Font by Mehr Nastaliq Web

अजंता देव की ताँत के धागों से खींची कविताएँ

अगर कोई कहे कि अपने लिए बस एक ही फ़ेब्रिक चुनो तो मैं चुनूँगी सूती। सूती में भी किसी एक जगह की बुनाई को ही लेने को मजबूर किया तो चुनूँगी—बंगाल; और बंगाल के दसियों क़िस्म की सूती साड़ियों में से भी कोई एक क़िस्म ही लेने कहे तो होगी वह ताँत। इस प्रकार कहा जा सकता है कि ताँत के पास मेरी एकमात्र पसंद होने का अधिकार सुरक्षित है क्योंकि वह "कुलीन और आवारा है एक साथ /अभिजात और मेहनतकश भी उसी वक़्त।"

कुछ साड़ियों को आप पहनते नहीं हैं। वे बताती हैं कि आप हैं कौन? वे आपके होने को परिभाषित करती हैं। इनको पहनने से आप किसी और की तरह दिखते नहीं, आप वही होते हैं जो असल में हैं। ताँत वैसी ही एक साड़ी है। जब भी पहनूँ अपने में लौट जाती हूँ। जब भी इसमें ख़ुद को देखूँ अपने होने का भरम बना रहता है। ताँत की साड़ियों के बिना बचपन नहीं बीता और बुढापा भी नहीं आएगा।

बचपन इसलिए कि मेरी नानी अपने ‘युवा नानी’ वाले दिनों में साउथ कॉटन, कोटा डोरिया, ताँत या अरगंडी पहनती थीं। याद में सदा इन्हीं साड़ियों में उनकी तस्वीर चमक उठती है। इनमें भी सबसे ख़ास है—ताँत की साड़ी क्योंकि यह कोटा डोरिया से अधिक टिकाऊ थी और रोज़ के माँड़ में डुबकी लगाकर ख़ासी चमक उठती थी। सही तरीक़े से झाड़ के पसार दो और सूखने पर चार हाथ मिल-जुल खींच-तान कर कोने सही कर लें तो बिना इस्तरी (आयरन) के भी क्या सुंदर खड़ी-खड़ी और क्रीज़ वाली।

हमें ख़ुद भी नहीं पता होता कि बचपन हम पर ऐसा असर डालता है। नानी की इन सूती साड़ियों से मेरा बचपन जुड़ा है और इसीलिए तो ताँत की साड़ियाँ पहली पसंद हैं। उनमें मैं नानी जितनी कुलीन और संभ्रांत भले न लगूँ पर वे सदा मन में मुरझाए बचपन को हरा कर देती हैं। आँखों में धान के पक कर सुनहला होने वाली चमक उठ जाती है। धनहर और खेतिहर समाज की इस स्त्री को खलिहानों की मलिकाइन नानी याद आती हैं। भात की ख़ुशबू से सनी उनकी साड़ियाँ अतीत की स्मृतियों में ले जाती हैं।

ताँत वह है जिसे साड़ी में भी क्रीज़ में रहने का सलीका आता है और मुड़-तुड़ कर यह धागा और भी आकर्षक बना जाता है आपको। उतना महीन तंतु जिसमें हवा आपकी कमर तक पहुँच जाए। उतना मोटा भी कि एक स्त्री संभ्रांत, कुलीन और शालीन दिखती रहे। इस वस्त्र में आप चाह कर भी छिछोरे नहीं दिखेंगे। ज़्यादा-से-ज़्यादा आकर्षक के साथ शालीन ही नज़र आएँगे।

ताँत को बरतना सलीक़ा है और इसे पहनना संस्कृति का हिस्सा होना। परंपराएँ इसके तंतुओं में लिपटी चलती हैं। सभ्यताएँ इसकी भांज में खुंटी रहती हैं।

