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राही मासूम रज़ा

1927 - 1992

राही मासूम रज़ा के उद्धरण

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प्रश्न हमारा पीछा नहीं छोड़ते। मनुष्य मौत को जीत सकता है, परंतु प्रश्न को नहीं जीत सकता। कोई-न-कोई प्रश्न दुम के पीछे लगा ही रहता है।

लगता ऐसा है कि ईमानदार लोगों को हिंदू-मुसलमान बनाने में बेरोज़गारी का हाथ भी है।

भाषा की लड़ाई दरअसल नफ़े-नुकसान की लड़ाई है। सवाल भाषा का नहीं है। सवाल है नौकरी का!

नई नस्ल तो हमारी नस्ल से भी ज़्यादा घाटे में है। हमारे पास कोई ख़्वाब नहीं है। मगर इनके पास तो झूठे ख़्वाब हैं।

समय के सिवा कोई इस लायक़ नहीं होता कि उसे किसी कहानी का हीरो बनाया जाए।

  • संबंधित विषय : समय

मुसलमान लड़कों के दिलों में दाढ़ियों और हिंदू लड़कों के दिलों में चोटियाँ उगने लगीं। यह लड़के फ़िज़िक्स पढ़ते हैं और कॉपी पर ओउम् या बिस्मिल्लाह लिखे बिना सवाल का जवाब नहीं लिखते।

अब कोई केवल शरीफ़ नहीं रह गया है। हर शरीफ़ के साथ एक दुमछल्ला लगा हुआ है। हिंदू शरीफ़ मुसलमान शरीफ़, उर्दू शरीफ़, हिंदी शरीफ़ और बिहार शरीफ़! दूर-दूर तक शरीफ़ों का एक जंगल फैला हुआ है।

इतिहास अलग-अलग बरसों या क्षणों का नाम नहीं है बल्कि इतिहास नाम है समय की आत्मकथा का।

किसी के पेपर पढ़ने से इंटीग्रेशन नहीं हो सकता। और जो हुआ भी तो लोग ज़्यादा-से-ज़्यादा आले गृहमद सुरूर और रविंद्र भ्रमर हो जाएँगे। नहीं भाई, मुझे सीधे-सादे कम्युनल हिंदू-मुसलमान ज़्यादा पसंद हैं।

कल का हिसाब-किताब करने बैठ गए तो सवेरा हो जाएगा।

नफ़रत! शक! डर! इन्हीं तीन डोंगियों पर हम नदी पार कर रहे हैं। यही तीन शब्द बोए और काटे जा रहे हैं। यही शब्द धूल बनकर माँओं की छातियों से बच्चों के हलक़ में उतर रहे हैं। दिलों के बंद किवाड़ों की दराज़ों में यही तीन शब्द झाँक रहे हैं। आवारा रूहों की तरह ये तीन शब्द आँगनों पर मँडरा रहे हैं। चमगादड़ों की तरह पर फड़फड़ा रहे हैं और रात के सन्नाटे में उल्लुओं की तरह बोल रहे हैं। काली बिल्ली की तरह रास्ता काट रहे हैं। कुटनियों की तरह लगाई बुझाई कर रहे हैं और गुंडों की तरह ख़्वाबों की कुँआरियों को छेड़ रहे हैं और भरे रास्तों से उन्हें उठाए लिए जा रहे हैं। तीन शब्द नफ़रत, शक, डर। तीन राक्षस।

हमारी दुनिया में जिसके दलाल हों, उसकी आवाज़ कोई नहीं सुनता।

नौकरी! यह शब्द हमारी आत्मा के माथे पर ख़ून से लिखा हुआ है। यह शब्द ख़ून बनकर हमारी रगों में दौड़ रहा है। यह शब्द ख़्वाब बनकर हमारी नींद की हत्या कर रहा है। हमारी आत्मा नौकरी के खूँटे से बंधी हुई लिपि की नाँद में चारा खा रही है।

कथाकारी की कला सुनाने से ज़्यादा सुनाने की कला है।

लाश! यह शब्द कितना घिनौना है। आदमी अपनी मौत से, अपने घर में, अपने बाल-बच्चों के सामने मरता है तब भी बिना आत्मा के उस बदन को लाश ही कहते हैं और आदमी सड़क पर किसी बलवाई के हाथों मारा जाता है, तब भी बिना आत्मा के उस बदन को लाश ही कहते हैं। भाषा कितनी ग़रीब होती है।

हिपोक्रेसी के जंगल में दो परछाइयों ने अपने-आपको अकेला पाया तो दोनों लिपट गईं।

आदमी और देवता में यही फ़र्क़ है शायद। ज़हर अकेले शिव पीते हैं। ज़हर अकेला सुकरात पीता है। सलीब पर अकेले ईसा चढ़ते हैं। दुनिया त्यागकर एक अकेला राजकुमार निकलता है।

वफ़ादारी की तराज़ू में दो ही पल्ले होते हैं मिस्टर।

  • संबंधित विषय : सच

वह इस डर से बोलता रहता है कि चुप हुआ तो फिर शायद उसे भी यह याद आए कि कभी उसके पास भी एक आवाज़ हुआ करती थी।

सुना जाता है कि पहले के ज़मानों में नौजवान, मुल्क जीतने, लंबी और कठिन यात्राएँ करने, ख़ानदान का नाम ऊँचा करने के ख़्वाब देखा करते थे। अब वे केवल नौकरी का ख़्वाब देखते हैं। नौकरी ही हमारे युग का सबसे बड़ा एडवेंचर है। आज के फ़ाहियान और इन्ने-बतूता, वास्कोडिगामा और स्काट, नौकरी की ख़ोज में लगे रहते हैं। आज के ईसा, मोहम्मद और राम की मंज़िल नौकरी है।

क्राइसिस यह है कि किसी को ख़्वाबों के इस क्राइसिस का पता ही नहीं है।

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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