पुस्तक पर ब्लॉग
पुस्तकें हमारे लिए नए
अनुभव और ज्ञान-संसार के द्वार खोलती हैं। प्रस्तुत चयन में ‘रोया हूँ मैं भी किताब पढ़कर’ के भाव से लेकर ‘सच्ची किताबें हम सबको अपनी शरण में लें’ की प्रार्थना तक के भाव जगाती विशिष्ट पुस्तक विषयक कविताओं का संकलन किया गया है।
सत्य की व्याख्या साहित्य की निष्ठा है
‘वयं रक्षामः’ के पूर्व निवेदन मेरे हृदय और मस्तिष्क में भावों और विचारों की जो आधी शताब्दी की अर्जित प्रज्ञा-पूँजी थी, उस सबको मैंने ‘वयं रक्षामः’ में झोंक दिया है। अब मेरे पास कुछ नहीं है। लुटा-पि
चतुरसेन शास्त्री
संतृप्त मनोवेगों का संसार
‘आश्चर्यवत्’ सौ से भी कम पृष्ठों का निर्भार संग्रह है, लेकिन माथे पर थाप दी गई आचार्य वागीश शुक्ल की दस पृष्ठों की भूमिका से कुछ उलार-सा लगता है। इस तरह इसे आप ‘आचार्यवत्’ भी कह सकते हैं। आचार्य ने कल
आशीष मिश्र
मैंने हिंदी को क्यों चुना
पत्रकारिता में स्नातक की डिग्री प्राप्त हुए मुझे लगभग दो साल पूरे हो चुके हैं। मेरे साथ के सभी सहपाठियों ने कहीं न कहीं दाख़िला ले लिया है और वे अक्सर पूछते हैं कि मैंने कहीं पर दाख़िला क्यों नहीं लिय
रुकैया
पढ़ने-लिखने के वे ज़माने
जहाँ से मुझे अपना बचपन याद आता है, लगभग चार-पाँच साल से, तब से एक बात बहुत शिद्दत से याद आती है कि मुझे पढ़ने का बहुत शौक़ हुआ करता था। कुछ समय तक जब गाँव की पाठशाला में पढ़ता था, पिताजी जब भी गाँव आते त
विपिन कुमार शर्मा
दिल्ली एक हृदयविदारक नगर है
‘कविता का जीवन’ असद ज़ैदी का दूसरा कविता-संग्रह है। पहला सात वर्ष हुए ‘बहनें और अन्य कविताएँ’ के नाम से प्रकाशित हुआ था। इसमें 48 कविताएँ थीं। ‘कविता का जीवन’ किंचित छोटा, परंतु अधिक संगठित संग्रह है।
रघुवीर सहाय
पुरानी उदासियों का पुकारू नाम
एक साहित्यिक मित्र ने अनौपचारिक बातचीत में पूछा कि आप महेश वर्मा के बारे में क्या सोचते हैं? मेरे लिए महेश वर्मा के काव्य-प्रभाव को साफ़-साफ़ बता पाना कठिन था, लेकिन जो चुप लगा जाए वह समीक्षक क्या! मैंन
आशीष मिश्र
प्रसिद्धि की विडंबना
प्रसिद्धि के साथ एक मज़े की बात यह है कि जब तक प्रत्यय की तरह इसके साथ विडंबना नहीं जुड़ती, तब तक इसके छिपे हुए अर्थ हमारे सामने पूरी तरह उजागर नहीं होते। लेकिन इससे भी ज़्यादा मज़े की बात शायद यही हो
प्रियंका दुबे
अ-भाव का भाव—‘अर्थात्’
मैंने अमिताभ चौधरी को नहीं देखा है। लेकिन उनकी कविताओं से ऐसा चित्र उभरता है कि कोई जनसंकुल बस्ती से दूर निर्जन अँधेरे बीहड़ में दिशाहीन चला जा रहा है। इस अछोर अँधेरे से आतीं बेचैन प्रतिध्वनियों का हॉर
आशीष मिश्र
