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टिकटों का संग्रह

tikton ka sangrah

कारेल चापेक

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टिकटों का संग्रह

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    “इसमें कोई संदेह नहीं,” बूढ़े सज्जन श्री कारास ने कहा, “अगर कोई अपने अतीत का लेखा-जोखा करे, तो उसे अपनी ज़िंदगी में ही अलग-अलग क़िस्म की ज़िंदगियों के सूत्र मिल सकते हैं। यह संयोग की ही बात है कि किसी एक दिन वह ग़लती से—या शायद अपनी इच्छा से—एक ख़ास क़िस्म की ज़िंदगी चुन लेता है और आख़िर तक उसे निभाए ले जाता है। सबसे शोचनीय बात यह है कि वे दूसरी ज़िंदगियाँ—जिन्हें उसने नहीं चुना...मरती नहीं। किसी-न-किसी रूप में वे उसके भीतर जीवित रहती हैं। हर आदमी को उनमें एक अजीब-सी पीड़ा महसूस होती है...जैसे टाँग के कट जाने पर पीड़ा होती है।

    “मेरी उम्र कोई दस वर्ष की रही होगी, जब मैंने टिकट जमा करने शुरू कर दिए। मेरे पिता को मेरा यह शौक एक आँख नहीं सुहाता था। वह शायद सोचते थे कि एक बार मुझे यह लत पड़ गई तो पढ़ाई-लिखाई के प्रति मेरा ध्यान उखड़ जाएगा। किंतु मेरा एक मित्र था—लोयजीक चेपेल्का। मेरी तरह उसे भी विदेशी टिकट जमा करने का बेहद शौक था। लोयजीक के पिता ‘बैरल ऑर्गान’ बजाकर परिवार का पालन-पोषण करते। वह एक आवारा क़िस्म का लड़का था—मुँह पर चेचक के दाग़ थे, किंतु मेरा उसके प्रति गहरा लगाव था...कुछ उसी तरह जैसा स्कूली लड़कों का एक-दूसरे के प्रति लगाव होता है। आप जानते हैं, मैं बूढ़ा आदमी हूँ। बीबी-बच्चों का स्नेह मुझे मिला है, किंतु मुझे लगता है कि दो दोस्तों की मैत्री से अधिक ख़ूबसूरत कोई दूसरा संबंध नहीं हो सकता। किंतु इस तरह की मैत्री छुटपन में ही संभव हो सकती है। बाद में वह ताज़गी नहीं रहती...उस पर हमारे स्वार्थों की मैली परत जमा हो जाती है। मेरा मतलब उस ख़ास क़िस्म की मैत्री से है, जिसमें एक गहरा उत्साह और आकर्षण छिपा रहता है—आत्मशक्ति और स्नेह भावना का उमड़ता, छलछलाता ज्वार। वह अपने में इतना अधिक इतना मुक्त और उच्छल होता है कि जब तक आदमी उसका एक अंश दूसरे को नहीं दे देता, उसे शान्ति नहीं मिलती। मेरे पिता वकालत करते थे—शहर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में उनका विशिष्ट स्थान था। उनका रोब और दबदबा सब मानते थे। लेकिन मेरी दोस्ती एक ऐसे लड़के से थी, जिसका पिता एक पियक्कड़ बैंड मास्टर था और जिसकी माँ दूसरे लोगों के कपड़े धोकर घर की रोटी चलाती थी। इसके बावजूद लोयजीक के प्रति मेरे दिल में गहरी श्रद्धा और आदर का भाव था, क्योंकि वह मुझसे कहीं अधिक चालाक और चतुर था। वह आत्मनिर्भर था और उसमें हर प्रकार के जोखिम का सामना करने का साहस था। उसकी नाक पर चेचक के दाग़ थे और वह बाएँ हाथ से पत्थर फेंक सकता था। आज मुझे वे सब चीज़ें याद नहीं रहीं, जिनके कारण उसके प्रति मेरा इतना अटूट और गहरा लगाव उत्पन्न हो गया था। लेकिन इतना ज़रूर कह सकता हूँ कि वैसा लगाव ज़िंदगी में किसी अन्य व्यक्ति के प्रति कभी उत्पन्न नहीं हो सका।

