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श्रीमती महादेवी वर्मा : स्मृति-चित्र

shirimati mahadewi warma ha smriti chitr

नगेंद्र

नगेंद्र

श्रीमती महादेवी वर्मा : स्मृति-चित्र

नगेंद्र

और अधिकनगेंद्र

    (एक)

    सन् 1932-33 तक, जब कि मैं सेंट जान्स कॉलिज आगरा में बी० ए०—प्रथम वर्ष में पढ़ता था, हिंदी कविता से मेरा घनिष्ठ परिचय हो चुका था। मेरा यह अध्ययन केवल स्वांत सुखाय ही होकर एक विशेष क्रम से योजनाबद्ध रूप में चल रहा था—और उस समय तक मैं हिंदी के प्रायः समस्त नए पुराने प्रतिनिधि कवियों के प्रमुख ग्रंथों का विधिवत् अवलोकन कर चुका था। चूँकि मेरा लक्ष्य हिंदी के (साथ ही अँग्रेज़ी तथा संस्कृत के भी) अभिजात काव्य का विधिवत् अध्ययन करना था, अंत मेरे मन मे अति-नवीन काव्य वे प्रति कई विशेष आग्रह नहीं था। आगरा का साहित्य रत्न भंडार हमारे छात्रावास के पास ही था जहाँ मैं नियमित रूप से जाकर नई पुस्तकें देखता और ख़रीदता था। प्राचीन ग्रंथों के संस्करण जहाँ भाड़े और सस्ते होते थे, वहाँ नए काव्य ग्रंथ वाह्य रूप-सज्जा की दृष्टि से अत्यंत आकर्षक होते थे—उनका मुद्रण और मुखपृष्ठ कलापूर्ण होते थे और जिल्द प्राय रेशमी रहती थी, परंतु अभिजात (क्लासिक) काव्य की शोध में प्रवृत्त मेरा किशोर मन अनायास ही इस वाह्य आकर्षण का सवरण कर प्राय प्राचीन ग्रंथों के संग्रह का ही प्राथमिकता देता था। अंत जब एक दिन विक्रेता ने 'रसराज' और 'नीहार' दोनों एक साथ मेरे सामने रखे तो मैंने 'रसराज' ख़रीदना ही आवश्यक समझा—क्योंकि मेरे अध्ययन श्रम मे 'रसराज' का तो अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान था पर एक उदीयमान कवि की प्रथम रचना होने के कारण 'नीहार' वा कोई महत्व नहीं था।

    यह प्रबंध धीरे-धीरे शिथिल होने लगा, प्राचीन काव्य के साथ-साथ नवीन काव्य की ओर मेरा आकर्षण बढ़ने लगा और चूँकि में स्वयं भी कुछ रोमानी कविता लिखता था, इसलिए छायावाद वे कवियों के साथ में एक विशेष तादात्म्य का अनुभव करने लगा। 'परिमल', 'पल्लव' और 'ग्रंथि' के साथ 'नीहार' भी एक वर्ष के भीतर मेरे पुस्तकालय वे अलंकार बन गए। तब तक 'नीहार' की अनेक पंक्तियाँ मुझे कंठस्थ हो चुकी थी—'जो तुम जाते एक बार' को मैं प्रगीत काव्य का अत्यंत उत्कृष्ट उदाहरण मानता था। अंत 'रश्मि' के प्रकाशित होते ही मैं तुरंत उसे ख़रीद लाया—और एक दिन जब कोई फेरी वाला हॉस्टल में आया तो मैंने संगमरमर का एक छोटा-सा फ़्रेम लेकर 'रश्मि' में संकलित महादेवी जी का चित्र उसमें लगाकर पढ़ने की मेज़ पर रख लिया। कुछ समय के बाद हिंदी वे एक स्थानीय कवि मेरे पास आए और उस चित्र को देखकर अचानक पूछ बैठे यह आपकी बड़ी बहन की तस्वीर है? उनके इस अनुमान के लिए कोई विशेष आधार तो नहीं था और मन ही मन उनके अल्पबोध का उपहास करते हुए मैंने तुरंत इसका प्रतिवाद भी कर दिया। परंतु इस गौरवमय संबंध की एक विचित्र महत्वाकांक्षा मेरी चेतना में जग गई जो वर्षों के बाद एक दिन महादेवी जी का स्नेह पाकर अनायास फलवती हुई।

