प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा चौथी के पाठ्यक्रम में शामिल है।
गर्मी की छुट्टियाँ थीं। दुपहर के समय दिनेश घर में बैठा कोई कहानी पढ़ रहा था। तभी पेड़ के पत्तों को हिलाती हुई कोई वस्तु धम से घर के पीछे वाले बग़ीचे में गिरी। दिनेश आवाज़ से पहचान गया कि वह वस्तु क्या हो सकती है। वह एकदम से उठकर बरामदे की चिक सरका कर बग़ीचे की ओर भागा।
“अरे अरे, बेटा कहाँ जा रहा है? बाहर लू चल रही है।” दिनेश की माँ मशीन चलाते-चलाते एकदम ज़ोर से बोलीं। परंतु दिनेश रुका नहीं। उसने पैरों में चप्पल भी नहीं पहनी। जून का महीना था। धरती तवे की तरह तप रही थी। पर दिनेश को पैरों के जलने की भी चिंता नहीं थी। वह जहाँ से आवाज़ आई थी, उसी ओर भाग चला।
सामने की क्यारी में भिंडियों के ऊँचे-ऊँचे पौधे थे। एक ओर सीताफल की घनी बेल फैली हुई थी। क्यारियों के चारों ओर हरे-हरे केले के वृक्ष लहरा रहे थे। दिनेश ने जल्दी-जल्दी भिंडियों के पौधों को उलटना-पलटना आरंभ किया। जब वहाँ कुछ नहीं मिला तो उसने सारी सीताफल की बेल छान मारी।
बराबर में ही घूँस ने गड्ढे बना रखे थे। ढूँढ़ते ढूँढ़ते जब उसकी निगाह उधर गई तो उसने देखा कि गड्ढे के ऊपर ही एक बिल्कुल नई चमचमाती किरमिच की गेंद पड़ी है।
दिनेश ने हाथ बढ़ाकर गेंद उठा ली। लगता था जैसे किसी ने उसे आज ही बाज़ार से ख़रीदा है। उसने उसे उलट-पलटकर देखा परंतु कुछ भी समझ में नहीं आया। नज़र उठाकर उसने पास की तिमंज़िली इमारत की ओर देखा कि हो सकता है किसी बच्चे ने इसे ऊपर से फेंका हो परंतु उस इमारत के इस ओर खुलने वाले सभी दरवाज़े और खिड़कियाँ बंद थे। छत की मुँडेर से लेकर नीचे तक तेज़ धूप चिलचिला रही थी।
फिर कौन ख़रीद सकता है नई गेंद? दिनेश ने सुधीर, अनिल, अरविंद, आनंद, दीपक सभी के नाम मन में दोहराए। यदि गेंद ख़रीदी भी है तो इस दुपहरी में इसे नीचे कौन फेंकेगा!
हो न हो, यह गेंद बाहर से ही आई है। उसने सड़क पर बने गोल चक्कर के बग़ीचे की ओर देखा परंतु वहाँ पर केवल दो-चार गायें ही दिखाई पड़ीं जो पेड़ों के नीचे सुस्ता रही थीं। उसे ध्यान आया कि जाने कितनी बार अपने मोहल्ले के बच्चों की गेंदें किक्रेट खेलते हुए दूर चली गई और फिर कभी नहीं मिलीं। एक बार तो एक गेंद एक चलते हुए ट्रक में भी जा पड़ी थी।
तभी भीतर से माँ की आवाज़ आई, “अरे दिनेश, तू सुनेगा नहीं? सब अपने-अपने घरों में सो रहे हैं और तू धूप में घूम रहा है।”
दिनेश गेंद को हाथ में लिए हुए भीतर आ गया। ठंडे फ़र्श पर बिछी चटाई पर वह लेट गया और सोचने लगा-भले ही यह गेंद मोहल्ले में से किसी की न हो, परंतु ईमानदारी इसी में है कि एक बार सबसे पूछ लिया जाए। गर्मी की छुट्टियाँ थीं। बच्चों ने खेलने की सुविधा को ध्यान में रखते हुए एक क्लब बनाया हुआ था। उस क्लब में सभी बच्चों के लिए बल्ले थे और गेंद ख़रीदने के लिए वे आपस में क्लब का चंदा देकर पैसे इकट्ठा कर लेते थे। शाम को सारे बच्चे इकट्ठा हुए। दिनेश ने सभी से पूछा, “मुझे एक गेंद मिली है। अगर तुममें से किसी की गेंद खो गई हो, तो वह गेंद की पहचान बताकर गेंद मुझसे ले सकता है।”
तभी अनिल बोला, “गेंद तो मेरी खो गई है।”
“कब खोई थी तेरी गेंद?”