ताँत की साड़ी की ऐसी घनघोर प्रशंसिका के पास अजंता देव की कुछ कविताएँ पहुँचीं जिनको सिर्फ़ इस साड़ी के ऊपर लिखी कविताएँ नहीं कह सकते हैं। कविताएँ अगर सभ्यताओं का इतिहास हो सकती हैं तो वे वही हैं। इस वीव के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व को पहनने वालों की भावनाओं की सघनता के साथ उपस्थित करने वाले शब्दों का छिपा हुआ संगीत हैं। इन कविताओं में कितनी सारी पंक्तियाँ हैं, जिनको पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि यह तो मेरी त्वचा का स्मरण है। कितनी ही पंक्तियों पर ठहर जाती हूँ कि ऐसा तो मैं महसूस करती हूँ।  

इन कविताओं में एक ओर तो एक ख़ास प्रकार की साड़ी का एक इतिहास, उसकी विशिष्ट संस्कृति और साड़ी पहनने वालों की भावनाएँ चल रही हैं, वहीं दूसरी ओर कितनी ही बातें हमारे आसपास के समाज और भारतीय संस्कृति की है; और साथ ही रोज़मर्रा के संघर्षों की भी। बुनाई के इतिहास और पहचान विहीन मज़दूरों के काम की ओर ये कविताएँ जिस समानुभूति से ले जाती हैं, वैसा कविता की दुनिया में भी कम होता है। 

इन कविताओं से स्त्री के प्रति समाज की नज़र मानो सूत से अधिक तार-तार होकर दिख जाती है। फ़िल्में हों या समुदाय उनकी जड़ समझ से परे क्या है, कुछ मूल्य? इस दिशा में अपने-आप हम सोचने लगते हैं। ये कविताएँ उन जगहों पर ले जाती हैं, जहाँ बाज़ार की चौंध में हम ख़ुद से नहीं जाते हैं। नष्ट होने वाले ट्रेंडज़ की दुनिया में ये एक शाश्वत धारा पर बात करती हैं। अपनी ही समृद्धि की ओर इशारा करती हैं और चाहती हैं कि आप अपनी मर्ज़ी से उस तक जाएँ। आपको धकेल कर कहीं ले जाने की आक्रामकता नहीं है इनमें। अगर आपमें ताँत के सूत जितनी मुलायमियत हो तो इन सब बातों के साथ ये आपके मर्म को भी छूती हैं क्योंकि ये कविताएँ हैं साड़ी का इतिहास मात्र नहीं।

यूँ तो मुझे पूरी शृंखला पसंद आई पर फिर भी कुछ पंक्तियों पर विशेष ध्यान गया—

“ठोक के बुना है जुलाहे ने 
मुझे पूरा बुनने के बाद थक गया था वह”

“लेकिन मेरी स्मृति कोरी नहीं
मुझे तो कपास बीनने वाला भी याद है”

“मेरे धागों के सिरे पर ज़िंदा लोग बँधे होते हैं”

“मुझे ख़रीदने से पहले दो बार सोचना”

“धोख़ा देना मेरी फ़ितरत नहीं”

“जाने कितनी पलकों के बाल अब भी अटके हैं मेरे गीले किनारों पर”

“मैं कुलीन और आवारा हूँ एक साथ 
अभिजात और मेहनतकश
कभी सहेजी गयी पीढ़ियों तक 
कभी निचोड़ा गया मुझे गन्ने की तरह 
मेरी वजह से ही स्त्रियाँ लगती हैं अलग”

आप भी पढ़िए इन कविताओं को और बुनकर से सीधे ले आइए एक ताँत की साड़ी अपने जीवन में मौजूद किसी भी स्त्री के लिए या फिर अपने लिए क्योंकि ‘वैसी दूसरी नहीं मिलेगी।’

कविता शृंखला : ताँत की साड़ी

अजंता देव

एक

मैं नहीं हूँ सिंथेटिक साड़ी 
क़स्बे की दुकान के बाहर लटकता   
अधरंग छह मीटर कपड़ा 
मैं सूत हूँ करघे से उतरी 
मेरे रेशे चुभते हैं थोड़े खुरदरे
मुझमें बुनावट है 
जुलाहे की इच्छा उभरी होती है मुझमें 
शरीर पर लपेटने भर से नहीं संभाला जाएगा मुझे 
मुझे पहनने के क़ायदे अलग से सीखने पड़ते हैं।