    “उन दिनों जब मुझपर टिकट जमा करने की धुन सवार हुई थी। लोयजीक ही मेरा एक विश्वासपात्र मित्र था, जिससे मैं कभी कुछ नहीं छिपाता था। मेरे विचार में मनुष्य में संग्रह करने का शौक आदि-काल से चला रहा है। जब अपने शत्रुओं के मस्तक, लड़ाई में लूटी हुई चीज़ें, रीछों की खालें, हिरणों के सींग—इत्यादि जिस चीज़ पर उसका हाथ पड़ जाता था, उसे वह अपने ख़ज़ाने में जमा कर लेता था। किंतु टिकट-संग्रह करने की अपनी एक विशेषता है...हमें उसमें एक अजीब-सा रोमाँचकारी अनुभव होता है। लगता है हम किसी सुदूर-देश को अपनी अँगुलियों से छू रहे हैं—भूटान, बोलेविया, केप और गुड होप! इन टिकटों के सहारे हम अपने और इन अजाने देशों के बीच एक गहरी आत्मीयता-सी महसूस करने लगते हैं। टिकट-संग्रह का नाम लेते ही हमारी आँखों के सामने ज़मीन और समुद्र की रोमाँचकारी यात्राएँ, जोखिम और साहस के कारनामे घूम जाते हैं। यह कुछ उतना ही रोचक और सनसनीखेज जान पड़ता है, जितना मध्ययुग में किए जाने वाले ईसाइयों के धर्म-अभियान।

    “मैं आपसे अभी कह रहा था कि मेरे पिता को मेरा यह शौक ज़्यादा पसंद नहीं था। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि वास्तव में अधिकांश लोग यह नहीं चाहते कि उनके पुत्र कोई ऐसा काम करें, जिसे उन्होंने स्वयं कभी नहीं किया। ख़ुद मेरा अपने पुत्रों के प्रति भी ऐसा ही व्यवहार रहा है। पुत्र के प्रति पिता की भावना अंतर्विरोधों से भरी रहती है...स्नेह तो उसमें अवश्य होता है, किंतु उसमें एक हद तक पूर्वाग्रह, अविश्वास और विरोध के तत्व भी मिले होते हैं। आप अपने बच्चों को जितना अधिक प्यार करते हैं, उतनी ही मात्रा में विरोध भी... और यह विरोधी भावना स्नेह के साथ-साथ बढ़ती जाती है। ख़ैर...मैंने अपने टिकटों का संग्रह गोदाम के एक कोने में छिपाकर रखा था, ताकि पिता की नज़र उन पर पड़ सके। हम दोनों चूहों की तरह लुक-छिप कर उस गोदाम में एक-दूसरे के टिकटों को देखा करते थे। अलग-अलग देशों के टिकट...नीदरलैंड, मिस्र, स्वेरिज, स्वीडन...उन्हें देखते हुए हमारी आँखें नहीं भरती थीं। हमने अपना ख़ज़ाना छिपाकर रखा था। अत: उसमें ‘पाप’ की एक गोपनीय भावना भी भरी थी, जो हमें अजीब-सा आनंद देती थी। मैंने जिस तरह के टिकट जमा किए थे, वह भी अपने में कम रोमाँचकारी और दुर्गम काम नहीं था। मैं जाने-अजाने परिवारों का चक्कर लगाया करता था और आरज़ू-मिन्नत करके उनकी पुरानी चिट्ठियों के टिकट उतार कर अपने पास जमा कर लेता था। कभी-कभार मुझे ऐसे लोग मिल जाते थे, जिनकी मेज़ों की दराज़ें ठसाठस पुराने काग़ज़ों से भरी रहती थीं। तब मेरी, ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता था। मैं फ़र्श पर बैठ कर बड़े इत्मीनान से पुराने काग़ज़ के कूड़े-करकट का निरीक्षण करता और चुन-चुन कर वे टिकट निकालता जाता जो मेरे पास नहीं थे। मैंने कभी एक जैसे ही दो टिकट जमा नहीं किए...इसे मेरी बेवकूफ़ी ही समझ लीजिए। किंतु जब कभी अचानक लोम्बार्डी या किसी छोटे से जर्मन-राज्य या यूरोप के किसी स्वतंत्र नगर का टिकट मेरे हाथ लग जाता तो मेरी ख़ुशी पीड़ा की सीमा तक जा पहुँचती—शायद हर बड़ी ख़ुशी में पीड़ा का मधुर स्पर्श छिपा रहता है। इस दौरान लोयजीक बाहर मेरी प्रतीक्षा करता रहता। बाहर निकलते ही मैं दबे स्वर में उसके कानों में फुसफसा कर कहता—“लोयजीक, लोयजीक...वहाँ हैनोवर का एक टिकट था।” “तुमने उतार लिया?” “हाँ।” और तब हम लूटी हुई संपत्ति को जेब में दबोच कर सरपट घर की ओर भागने लगते, जहाँ हमारा ख़ज़ाना छिपा था।