“यही कोई चार महीने पहले।”
“तो वह गेंद तेरी नहीं है”, दिनेश ने कहा।
“फिर वह मेरी होगी”, सुधीर ने तुरंत उस पर अपना अधिकार जताते हुए कहा।
“वह कैसे”, दिनेश ने पूछा।
“तू मुझे गेंद दिखा दे, मैं अपनी निशानी बता दूँगा।”
“वाह! यह कैसे हो सकता है?” दिनेश बोला, “गेंद देखकर निशानी बताना कौन-सा कठिन है! बिना देखे बता, तब जानूँ।”
तभी ऊपर से दीपक उत्तर आया। दीपक अपना मतलब सिद्ध करने तथा अवसर पड़ने पर सभी को मित्र बना लेने में चतुर था। गेंद की बात सुनकर दीपक बोला, “गेंद मेरी है।”
“कैसे तेरी है?” सभी ने एक साथ पूछा, “कल ही तो तू कह रहा था कि इस बार तेरे पापा तुझे गेंद लाने के लिए पैसे नहीं दे रहे हैं।”
“मेरी गेंद तो पाँच महीने पहले खोई थी”, दीपक ने कहा, “जब बड़े भैया की शादी हुई थी न तभी सुनील ने मेरी गेंद छत पर से नीचे फेंक दी थी।”
दिनेश अच्छी तरह जानता था कि यह गेंद दीपक की नहीं है। दीपक की गेंद पाँच महीने पहले खोई थी। और यह कभी हो ही नहीं सकता कि गेंद पाँच-छह महीने पड़ी रहे और उस पर मिट्टी का एक भी दाग़ न लगे। दीपक ने कहा, “मैं कुछ नहीं जानता। गेंद मेरी है। वह मेरी है और सिर्फ़ मेरी है।”
“अरे, जा जा, बड़ा आया गेंदवाला! क्या सबूत है कि यही गेंद नीचे फेंकी थी”, अनिल ने पूछा।
दीपक ने कहा, “हाँ, सबूत है। मुझे गेंद दिखा दो, मैं फ़ौरन बता दूँगा।”
दिनेश ने देखा कि झगड़ा बढ़ रहा है। गेंद हथियाने के लिए दीपक सुधीर और सुनील का सहारा ले रहा है।
वह जानता था कि यदि गेंद दीपक के पास चली गई तो ये तीनों मिलकर खेलेंगे।
“अच्छा में गेंद ला रहा हूँ। परंतु जब तक पक्का सबूत नहीं मिलेगा, मैं किसी को दूँगा नहीं”, दिनेश ने कहा।
गेंद आ गई। दीपक उसे देखते ही बोला, “यह मेरी है, यही है मेरी गेंद। यह लाल रंग का निशान मेरी ही गेंद पर था।”
“वाह! सभी गेंदों पर ऐसे ही निशान होते हैं”, अनिल ने दिनेश का साथ देते हुए कहा।
दीपक ने फिर ज़ोर लगाया, “मैं अपने पापा से कहलवा सकता हूँ कि गेंद मेरी है।”
“अरे जा, ऐसे तो मैं अपने बड़े भाई से कहलवा सकता हूँ कि गेंद दिनेश की है!” अनिल ने कहा।
“कुछ भी हो गेंद मेरी है”, दीपक ने उसे धरती पर मारते हुए कहा “धरती पर टप्पा पड़ते हुए मेरी गेंद में से ऐसी ही आवाज़ आती थी।”
“मेरे साथ बाज़ार चल। दुकानों पर जितनी गेंदें हैं, सभी के टप्पे की आवाज़ ऐसी ही होगी”, अनिल ने फिर उसकी बात काट दी।
“अच्छी बात है, तो मैं इसे सड़क पर फेंक दूँगा। देखें कैसे कोई खेलेगा!” दीपक ने जैसे ही गेंद को सड़क पर फेंकने के लिए हाथ उठाया कि अनिल और दिनेश ने उसे पकड़ लिया। अब दीपक ने रुआँसे होते हुए अपना अंतिम हथियार आजमाया। बोला, “या तो गेंद मुझे दे दो, नहीं तो मैं इसके पैसे सुनील से लूँगा।”
अब तो सुनील, दीपक और सुधीर का गुट मज़बूत होने लगा था। तीनों का ही कहना था कि गेंद दीपक की है और उसे ही मिलनी चाहिए। दिनेश तब तक चुप था। वास्तव में दिनेश का मन उस समय सबके साथ मिलकर उस गेंद से खेलने को कर रहा था। बोला, “अब चुप भी रहो झगड़ा बाद में कर लेंगे। अपने-अपने बल्ले ले आओ, पहले खेल लें।”
पाँच मिनट के भीतर ही खेल आरंभ हो गया। दिनेश बल्लेबाज़ी कर रहा था। अभी दो-चार बार ही खेला था कि वह चमकदार नई गेंद एकदम ज़ोर से उछली और दरवाज़ा पार कर सड़क पर जाते हुए एक स्कूटर में बनी सामान रखने की जालीदार टोकरी में जा गिरी। स्कूटर वाले को शायद पता भी नहीं चला। तेज़ी से चलते हुए स्कूटर के साथ गेंद भी चली गई।
बच्चे पहले तो चिल्लाते हुए स्कूटर के पीछे भागे, परंतु जल्दी ही सब रुक गए। वे समझ गए थे कि स्कूटर के पीछे भागना बेकार है। एक पल के लिए सभी ने एक-दूसरे की ओर देखा और फिर सभी ठहाका मार कर हँस पड़े।
garmi ki chhuttiyan theen. dopahar ke samay dinesh ghar mein baitha koi kahani paDh raha tha. tabhi peD ke patton ko hilati hui koi vastu dham se ghar ke pichhe vale baghiche mein giri. dinesh avaz se pahchan gaya ki wo vastu kya ho sakti hai. wo ekdam se uthkar baramde ki chik sarka kar baghiche ki or bhaga.
