कड़कड़ाहट के साथ खड़ी होकर आह भरकर नाटकीय अंदाज़ में बोली, “मुझे नहीं लगता कि यह उसे पसंद आएगी।” लोनी से इस तरह बात करके उन्होंने मुझे गुस्सा दिला दिया, मानो लोनी कोई उम्रदराज़ इंसान हो और मैं कोई बच्ची हूँ। “सीधी खड़ी रहो” पिनों से भरी हुई, सिली हुई पोशाक मेरे सिर पर लहराते हुए वह बोली। मेरे सिर को मख़मल में फँसा दिया जाता था और मेरा शरीर पुरानी स्कूली सूती शमीज़ में उघड़ा हुआ होता था।

मैं ख़ुद को कच्चे ढेले-सी गंदी, भद्दी और मुँहासों-भरी महसूस करती थी। मैं चाहती थी कि काश मैं लोनी की तरह दुबली-पतली और हल्के रंग की होती। वह मरियल बच्ची थी। 

“ख़ैर, जब मैं हाईस्‍कूल में थी तब मेरे लिए कभी किसी ने ड्रेस नहीं बनाई।” मेरी माँ ने कहा। “मैंने ख़ुद ही अपनी पोशाक बनाई या उसके बिना काम चलाया।” मुझे डर था कि कहीं वह हाईस्‍कूल की पढ़ाई पूरी करने के लिए कस्‍बे के बोर्डिंग हाउस में काम तलाशने के लिए सात मील तक पैदल जाने वाली अपनी कहानी फिर से न कहना शुरू कर दें। मेरी माँ के जीवन की सारी कहानियाँ जिनमें कभी मैं रुचि लिया करती थी, अब मुझे नाटकीय, अप्रासंगिक और उबाऊ लगने लगी थीं।

“एक बार मुझे एक पोशाक दी गई थी”, वह बोली। “वह क्रीम रंग की कश्मीरी ऊन से बनी थी जिसमें आगे नीचे की ओर नीले रंग की झालर थी और मोतियों के सुंदर बटन लगे हुए थे। मुझे हैरानी है कि उसका क्या हुआ?” 

जब हमें फ़ुरसत मिली तो मैं और लोनी ऊपर बने मेरे कमरे में चले गए। ठंड थी लेकिन हम वहीं रुके रहे। हमने अपनी क्लास के लड़कों के बारे में बातें की, क़तारों में ऊपर नीचे जाने के बारे में बातें की, जैसे—“तुम उसे पसंद करती हो? अच्छा, क्या वह तुम्हें कुछ-कुछ पसंद है? क्या तुम उससे नफ़रत करती हो? अगर वह कभी तुमसे कहेगा तो क्या तुम उसके साथ कहीं बाहर जाना पसंद करोगी?" किसी ने हमसे नहीं पूछा था।

हम 13 साल की थीं और हम दो महीनों से हाईस्कूल जा रही थीं। हमने पत्रिकाओं में अपने सवाल भी हल किए थे, यह जानने के लिए कि हमारा व्यक्तित्व शानदार है या नहीं, हम मशहूर होंगे या नहीं। हम ऐसे आलेख पढ़ा करती थीं जिसमें बताया जाता था कि अपने चेहरे की सुंदरता को उभारने के लिए कैसा मेकअप करना है और पहली मुलाक़ात के समय कैसे बात की जाए और जब कोई लड़का दूर जाता मालूम पड़े तो हमें क्या करना चाहिए। इसके साथ ही हम मासिक धर्म की कठिनाइयों, गर्भपात के बारे में आलेखों सहित यह भी पढ़ा करते थे कि कोई पति घर से बाहर संतुष्टि क्यों खोजता है।

जब हम स्कूल का काम नहीं कर रही होती थीं, तब हम अपना अधिकांश समय यौन जानकारी और चर्चाओं में गुज़ारा करती थीं। हमने आपस में एक दूसरे को सब कुछ बताने का समझौता किया हुआ था। लेकिन मैंने उसे एक बात जिसके बारे में कुछ नहीं बताया था—वह डांस, हाईस्कूल का क्रिसमस डांस जिसके लिए मेरी माँ पोशाक तैयार कर रही थी। असल बात यह थी कि मैं जाना नहीं चाहती थी...

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