    “हमारे शहर में बहुत से कारख़ाने थे, जहाँ हर क़िस्म का अल्लम-गल्लम तैयार किया जाता था—कपास, रूई, घटिया क़िस्म का ऊन। यह सड़ा-गला माल दुनिया भर की वर्ण-जातियों को भेजा जाता था। मुझे अक्सर वहाँ रद्दी काग़ज़ों की टोकरियाँ मिल जाती थीं...या यों कहिए, मेरे लिए लूट-खसोट करने का वह सबसे बढ़िया स्थान था। वहाँ मुझे प्राय: स्याम, दक्षिणी अफ़्रीका, चीन, लिबोरिया, अफगानिस्तान, बोर्नियो, ब्राजील, न्यूलीजैंड, इंडिया और कॉन्गो के टिकट मिल जाते थे। आपके बारे में मुझे मालूम नहीं, लेकिन मुझे इन नामों की ध्वनि मात्र से एक अजीब-सा रहस्य और आकर्षण महसूस होता है। मैं आपको बता नहीं सकता कि उस क्षण मुझे कितनी ख़ुशी होती थी, जब अचानक मेरे हाथ में स्ट्रेट्स सैटलमेंट या कोरिया या नेपाल या न्यू गिनी या सियरालियोने या मैडागास्कर का कोई टिकट पड़ जाता था। आपसे सच कहता हूँ कि वैसी ख़ुशी सिर्फ़ किसी शिकारी या ख़ज़ाना-ख़ोजी या ज़मीन की खुदाई करने वाले पुरातत्व-अन्वेषी को ही उपलब्ध हो पाती है। किसी चीज़ को ख़ोजना और पाना—मेरे ख़याल ज़िंदगी में इससे बड़ा सुख और रोमाँच कोई नहीं। हर आदमी को कोई-न-कोई चीज़ ख़ोजनी चाहिए—अगर टिकट नहीं तो सत्य या स्वर्ण-पंख या कम से कम नुकीले पत्थर और राखदानियाँ।

    “वे मेरी ज़िंदगी के सबसे सुखद वर्ष थे—लोयजीक के साथ मेरी दोस्ती और मेरा टिकट-संग्रह। फिर अचानक एक दिन मुझे बुखार गया। लोयजीक को मेरे पास आने की इजाज़त नहीं थी। इसलिए वह कभी-कभी नीचे दहलीज़ में खड़ा होकर सीटी बजाया करता था, ताकि मैं उसकी आवाज़ सुन सकूँ। एक दोपहर जब घर के लोग मेरी ओर से बेख़बर थे। मैं सबकी आँख बचाता हुआ ऊपर गोदाम में अपने टिकट देखने चला आया। बुखार के कारण मैं इतना कमज़ोर हो गया था कि बड़ी मुश्किल से सन्दूक का ढक्कन उठा पाया। संदूक़ ख़ाली पड़ा था, जिस बक्से में मैंने टिकट जमा किए था, वह वहाँ नहीं था।