“are are, beta kahan ja raha hai? bahar lu chal rahi hai. ” dinesh ki maan mashin chalate chalate ekdam zor se bolin. parantu dinesh ruka nahin. usne pairon mein chappal bhi nahin pahni. joon ka mahina tha. dharti tave ki tarah tap rahi thi. par dinesh ko pairon ke jalne ki bhi chinta nahin thi. wo jahan se avaz aai thi, usi or bhaag chala.
samne ki kyari mein bhinDiyon ke uunche uunche paudhe the. ek or sitaphal ki ghani bel phaili hui thi. kyariyon ke charon or hare hare kele ke vriksh lahra rahe the. dinesh ne jaldi jaldi bhinDiyon ke paudhon ko ulatna palatna arambh kiya. jab vahan kuch nahin mila to usne sari sitaphal ki bel chhaan mari.
barabar mein hi ghoons ne gaDDhe bana rakhe the. DhunDhate DhunDhate jab uski nigah udhar gai to usne dekha ki gaDDhe ke uupar hi ek bilkul nai chamchamati kirmich ki gend paDi hai.
dinesh ne haath baDhakar gend utha li. lagta tha jaise kisi ne use aaj hi bazar se kharida hai. usne use ulat palatkar dekha parantu kuch bhi samajh mein nahin aaya. nazar uthakar usne paas ki timanzili imarat ki or dekha ki ho sakta hai kisi bachche ne ise uupar se phenka ho parantu us imarat ke is or khulne vale sabhi darvaze aur khiDkiyan band the. chhat ki munDer se lekar niche tak tez dhoop chilchila rahi thi.
phir kaun kharid sakta hai nai gend? dinesh ne sudhir, anil, arvind, anand, dipak sabhi ke naam man mein dohraye. yadi gend kharidi bhi hai to is dopahri mein ise niche kaun phenkega!
ho na ho, ye gend bahar se hi aai hai. usne saDak par bane gol chakkar ke baghiche ki or dekha parantu vahan par keval do chaar gayen hi dikhai paDin jo peDon ke niche susta rahi theen. use dhyaan aaya ki jane kitni baar apne mohalle ke bachchon ki genden kikret khelte hue door chali gai aur phir kabhi nahin milin. ek baar to ek gend ek chalte hue trak mein bhi ja paDi thi.
tabhi bhitar se maan ki avaz aai, “are dinesh, tu sunega nahin? sab apne apne gharon mein so rahe hain aur tu dhoop mein ghoom raha hai. ”
dinesh gend ko haath mein liye hue bhitar aa gaya. thanDe farsh par bichhi chatai par wo let gaya aur sochne laga bhale hi ye gend mohalle mein se kisi ki na ho, parantu iimandari isi mein hai ki ek baar sabse poochh liya jaye. garmi ki chhuttiyan theen. bachchon ne khelne ki suvidha ko dhyaan mein rakhte hue ek klab banaya hua tha. us klab mein sabhi bachchon ke liye balle the aur gend kharidne ke liye ve aapas mein klab ka chanda dekar paise ikattha kar lete the. shaam ko sare bachche ikattha hue. dinesh ne sabhi se puchha,“mujhe ek gend mili hai. agar tummen se kisi ki gend kho gai ho, to wo gend ki pahchan batakar gend mujhse le sakta hai. ”
tabhi anil bola, “gend to meri kho gai hai. ”
“kab khoi thi teri gend?”