    महादेवी जी के दर्शन मैंने पहली बार शायद 1939-40 के आपास किया। उस समय तक 'नीरजा' प्रकाशित हो चुकी थी और वे हिंदी के आधुनिक कवियों की प्रथम पंक्ति में प्रतिष्ठित हो चुकी थी। उधर मैं भी 'सुमित्रानंदन पंत' तथा 'साकेत एक अध्ययन' लिख चुका था और वे मुझे नाम से जानती थी। मैंने एक मित्र के माध्यम से उनसे भेंट करने की योजना बनाई और कुछ ऐसा सयोग हुआ कि मुझे अपने स्थान पर लौटने का अवसर मिला। मैं या ही शहर में घूमने निकल पड़ा था और जब मित्र ने तुरंत ही महादेवी जी के पास चलने का प्रस्ताव वर दिया तो मैं कुछ दुविधा में पड़ गया। मुझे लगा जैसे मेरी वस्त्रभूषा मे उन जैसी गौरवास्पदा महिला के पास जाने लायक संजीदगी नहीं थी। मैं शायद जर्सी पहने हुए था। मैंने सुन रखा था कि वे लोगो से प्रायः कम ही मिलती है—और मर्यादा की बड़ी कायल है। अंत मेरे मन में बार-बार कालिदास को यह उक्ति गूँजने लगी—'विनीतवेपेण प्रवेष्टव्यानि तपोवनानि।’ और मैं सहमा हतप्रभ-सा हो गया। परंतु अपने मन की इस दुविधा को मित्र के सामने व्यक्त करने की मेरी हिम्मत नहीं पड़ी और उधर मित्र ने भी मुझे इसका अवसर नहीं दिया।—हम लोग एलगिन रोड पर स्थित उनके आवाम की ओर चल दिए।