    “उस क्षण मेरे हृदय पर कितना गहरा, मर्मान्तक आघात पहुँचा था, मैं आपको बता नहीं सकता। कुछ देर तक पत्थर की मूर्ति-सा ख़ाली संदूक़ के सामने खड़ा रहा। मैं रो भी नहीं सका, मानो कोई गोला मेरे गले में अटक गया हो। मेरे लिए यह विश्वास करना असंभव था कि मेरी सबसे बड़ी ख़ुशी—टिकटों का संग्रह—ग़ायब हो गया था, किंतु इससे अधिक बात यह थी कि उसे चुराने वाला कोई और होकर मेरा अधिक भयानक मित्र लोयजीक था; मेरी बीमारी के दिनों में वह उसे चोरी-चुपके उठा ले गया था। मैं कितना विह्वल, कातर और बेबस हो गया था, कहना मुश्किल है। यह आश्चर्य की बात है कि बच्चे कितनी दुर्दमनीय पीड़ा भोग सकते हैं। पता नहीं, मैं गोदाम से कैसे बाहर आया? किंतु उसके बाद मुझे दोबारा तेज़ बुखार चढ़ आया। चेतना के क्षणों में मैं निराश भाव से अपने टिकटों के बारे में सोचने लगता। मैंने इस बारे में एक शब्द भी अपने पिता या बुआ से नहीं कहा। मेरी माँ अर्सा पहले गुज़र चुकी थीं। मैं जानता था कि वे मेरी अंतर्पीडा नहीं समझ सकेंगे। मेरी इस खामोशी ने मेरे और उनके बीच एक दीवार-सी खड़ी कर दी। मुझे लगता है, उस घटना के बाद उनके प्रति मेरा बालसुलभ स्नेह हमेशा के लिए ख़त्म हो गया। लोयजीक के विश्वासघात ने मेरे दिल पर भयानक असर किया था—यह पहला अवसर था जब मैंने ज़िंदगी में धोखा खाया था। ‘लोयजीक भिखमंगा है।’ मैंने अपने से कहा, ‘तुमने भिखमंगे के साथ दोस्ती की और उसका फल तुम्हें मिल गया।’ इस अनुभव ने मेरे दिल को काफ़ी कठोर बना दिया। उस दिन से मैं आदमी और आदमी के बीच भेद करने लगा। समाज के प्रति मेरी सहज निर्दोष दृष्टि नष्ट हो गई। यह मैं आज सोचता हूँ—उन दिनों मुझे गुमान भी था कि इस घटना ने किस हद तक मुझे हिला दिया है। कभी यह कल्पना की थी कि इसकी चोट मेरी ज़िंदगी पर हमेशा के लिए एक खरोंच छोड़ जाएगी।”

    “बुखार उतरने के साथ ही टिकट-संग्रह के खो जाने का शोक भी मेरे मन से उतर गया। किंतु जब कभी मैं लोयजीक को नए मित्रों के साथ हँसते-बोलते देखता था, मेरा घाव फिर हरा हो जाता था। बीमारी के बाद वह मेरे पास भागता हुआ आया था—उसके चेहरे पर हल्की-सी झेंप थी, क्योंकि हम इतने दिनों बाद मिले थे। किंतु मैंने रूखे स्वर में उसे दुरदुरा दिया था। ‘अपना रास्ता पकड़ो...मेरा-तुम्हारा रिश्ता ख़त्म!’ मेरे इन शब्दों को सुन कर उसका चेहरा लाल हो गया था और उसने हकलाते हुए कहा था ‘अच्छा—ठीक है।’ उस दिन से वह जी-जान से मुझसे नफ़रत करने लगा था। ऐसी नफ़रत, जो सिर्फ़ निम्नवर्गीय लोग ही कर सकते हैं।”

    “हाँ...उस घटना ने मेरी समूची ज़िंदगी को बदल दिया था। मुझे आसपास की दुनिया दूषित और अपवित्र जान पड़ने लगी। लोगों में मेरी आस्था नष्ट हो गई। मैं हर व्यक्ति को घृणा और हिकारत की नज़र से देखने लगा। उसके बाद मेरा कोई मित्र नहीं था। बड़ा होने पर भी मैं अपने को अपने तक सीमित रखने लगा। मुझे किसी अन्य व्यक्ति की आवश्यकता नहीं थी—और ही मैं किसी के प्रति अपनी सहानुभूति प्रदर्शित करता था। फिर मैंने अनुभव किया कि दूसरे लोग भी मुझे पसंद नहीं करते। मैंने इससे यह निष्कर्ष निकाला कि मैं स्वयं दूसरों के स्नेह और भावुकता को हिकारत की दृष्टि से देखता हूँ। मैं अपने में अलग-थलग रहने लगा...एक ऐसे व्यक्ति की तरह जो अपने लक्ष्य की साधना करने में जुटा हो।”