“yahi koi chaar mahine pahle. ”
“to wo gend teri nahin hai”, dinesh ne kaha.
“phir wo meri hogi”, sudhir ne turant us par apna adhikar jatate hue kaha.
“vah kaise”, dinesh ne puchha.
“tu mujhe gend dikha de, main apni nishani bata dunga. ”
“vaah! ye kaise ho sakta hai?” dinesh bola, “gend dekhkar nishani batana kaun sa kathin hai! bina dekhe bata, tab janun. ”
tabhi uupar se dipak uttar aaya. dipak apna matlab siddh karne tatha avsar paDne par sabhi ko mitr bana lene mein chatur tha. gend ki baat sunkar dipak bola, “gend meri hai. ”
“kaise teri hai?” sabhi ne ek saath puchha, “kal hi to tu kah raha tha ki is baar tere papa tujhe gend lane ke liye paise nahin de rahe hain. ”
“meri gend to paanch mahine pahle khoi thee”, dipak ne kaha, “jab baDe bhaiya ki shadi hui thi na tabhi sunil ne meri gend chhat par se niche phenk di thi. ”
dinesh achchhi tarah janta tha ki ye gend dipak ki nahin hai. dipak ki gend paanch mahine pahle khoi thi. aur ye kabhi ho hi nahin sakta ki gend paanch chhah mahine paDi rahe aur us par mitti ka ek bhi daagh na lage. dipak ne kaha, “main kuch nahin janta. gend meri hai. wo meri hai aur sirf meri hai. ”
“are, ja ja, baDa aaya gendvala! kya sabut hai ki yahi gend niche phenki thee”, anil ne puchha.
dipak ne kaha, “haan, sabut hai. mujhe gend dikha do, main fauran bata dunga. ”
dinesh ne dekha ki jhagDa baDh raha hai. gend hathiyane ke liye dipak sudhir aur sunil ka sahara le raha hai.
wo janta tha ki yadi gend dipak ke paas chali gai to ye tinon milkar khelenge.
“achchha mein gend la raha hoon. parantu jab tak pakka sabut nahin milega, main kisi ko dunga nahin”, dinesh ne kaha.
gend aa gai. dipak use dekhte hi bola, “yah meri hai, yahi hai meri gend. ye laal rang ka nishan meri hi gend par tha. ”
“vaah! sabhi gendon par aise hi nishan hote hain”, anil ne dinesh ka saath dete hue kaha.
dipak ne phir zor lagaya, “main apne papa se kahalva sakta hoon ki gend meri hai. ”
“are ja, aise to main apne baDe bhai se kahalva sakta hoon ki gend dinesh ki hai!” anil ne kaha.
“kuchh bhi ho gend meri hai”, dipak ne use dharti par marte hue kaha “dharti par tappa paDte hue meri gend mein se aisi hi avaz aati thi. ”
“mere saath bazar chal. dukanon par jitni genden hain, sabhi ke tappe ki avaz aisi hi hogi”, anil ne phir uski baat kaat di.
“achchhi baat hai, to main ise saDak par phenk dunga. dekhen kaise koi khelega!” dipak ne jaise hi gend ko saDak par phenkne ke liye haath uthaya ki anil aur dinesh ne use pakaD liya. ab dipak ne ruanse hote hue apna antim hathiyar ajmaya. bola, “ya to gend mujhe de do, nahin to main iske paise sunil se lunga. ”
ab to sunil, dipak aur sudhir ka gut mazbut hone laga tha. tinon ka hi kahna tha ki gend dipak ki hai aur use hi milani chahiye. dinesh tab tak chup tha. vastav mein dinesh ka man us samay sabke saath milkar us gend se khelne ko kar raha tha. bola, “ab chup bhi raho jhagDa baad mein kar lenge. apne apne balle le aao, pahle khel len. ”
paanch minat ke bhitar hi khel arambh ho gaya. dinesh ballebazi kar raha tha. abhi do chaar baar hi khela tha ki wo chamakdar nai gend ekdam zor se uchhli aur darvaza paar kar saDak par jate hue ek skutar mein bani saman rakhne ki jalidar tokari mein ja giri. skutar vale ko shayad pata bhi nahin chala. tezi se chalte hue skutar ke saath gend bhi chali gai.
bachche pahle to chillate hue skutar ke pichhe bhage, parantu jaldi hi sab ruk ge. ve samajh ge the ki skutar ke pichhe bhagna bekar hai. ek pal ke liye sabhi ne ek dusre ki or dekha aur phir sabhi thahaka maar kar hans paDe.
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हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।