    रास्ते में आते हुए 'छायावाद की मीरा' में व्यक्तित्व के बारे में तरह-तरह की कल्पनाएँ मेरे मन में उठने लगी। एन क्षीण-कल्पना धूमिल चित्र मेरी आँखों के सामने आने लगा और मैं बार-बार अपने उस अकाव्यमय अविनीत देश के प्रति सचेत-सा होने लगा। ऐसी ही विचित्र कल्पनाओ और धारणाओं को लेकर मैंने महादेवी जी के वार्ताकक्ष में प्रवेश किया। उस कमरे की साज-सज्जा अत्यंत कलापूर्ण थी।—दीवारों पर अजंता शैली वे भव्य चित्र अंकित थे, एक कोने में कृष्ण की सुंदर मूत्ति खड़ी हुई थी, फ़र्श पर कालीन बिछे हुए थे और कुर्सियों तथा आसन्दियों पर रेशम की गद्दियाँ थी संपूर्ण कक्ष में कला का वातावरण व्याप्त था जिसमें छायावाद का रंग-वैभव तो यथावत् था, परंतु मुझे लगा जैसे इसकी व्यजनाएँ कुछ अधिक मूर्त थी। मैं बड़े ध्यान से भित्तिचित्र आदि को देख रहा था कि इतने में महादेवी जी ने प्रवेश किया। हम लोगों ने उठकर विनयपूर्वक अभिवादन किया और अत्यंत संभ्रम के साथ अपने-अपने स्थान पर बैठ गए। महादेवी जी शुभ्र खादी के वस्त्र धारण किए हुए थी जो कमरे में विकीर्ण रंग-वैभव से सर्वथा भिन्न होते हुए भी उसमें विसंगति उत्पन्न नहीं करते थे जैसे शारदा की श्वेत प्रतिमा रंग बिरंगे फूलों के बीच किसी प्रकार असंगत प्रतीत नहीं होती। कक्ष का वतावरण कुछ औपचारिक-सा होने लगा था—परंतु महादेवी जी ने तुरंत अपने मुक्त हास्य और उसी में अनुरूप सहज व्यावहार से उसे मगर दिया। मुझे देखकर सहसा कह उठी—अरे तुम हो नगेंद्र : तुम्हारे लेख पढ़ कर तो मैं समझती थी कि कोई भरकम आदमी होंगे। मैंने कहा : नहीं तो अभी दो वर्ष पूर्व ही एम० ए० किया है। मित्र बोले 'क्या उम्र है आपकी? ' मैंने कहा : '24 वर्ष।' इस पर तुरंत ही महादेवी जी बोल उठी 'तब तो हम तुम्हारी बड़ी दीदी है। मैंने इस अपरिचित स्नेह के लिए आभार व्यक्त किया और लगभग 6-7 वर्ष पहले घटित होस्टल अनायस ही मेरी स्मृति में मूर्तित हो गई।—हम लोग कोई घंटा-डेढ़-घंटा बातचीत करते रहे। थोड़ी देर में मेरे-घरबार के बारे में बातें करती रही जो महज़ आत्मीयता से भीगी हुई थी। बीच में प्रगतिवाद की चर्चा चल पड़ी मैंने देखा कि उनकी वाणी सहसा उद्दीप्त हो उठी और छायावाद-विरोधी तर्कों का वे अपूर्व दृढ़ता से खंडन करने लगी। इतने में ही चाय गई और उनके स्वर में फिर वही सहज मार्दव गया, जैसे किसी साहित्यिक मन को छोड़कर वे तुरंत ही परिवार के सहज स्निग्ध वातावरण में लौट आई हो। चाय पीतक अत्यंत कृतज्ञ भाव से मैंने उनसे विदा ली और मित्र के साथ अपने आवास की ओर चल दिया। रास्ते में स्वभावतः मैं महादेवी जी के विषय में ही सोचता रहा था मुझे लगता था कि मैंने 'अतीत के चलचित्र' की ममतामयी विधात्री के दर्शन तो कर लिए—'शृंखला की कड़ियाँ’ की लेखिका तेजस्वी रूप भी देख लिया परंतु छायावाद की जिस विरहदग्ध कवयित्री को देखने में गया था वह अपने साधना-कक्ष से बाहर नहीं आई।

    —और, महादेवी जी के विषय में आज भी यही सत्य है। उनके व्यक्तित्व के तीन रूप हैं एक—ममतामयी भारतीय महिला का जो बड़ों से छोटी बहन और छोटी से बड़ी बहन की तरह व्यवहार करती है, दूसरा—राष्ट्र की जाग्रत मेधाविनी नारी का जिसके विचारों में दृढ़ता और वाणी मे अपूर्व तेज़ है, और तीसरा—रहस्य कल्पनाओं की भावप्रवण कवयित्री का जिसने मधुरतम छायावादी गीतों की सृष्टि की है। इनमें पहला उनका पारिवारिक रूप है जो साहित्यिक बंधुओं के सीमित वृत्त में प्रकट होता है, दूसरा सामाजिक रूप है जो सार्वजनिक मंचों पर दीप्त हो उठता है और तीसरा काव्य की मधुर-साधना मे लीन ऐकांतिक रूप है जो सामने नहीं आता।

    (दो)