    आत्मनिष्ठ कर्मशील एक ऐसा व्यक्ति जो कभी नाक पर मक्खी नहीं बैठने देता। अपने नीचे काम करने वालों के प्रति मेरा व्यवहार बेहद चिड़चिड़ा और कठोर हो गया। जिस स्त्री से मैंने विवाह किया, उसे कभी अपना प्रेम नहीं दे सका। अपने बच्चों का पालन-पोषण भी इस ढंग से किया कि वे कभी मेरे आगे अँगुली उठा सकें। मेरी कर्मनिष्ठा और कर्त्तव्यपरायणता की धाक सब पर अच्छी तरह बैठ गई। बस, यही मेरी ज़िंदगी थी। मेरी सारी ज़िंदगी। —मेरी आँखों के आगे सिर्फ़ कर्त्तव्य था...और कुछ नहीं। मैं जानता हूँ, जब मैं नहीं रहूँगा, अख़बारों में मेरे महत्वपूर्ण कार्यों और उज्जवल चरित्र के बारे में काफ़ी चर्चा होगी। काश! लोग जान पाते कि इस सबके पीछे कितना अकेलापन, कितना अविश्वास, कितना आत्म-संकल्प दबा पड़ा है।”

    “तीन वर्ष पहले मेरी पत्नी की मृत्यु हुई थी। उस दिन मुझे कितना क्लेश हुआ। यह बात मैं आज तक अपने से और दूसरों से छिपाता रहा हूँ। शोक में विह्वल-सा होकर मैं अपने परिवार के स्मृति-चिह्न उलटने-पलटने लगा—चीज़ें—जिन्हें मेरे माता-पिता पीछे छोड़ गए थे। फोटोग्राफ, ख़त, मेरी पुरानी स्कूल की कापियाँ...मेरे पिता काफ़ी गम्भीर स्वभाव के व्यक्ति थे, किंतु जिस लगन के साथ उन्होंने इन सब चीजों को सँभाल कर रखा था उसे देख कर मेरा गला भर आया। उस क्षण मुझे लगा, मानो सचमुच वह मुझसे काफ़ी स्नेह करते थे। गोदाम की अलमारी इन सब चीज़ों से भरी थी। अलमारी की सबसे निचली दराज़ में पिता ने अपना संदूक़ मुहर लगा कर रखा था। जब मैंने उसे खोला, मेरी आँखों के सामने वह टिकट-संग्रह पड़ गया, जिसे मैंने पचास वर्ष पहले जमा किया था।”

    “मैं आपसे कोई बात छिपाकर नहीं रखूँगा। मेरे आँसू फूट पड़े और मैं टिकटों के बक्से को इस तरह दबाकर अपने कमरे में ले आया, मानो मुझे कोई ख़ज़ाना मिल गया हो। मेरे मस्तिष्क में सारी बात बिजली की तरह कौंध गईं। जब मैं बीमार था, पिता के हाथों में मेरा टिकट-संग्रह पड़ गया होगा। उन्होंने उसे संदूक में छिपा लिया था, ताकि मैं अपनी पढ़ाई-लिखाई मन लगा कर करता रहूँ। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था, किंतु यह उन्होंने मेरे प्रति स्नेह और लगाव से उत्प्रेरित होकर ही किया था। पता नहीं क्यों—उस क्षण मुझे अपने पिता और अपने पर रोना आने लगा।”

    “फिर सहसा मुझे याद आया—लोयजीक ने आख़िर मेरे टिकट नहीं चुराए थे। मैंने उसके प्रति कितना घोर अन्याय किया था। यह सोचकर ही मेरा दिल काँप उठा। चेचक के दाग़ों से भरा उस आवारा लड़के का मैला-कुचैला चेहरा अपनी आँखों के सामने घूम गया। जाने वह अब कहाँ होगा...पता नहीं वह जीवित भी होगा या नहीं? आपसे सच कहता हूँ जितना ही मैं अतीत की उस घटना के बारे में सोचता था। उतनी ही अधिक अपने पर शर्म और ग्लानि महसूस होती थी। एक झूठे संदेह के कारण मैंने अपने एकमात्र अभिन्न मित्र को खो दिया था...मेरा समूचा जीवन तबाह हो गया था। उसके कारण ही मैं इतना आत्मकेंद्रित हो गया था। उसके कारण ही मैंने दूसरे लोगों से अपने सब संबंध तोड़ लिए थे। महज़ उसके कारण डाक टिकट को देखते ही मेरा मन खीज और झुँझलाहट से भर उठता था। उसके कारण ही मैंने अपनी पत्नी को—विवाह से पूर्व या उसके बाद—कभी कोई पत्र नहीं लिखा, क्योंकि मैं अपने को इन छोटी-मोटी भावुकताओं से ऊपर मानता था...हालाँकि मेरी पत्नी को यह बात काफ़ी चुभती थी।”