अथ ‘स्ट्रेचर’ कथा
यह सच है कि मानवीय संबंधों की दुनिया इतनी विस्तृत है कि उस महासमुद्र में जब भी कोई ग़ोता लगाएगा उसे हर बार कुछ नया प्राप्त होने की संभावना क़ायम रहती है। बावजूद इसके एक लेखक के लिए इन्हें विश्लेषित या व
प्रभात प्रणीत
लोक के जीवन का मर्म
यह सड़क जो आगे जा रही है—इसी पर कुछ आगे, बाएँ हाथ एक ठरकरारी पड़ेगी, उसी पर नीचे उतर जाना है। सड़क आगे, शहर तक जाती है, उससे भी आगे महानगर तक जाएगी, जहाँ आसमान में धँसी बड़ी-बड़ी इमारतें, भागते अकबकाए हुए-
आशीष मिश्र
आदिवासी अंचल की खोज
आज यह सोचकर विस्मय होता है कि कभी मार्क्सवादी आलोचना ने नई कविता पर यह आक्षेप किया था कि ये कविताएँ ऐंद्रिक अनुभवों के आवेग में सामाजिक अनुभवों की उपेक्षा करती हैं। आज आधी सदी बाद जब काव्यानुभव में इं
आशीष मिश्र
‘प्रेम में मरना सबसे अच्छी मृत्यु है’
इस सृष्टि में किसी के प्रेम में होना मनुष्य की सबसे बड़ी नेमत है। उसके सपनों के जीवित बचे रहने की एक उम्मीद भरी संभावना। मोमिन का एक मशहूर शे’र है : तुम मेरे पास होते हो गोया जब कोई दूसरा नहीं होत
दया शंकर शरण
पंक्ति प्रकाशन की चार पुस्तकों का अंधकार
‘कवियों में बची रहे थोड़ी लज्जा’ मंगलेश डबराल की इस पंक्ति के साथ यह भी कहना इन दिनों ज़रूरी है कि प्रकाशकों में भी बचा रहे थोड़ा धैर्य―बनी रहे थोड़ी शर्म। कविता और लेखक के होने के बहुतायत में प्र
पंकज प्रखर
गणितीय दर्शन और स्पेस-टाइम फ़ैब्रिक पर रची अज्ञात के भीतर हाथ फेरती कविताएँ
...कहाँ से निकलती हैं कविताएँ? उनका उद्गम स्थल कहाँ-कहाँ पाया जा सकता है? आदर्श भूषण के यहाँ कविताएँ टीसों के भंगार से, विस्मृतियों की ओंघाई गति से, एक नन्हीं फुदगुदी की देख से, पूँजीवाद की दुर्गंध से
प्रतिभा किरण
दुस्साहस का काव्यफल
व्यक्ति जगद्ज्ञान के बिना आत्मज्ञान भी नहीं पा सकता। अगर उसका जगद्ज्ञान खंडित और असंगत है तो उसका अंतर्संसार द्विधाग्रस्त और आत्मपहचान खंडित होगा। आधुनिक युग की क्रियाशील ताक़तें मनुष्य के जगद्ज्ञान को
आशीष मिश्र
मैं जब भी कोई किताब पढ़ता हूँ
मैं जब भी कोई किताब पढ़ता हूँ तो हमेशा लाल रंग की कलम या हाईलाइटर साथ में रखता हूँ। जो भी कोई शब्द, पंक्ति या परिच्छेद महत्त्वपूर्ण लग जाए या पसंद आ जाए वहाँ बेरहमी से क़लम या हाईलाइटर चला देता हूँ—चाहे
विपिन कुमार शर्मा
प्रतिरोध का स्वर और अस्वीकार का साहस
जब नाथूराम का नाम लेते ज़ुबान ने हकलाना छोड़ दिया हो जब नेहरू को गालियाँ दी जा रही हों एक फ़ैशन की तरह और जब गांधी की हत्या को वध कहा जा रहा हो तब राजेश कमल तुम्हें किसी ने जाहिल ही कह