    इस स्नहाश्वासन के बाद में महादेवी जी के प्रति एक श्रद्धामय नैकट्य का अनुभव करने लगा और इलाहाबाद जाने पर नियमित रूप से उनसे मिलता। सन् 1940 में उनकी प्रसिद्ध कृति 'दीपशिखा' प्रकाशित हुई और मैंने पूर्ण मनोयोग के साथ उसकी समीक्षा लिखकर 'आकाशवाणी' से प्रसारित की जो बाद में प्रकाशित भी हुई। उन दिन हिंदी-साहित्य में प्रगतिवाद का आंदोलन ज़ोर पर था। जैसा कि आज नवलेखन में सूत्रधार कर रहे हैं, उसी तरह सन् 40 के आस-पास साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित लेखन मी संगठन बनाकर सिद्धांत का व्यवसाय कर रहे थे और उन्होंने भी नए लेखकों की तरह अपनी सीमा की रक्षा करने के लिए कुछ छोटे-बड़े प्रहरी छोट रखे थे जो उनकी अपनी चौहद्दी से बाहर चलने वालो पर अवारण ही झपटते रहते थे। सांस्कृतिक परंपरा के प्राय सभी कवि लेखक उनके शिकार बन चुके थे। सिद्धांत और व्यवहार दोनों की दृष्टि से प्रगतिवाद के आंदोलन के प्रति मेरे मन में आस्था नहीं थी—मुझे लगता था और आज भी लगता है कोई भी जीवन-दृष्टि जैसे-जैसे वह आंदोलन का सहारा लेती है, साहित्य से दूर हटने लगती है। इस प्रकार के आंदोलनवादी साहित्य में भौतिक सिद्धियाँ प्रमुख हो जाती हैं और कला की साधना गौण। फिर भी, एक हल्ला तो मंच ही गया था। पंत जी को काव्य कल्पना जीवन में मूलभूत साम्य का अनुसंधान करती हुई मार्क्स के सिद्धांतों की ओर आकृष्ट हो गई थी और वे अपनी प्रत्या को सायास उधर मोड़ रहे थे। प्रगतिवाद को इससे बड़ा बल मिल रहा था और उसके प्रचारक पंत जी की मूल दृष्टि को पकड़ कर उनकी बाह्य अभिव्यंजनाओं में आत्म-समर्थन ढूँढ़ते हुए 'ग्राम-युवती' या 'कहारों का नृत्य' का कविता के आदर्शरूप में विज्ञापित कर रहे थे। इधर निराला की उत्तम कविताओं की उपेक्षा कर वे ऐसी रचनाओं को फ़तवे दे रहे थे जिनमें उनकी दृष्टि से, शोषण के विरुद्ध क्रांति का स्वर प्रमुख था। मैं काव्य के क्षेत्र में बढ़ती हुई इस अराजकता पर क्षुब्ध था। तभी 'दीपशिखा' का प्रकाशन हुआ और मैंने मुक्त हृदय से उसका अभिनंदन करते हुए लिखा-

    'इस युग में 'दीपशिखा' का प्रकाशन एक घटना है। महादेवी जी के ही शब्द उधार लेकर हम कहेंगे कि 'जीवन और मरण इन तूफ़ानी दिनों में रची हुई यह कविता ठीक ऐसी ही है जैसे झझा और प्रलय के बीच में स्थित मंदिर में जलने वाली निष्कम्प दीपशिखा।'

    इस पुस्तक का महत्व एक और दृष्टि से भी है। आज छह-सात वर्षों के बाद महादेवी जी के साधना मंदिर का द्वार खुला है और करुणा के स्नेह से जलती हुई इस दीपक की लौ को अब भी एकाकीपन में तन्मय और विश्वास में मुस्कराती हुई देखकर हिंदी के विद्यार्थी का सशक भन उत्फुल्ल हो उठा है।

    परंतु आगे 'दीपशिखा' ने प्रगीत तत्व का विश्लेषण करते हुए मैंने निराशा व्यक्त की।

    अब हमें यह देखना है कि दीपशिखा को जिस अनुभूति से प्रेरणा मिली है, उसमें कितनी तीव्रता है। इस दृष्टि से हमें निराश होना पड़ेगा। कारण स्पष्ट है। इस अनुभूति के मूल में जो 'काम' का स्पंदन है, उसके ऊपर कवि ने चिंतन और कल्पना के इतने आवरण चढ़ा रखे है कि स्वभावत उनकी तीव्रता दब गई है और उसका टटोलने पर बहुत नीचे गहरे में एक हल्की सी धड़कन मिलती है। साथ ही अनुभूति की पुंजीभूत होने का अवसर नहीं मिला। उसका वितरण प्रयत्नपूर्वक किया गया है, इसलिए वह तीव्र रहकर हल्की-हल्की बिखर गई है। स्पष्ट शब्दों में, इन गीतों में लोकगीतों की जैसी मास की उष्ण गंध प्रायः निशेष हो गई है। दूसरी ओर बुद्धिजीवी महादेवी जी में संत या भक्त कवियों का-सा विश्वास और समर्पण भी संभव नहीं हो सका। इसलिए उनके हृदय में अज्ञात के प्रति भी जिज्ञासा ही उत्पन हो सकी है, पीड़ा नहीं। कुल मिलाकर यह कहना होगा कि दीप शिखा की प्रेरक अनुभूति छाँह सी सूक्ष्म और मोम-सी मृदुल तो है, परंतु हक-सी तीव्र नहीं।