दो

मैं बनी हूँ सिर्फ़ मुझे ही पहनने के लिए 
ब्लाउस ग़ैरज़रूरी है मेरे साथ 
फिसलती नहीं 
पर पारदर्शी हूँ 
मेरे किनारे मज़बूत हैं 
ठोक के बुना है जुलाहे ने 
मुझे पूरा बुनने के बाद थक गया था वह 
मैं नहीं निकलती हज़ारों मीटर लगातार 
मेरे रेशे बिखरे रहते हैं धूल के साथ धूल होते हुए।

तीन

मेरे ताने बाने पर उँगलियों के निशान होते हैं 
जुलाहा कोई दस्ताने नहीं पहने होता 
कहने वाले कहते रहें मुझे कोरा
लेकिन मेरी स्मृति कोरी नहीं 
मुझे तो कपास बीनने वाला भी याद है 

कोरी तो सिंथेटिक साड़ी होती है।

चार

मेरे बाज़ार की भाषा अलग है 
बेचने के लिए नहीं कहा जाता 
“ले लीजिए बहुत चल रही है आज कल”

मेरे लिए कहा जाएगा हमेशा 
“ऐसी दूसरी नहीं मिलेगी”

पाँच

मेरे अनेक घर हैं 
हर घर के अलग रंग 
दूर से पहचान ली जाती हूँ 
इस बार किसके कंधे पर बैठ कर आई हूँ 
दुनिया का मेला देखने 

शांतिपूरी, धोनेख़ालि या ढाकाई
कौन ननिहाल? कौन घर?
पूछते हैं लोग 
जैसे लड़की देखने आए हो 
लेकिन मुझ पर दिल आए बग़ैर सब बेकार 
और दिल तो अटक जाता है डूरे पाड़ और हाजारबूटी पर 
ये नक़्शा… ये ही नक़्शा चाहिए 

सिर्फ़ काला नहीं
हर रंग का जादू सिर चढ़ कर बोलता है।
मेरे धागों के सिरे पर ज़िंदा लोग बँधे होते हैं 
कठपुतलियों की तरह।

छह

मुझे ख़रीदने से पहले दो बार सोचना 
अगर इतराना है बंधु-बांधव के आगे 
लगाना होगा भात का माँड़
पेश करना होगा मेरी सिलवटों को सीधा करके 
लेकिन सिर्फ़ ख़ुद ही देखना चाहते हो 
मेरे नक़्शे मेरी धूपछाँही रंगत 
मेरी  बुनावट पर फ़िदा होना चाहते हो 
तो रखना मुझे मुलायम 
रोज़ पोखर के पानी में तैरने देना मुझे 
धूप से बचा कर हवा में लहरा देना 

देखना मेरा निखार हर दिन बढ़ता हुआ 

सात

मुझे बुना गया है कामकाजी कारणों से 
कमर पर ठीक से बँधने के लिए 
धोखा मेरी फ़ितरत नहीं 
बस में चढ़ते समय मैं पैर में फँस कर भी अडिग रहूँगी 
मुझे सम्हालने को नहीं चाहिए अतिरिक्त ध्यान 

याद रहे अँगोछा मेरा ही छोटा भाई है ।

आठ

दुनिया में जो इतने युद्ध इतनी मारामारी है 
इन्हें सुनते देखते दुख जाती होंगी तुम्हारी आँखें 
तुम क्या करते हो बहते आँसुओं का ?
कैसे देखोगे अपना संसार फिर से समतल 
जबकि आँखों में आता जा रहा होगा पानी लगातार 

लो मैं याद दिलाती हूँ 
मेरे कोने अब भी मौजूद हैं 
स्त्रियों के कंधों के पीछे 
दौड़ो और पोंछ लो आँसू
मेरे पल्लू ऐसे ही बुने जाते हैं 
जाने कितनी पलकों के बाल अब भी अटके हैं 
मेरे गीले किनारों पर

