पेट्रोला पर उद्धरण

‘पेट्रोला’ का संदर्भ

प्रख्यात कहानीकार ज्ञानरंजन की एक बहुत मशहूर कहानी ‘घंटा’ से है। ‘हिन्दवी’ पर इस विषय के अंतर्गत हम कुछ ऐसी कविताओं की पहचान कर रहे हैं जिनमें एक प्रकार की अराजकता दृश्य होती है। इसे और समझने के लिए इस कहानी का पहला अनुच्छेद दर्शनीय है : 'पेट्रोला' काफी अंदर धँसकर था। दर्ज़ी की दुकान, साइकिल स्टैंड और मोटर ठहराने के स्थान को फाँदकर वहाँ पहुँचा जाता था। वह काफ़ी अज्ञात जगह थी। उसे केवल पुलिस अच्छी तरह जानती थी। हम लोग इसी बिल्कुल दुकड़िया जगह में बैठने लगे थे यहाँ जितनी शांति और छूट थी, अन्यत्र दुर्लभ है। हमें यहाँ पूरा चैन मिलता था। ‘पेट्रोला' ऐसी जगह थी जिससे नागरिकों को कोई सरोकार नहीं था। जहाँ तक हम लोगों का प्रश्न है, हमारी नागरिकता एक दुबले हाड़ की तरह किसी प्रकार बची हुई है। उखड़े होने के कारण लग सकता था, समय के साथ सबसे अधिक हम हैं; लेकिन हक़ीक़त यह है कि बैठे-बैठे हम आपस में ही फुफकार लेते हैं, हिलते नहीं हैं। हमारे शरीर में लोथड़ों जैसी शांति भर गई है। नशे की वजह से कभी-कभार थोड़ा-बहुत ग़ुस्सा बन जाता है और आपसी चिल्ल-पों के बाद ऊपर आसमान में गुम हो जाता है। इस नशे की स्थिति में कभी ऐसा भी लगता है, हम सजग हो गए हैं। उद्धार का समय आ गया है और भेडिया-धसान पूरी तरह पहचान लिया गया है। लेकिन हम लोगों के शरीर में संत मलूकदास इस कदर गहरा आसन मारकर जमे हुए थे कि भेड़िया-धसान हमेशा चालू रहा।

क्रूरताएँ और उजड्डताएँ किसी भी जन-समाज को बचा नहीं सकते।

दूधनाथ सिंह

प्रकृति, आदर्श, जीवन-मूल्य, परंपरा, संस्कार, चमत्कार—इत्यादि से मुझे कोई मोह नहीं है।

राजकमल चौधरी

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