    मैंने अपनी धारणा पूरी ईमानदारी और उतने ही आदर के साथ व्यक्त की थी और महादेवी जी पर मेरी भावना अव्यक्त नहीं रही थी, फिर भी उक्त वक्तव्य में ऐसा कुछ अवश्य था जो उनको ग्राह्य नहीं हो सकता था। अगली बार जब मैं उनसे मिला तो यह बात मेरे मन में थी। उन्होंने सहज-स्नेह से मेरा स्वागत किया और घर की—बाहर की—बहुत सी बातें करती रही। तभी मेरे मना करने पर भी भगतिन चाय ले आईं और यद्यपि मैं सवेरे अच्छी तरह खा पीकर निकला था, फिर भी मुझे दीदी के आदेश का पालन करना पड़ा। भूख एकदम होने से मैंने एकाध चीज़ लेकर तश्तरी सामने से हटा दी। इस पर उन्हे मौक़ा मिल गया—शायद वे उसकी तलाश में ही थी, और बोली बात करने हो कविता में भी मास की, मुँह में सेव तक नहीं चलते। मैं इसके लिए तैयार था, पर यह झिड़की इतने स्निग्ध रूप में मिलेगी, ऐसी आशा नहीं थी। मैंने बात को टालते हुए कहा—भोजन में, दीदी, में पूरा आयसमाजी हूँ। फिर भी, उस स्नेहसिक्त व्यंग्य ने मुझे अपने निर्णय पर पुनर्विवचार करने के लिए बाधित किया और यह प्रश्न आज भी मेरे सामने है कि क्या महादेवी की या सामान्यत छायावाद की कविता का इस आधार पर अवमूल्यन किया जा सकता है कि वह मासल नहीं है?