    “उसके कारण ही मैं इतना कठोर था और सबसे नाता तोड़कर अलग-थलग रहने लगा था। उसके कारण और सिर्फ़ उसके कारण ही मेरा जीवन इतना आदर्शनीय इतना कर्त्तव्यनिष्ठ हो गया था।”

    “उस दिन मैंने अपनी ज़िंदगी को नए सिरे से देखा और तब सहसा मुझे लगा मानो मैं एक बिल्कुल दूसरी ज़िंदगी जी रहा था। अगर वह घटना होती, तो शायद मैं एक दूसरे क़िस्म का व्यक्ति होता—एक ऐसा व्यक्ति जिसका दिल हमेशा जोश और उत्साह, स्नेह, साहस, जिन्दादिली और हाजिरजवाबी से फड़कता रहता है...मुक्त और विचित्र...आकांक्षाओं में छलछलाता रहता है। मैं कुछ भी हो सकता था...अन्वेषक, अभिनेता, सैनिक। ज़रा देखिए...मैं तब एक ऐसा आदमी होता जो दूसरों के प्रति हमदर्दी महसूस कर सकता है...उनके साथ मिल कर शराब पी सकता है। उन्हें समझ सकता है। आह! मैं क्या कुछ नहीं कर सकता था! और तब उस क्षण मुझे लगा जैसे मेरे भीतर बरसों से दबी बर्फ़ धीरे-धीरे पिघलने लगी हो। मैं अपने टिकट-संग्रह को देखने लगा...बारी-बारी से हर टिकट को। सब पुराने टिकट वहाँ मौजूद थे...लोम्बार्डी, क्यूबा, स्याम, हैनोवर, निकारागुआ, फिलीपीन्स—वे सब देश और शहर जहाँ मैं जाना चाहता था और जिन्हें अब मैं कभी नहीं देख सकूँगा। उनमें से हर टिकट पर किसी अज्ञात चीज़ का टुकड़ा चिपका था। जो हो सकता था और हुआ नहीं था। मैं रात-भर उन टिकटों के सामने बैठा रहा और अपनी ज़िंदगी के बारे में सोचता रहा। मुझे लगा कि मैं अब तक एक बनावटी, अजनबी और पराई ज़िंदगी जी रहा था...जो मेरी असली ज़िंदगी थी। वह कभी पैदा हो सकी।” श्री कारास ने उदास भाव से सिर हिलाते हुए कहा। “आह...जब कभी उन चीज़ों के बारे में सोचता हूँ, जो मैं कर सकता था...या अपने उस अपराध के बारे में सोचता हूँ जो मैंने लोयजीक के प्रति किया था... ।”

    श्री कारास के इन शब्दों को सुन कर फादर बोंस बहुत गमगीन और उदास हो गए—बहुत संभव है, उन्हें अपनी ज़िंदगी की कोई घटना याद गई हो। “कारास साहब!” उन्होंने करुणा-भरे स्वर में कहा, “आप इसके बारे में अधिक सोचिए। अब कोई फ़ायदा नहीं है... भला-बुरा जो हो चुका है, वह हो चुका है। ज़िंदगी को नए सिरे से शुरू नहीं किया जा सकता...।”

    “आप ठीक कहते हैं।” श्री कारास ने लंबी साँस लेते हुए कहा—उनका चेहरा हल्का-सा गुलाबी हो गया था। “लेकिन मैं आपसे कहना चाहता था कि मैंने...फिर से टिकट जमा करने शुरू कर दिए हैं।”

    स्रोत :
    • पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 222)
    • संपादक : ममता कालिया
    • रचनाकार : कारेल चापेक
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2005
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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