नौ

भारतीय फ़िल्मों का काम 
मेरे बिना चलना मुश्किल है 
दुखी औरत की मैं सर्वकालिक पोशाक हूँ 
मुझमें असंख्य दाग़ मुमकिन है 
मुमकिन है मुझमें रफ़ू 
मुझे फाड़ कर बाँधी जा सकती हैं प्रेमी की ऊँगली पर पट्टी 
अदृश्य को दृश्य बनाने  में मैं अप्रतिम हूँ 

लेकिन मेरा नाम पात्र परिचय में कभी नहीं आता 

दस

करघे के बाहर मेरा विस्तार असीम है 
ऐश्वर्य से दरिद्रता तक फैला है मेरा राज्य 
जामदानी से आटपोऊरे के बीच तना है मेरा तानाबाना 
मैं कुलीन और आवारा हूँ एक साथ 
अभिजात और मेहनतकश
कभी सहेजी गयी पीढ़ियों तक 
कभी निचोड़ा गया मुझे गन्ने की तरह 
मेरी वजह से ही स्त्रियाँ लगती हैं अलग 
मनुष्य में मेरी जैसी विविधता कहाँ 
तुम जब भी करते हो 
मेरा ही करते हो मान या अपमान

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

22 फरवरी 2025

प्लेटो ने कहा है : संघर्ष के बिना कुछ भी सुंदर नहीं है

22 फरवरी 2025

प्लेटो ने कहा है : संघर्ष के बिना कुछ भी सुंदर नहीं है

• दयालु बनो, क्योंकि तुम जिससे भी मिलोगे वह एक कठिन लड़ाई लड़ रहा है। • केवल मरे हुए लोगों ने ही युद्ध का अंत देखा है। • शासन करने से इनकार करने का सबसे बड़ा दंड अपने से कमतर किसी व्यक्ति द्वार

23 फरवरी 2025

रविवासरीय : 3.0 : ‘जो पेड़ सड़कों पर हैं, वे कभी भी कट सकते हैं’

23 फरवरी 2025

रविवासरीय : 3.0 : ‘जो पेड़ सड़कों पर हैं, वे कभी भी कट सकते हैं’

• मैंने Meta AI से पूछा : भगदड़ क्या है? मुझे उत्तर प्राप्त हुआ :  भगदड़ एक ऐसी स्थिति है, जब एक समूह में लोग अचानक और अनियंत्रित तरीक़े से भागने लगते हैं—अक्सर किसी ख़तरे या डर के कारण। यह अक्सर

07 फरवरी 2025

कभी न लौटने के लिए जाना

07 फरवरी 2025

कभी न लौटने के लिए जाना

6 अगस्त 2017 की शाम थी। मैं एमए में एडमिशन लेने के बाद एक शाम आपसे मिलने आपके घर पहुँचा था। अस्ल में मैं और पापा, एक ममेरे भाई (सुधाकर उपाध्याय) से मिलने के लिए वहाँ गए थे जो उन दिनों आपके साथ रहा कर

25 फरवरी 2025

आजकल पत्नी को निहार रहा हूँ

25 फरवरी 2025

आजकल पत्नी को निहार रहा हूँ

आजकल पत्नी को निहार रहा हूँ, सच पूछिए तो अपनी किस्मत सँवार रहा हूँ। हुआ यूँ कि रिटायरमेंट के कुछ माह पहले से ही सहकर्मीगण आकर पूछने लगे—“रिटायरमेंट के बाद क्या प्लान है चतुर्वेदी जी?” “अभी तक

31 जनवरी 2025

शैलेंद्र और साहिर : जाने क्या बात थी...

31 जनवरी 2025

शैलेंद्र और साहिर : जाने क्या बात थी...

शैलेंद्र और साहिर लुधियानवी—हिंदी सिनेमा के दो ऐसे नाम, जिनकी लेखनी ने फ़िल्मी गीतों को साहित्यिक ऊँचाइयों पर पहुँचाया। उनकी क़लम से निकले अल्फ़ाज़ सिर्फ़ गीत नहीं, बल्कि ज़िंदगी का फ़लसफ़ा और समाज क

बेला लेटेस्ट