    वास्तव में अपने अध्ययन और चिंतन-मनन के आधार पर मेरी यह निर्भ्रांत धारणा बन गई है कि काव्य का प्राणतत्त्व रागात्मक अनुभूति है—और परिणामत काव्य के मूल्यांकन का आधार भी में अनुभूति को ही मानता हूँ। अनुभूति के अतिरिक्त मानव चेतना की एक और प्रमुख वृत्ति है कल्पना जो जीवन के समस्त क्षेत्रों में—विशेषकर काव्य में सक्रिय रहती है—काव्य में अनुभूति को रूपायित करने का सबसे प्रमुख साधन कल्पना ही है। इन दोनों वृत्तियों का यो तो अविच्छिन संबंध है, फिर भी स्थूल रूप से दोनों में कल्पना की अपेक्षा अनुभूति सत्य के अधिक निकट है—अतएव सामान्यतः अनुभूति मानव मन के लिए अपेक्षाकृत सहजग्राह होती है। इस तर्क से, जिस कविता में अनुभूति का तत्त्व अधिक है—अर्थात् जिसका अर्थ (सवेद्य) हमारी इंद्रियाँ और उनके माध्यम से मन को अधिक प्रभावित करता है, वह अधिक मूल्यवान है। उक्त तथ्य का अनेक बार और अनेक रूपों मे प्रतिपादन हो चुका है भारतीय रस-सिद्धांत में इसकी स्पष्ट स्वीकृति है, मिल्टन की बहुमान्य परिभाषा का भी सार यही है—कविता सरल, ऐंद्रिय और संवेगप्रवण होती है, वर्ड्सवर्थ ने इसी आधार पर कविता को प्रबल मनोवेगो का सहज उच्छलन माना है—आदि आदि। छायावाद की कविता पर विशेषकर महादेवी और पंत की कविता पर यह परिभाषा अपेक्षाकृत कम घटित होती है, इसम संदेह नहीं। परंतु इस तर्क का प्रतिवाद मी कठिन नहीं है और छायावाद की ओर से वही प्रस्तुत किया जा सकता है कविता जीवन में सामान्य ऐंद्रिय-मानसिक अनुभवी की वाणी नहीं है—परिष्कृत अर्थात रागद्वेष तथा ऐंद्रिय विकारों से मुक्त शुद्ध अनुभवों की अभिव्यक्ति है। अंत अनुभूति की मासलता नहीं वरन् मासल तत्व की परिस्कृति ही कविता की सिद्धि है और छायावाद की कविता में मानव अनुभूतियों के मृण्मय तत्व की अपेक्षा इसी चिन्मय तत्व का उन्मेष अधिक है। जीवन में सहजता अर्थात् प्रकृत आवेग और अंत स्फूर्ति का महत्व निश्चय ही है, परंतु परिष्कृति के प्रति मी मानव-चेतना की प्रवृत्ति नई है और अस्वाभाविक। स्वस्थ मानव-मन के लिए जीवन के मासल उपभोग में प्रवृत्त होना सर्वथा स्वाभाविक है परंतु उससे ऊपर उठने की स्पृहा भी कम स्वाभाविक नहीं है। प्रकृत जीवनवादियों का यह तर्क सही है कि आदमी केवल फूल सूंघ कर नहीं रह सकता, परंतु यह भी कम सही नहीं है कि आदमी को फूल सूँघने की आवश्यकता भी जीवन में निरंतर बनी रहती है। महादेवी जी आज मेरे इस वक्तव्य को पद कर हँस कर कहेंगी कि अब आए रास्ते पर, बच्चू!—मैं रास्ते पर कहाँ तक आया हूँ, यह तो इस समय नहीं बताऊँगा, परंतु इतना अवश्य है कि छायावाद के मूल्यांकन के संदर्भ में यह एक अत्यंत सार्थक प्रश्न है जो आज हमारे सामने उपस्थित है।

    इसी प्रकार नया कवि महादेवी जी के काव्य शिल्प के विरुद्ध भी एक विशेष आक्षेप करता है और वह यह कि उनकी बिंब-योजना वा क्षेत्र अत्यंत सीमित है उनके उपमानो और प्रतीकों में वैचित्र्य एवं वैविध्य नहीं है। यह आक्षेप ग़लत नहीं है कि जीवन और जगत के सीमित क्षेत्र से महादेवी जी अपने उपमानों और प्रतीकों का चयन करती है परंतु उनकी सयोजनाओं में अपूर्व वैचित्र्य है। कही भी महादेवी अपने बिंब या चित्र को पुनरावृत्ति नहीं करती, उपकरण प्राय समान ही रहते हैं परंतु उनका प्रयोग सर्वथा भिन्न होता है। इसलिए महादेवी जी की कला में विस्तार तो नहीं है परंतु सूक्ष्म विन्यास अद्भुत है। यहाँ फिर एक मौलिक प्रश्न उठता है कि क्या उपमान और प्रतीकों का वैविध्य-वैचित्र्य मात्र कला के मूल्यांकन का आधार हो सकता है। कला का रहस्य सामग्री के संग्रह में निहित है या उसके प्रयोग में? छायावाद के प्रसंग में यह प्रश्न भी उतना ही सार्थक है।

    (तीन)

    सन् 1950 के बाद महादेवी जी की प्रख्या ने एक प्रकार से उपराम ले लिया। पिछले दो दशकों में उनकी केवल दो ही कृतियाँ सामने आई एक 'सप्तपर्णा' जिसमें संस्कृत की कुछ चुनी हुई रचनाओं के पद्यानुवाद संकलित है और दूसरी 'पथ के साथी' जो कवयित्री के समसामयिक कलाकारों के मार्मिक व्यक्ति चित्रों का संकलन है। यह वास्तव में उनके सार्वजनिक जीवन का युग है। 1940 के बाद उनकी प्रतिमा साहित्यिक संगठन के कार्यों में प्रवृत्त हो चली थी। इस अवधि में उन्हें अनेक प्रकार के कड़वे-मीठे अनुभव हुए। हिंदी की जनता से उन्हें फूल भी मिले और धूल भी परंतु इसी बीच वर्तमान युग के तीन महान् व्यक्तित्व उनके जीवन मे आए—राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त और महाप्राण कवि निराला। मेरा विश्वास है कि इन तीनों ने ही महादेवी जी के प्रवल और समृद्ध व्यक्तित्व के विकास में, अन्वय-व्यतिरेक पद्धति से, योगदान किया। संयोगवश अथवा हो सकता है कि अपने स्वभाव की असार्वजनिक प्रवृत्तियों के प्रच्छन्न प्रभाव से इस अवधि में महादेवी जी के साथ मेरा संपर्क प्राय नहीं रहा। परंतु मेरे प्रति उनके वत्सल भाव में कोई कमी नहीं आई और इसका प्रमाण मुझे मिला मैथिलीशरण गुप्त अभिभाषण-माला के संदर्भ में जिसका आयोजन अभी कुछ मास पूर्व दिवंगत राष्ट्रकवि के जन्मदिवस पर हमारे विभाग की ओर से किया गया था।

    यह प्रसंग भी अपने आप में बड़ा ही रोचक और स्मरणीय है। दद्दा के स्वर्गवास के उपरांत हमारे विभाग ने श्यामलाल-ट्रस्ट के अनुदान से मैथिलीशरण गुप्त अभिभाषण-माला के आयोजन का निर्णय किया और अपने उपकुलपति डा० देशमुख के सामने प्रथम वक्ता के रूप में श्रीमती महादेवी वर्मा को आमंत्रित करने का प्रस्ताव रखा। डा० देशमुख ने बड़े उत्साह के साथ उनके नाम का अनुमोदन किया और कहा कि वास्तव में महादेवी जी के आने से एक भव्य परंपरा का सूत्रपात होगा। यह सब तो आसानी से हो गया, परंतु महादेवी जी को बुला लेना अपने आप में एक असाध्य-साधना थी। मैं समस्या के हर पहलू को जानता था, इसलिए मैंने पूरी सावधानी से योजना बनाई। सबसे पहले तो उनकी स्वीकृति प्राप्त करने का ही सवाल था, क्योंकि जब से मुझे मालूम है कि प्रयाग के डाक्टर विभाग से महादेवी जी की कोई ख़ास दुश्मनी चली रही है—न जाने क्यों दूसरो वे पत्र उनको नहीं मिलते और उनके पत्र भी यथा स्थान नहीं पहुँच पाते। इसका हल मैंने यह निकाला कि सरकार के भरे-पूरे डाक-विभाग का एकदम अविश्वास कर व्यक्तियों को पत्राचार का माध्यम बनाया। जिन दिनों यह योजना बन रही थी, तभी भाग्य से महिला विद्यापीठ के कर्म-सचिव अपने किसी आवश्यक कार्य से महादेवी जी का पत्र लेकर मेरे पास आए। मैंने कहा—आपके कार्य में कतिपय वैधानिक बाधाएँ है, परंतु मैं निश्चय ही प्रयत्न करूँगा। वे बेचारे बड़े कृतज्ञ हुए और धन्यवाद देकर जाने लगे। उसी वक़्त मैंने अपना मतलब उनसे कहाँ और महादेवी जी के नाम आमंत्रण पत्र सौप कर तुरंत ही उसकी स्वीकृति भिजवाने का वचन ले लिया। परंतु पूरी सावधानी के बावजूद पहला प्रयास विफल गया—उत्तर नहीं आया नकारात्मन और स्वीकारात्मक, यद्यपि वे सज्जन वादा कर गए थे कि देवी जी को यदि कोई कठिनाई हुई तो भी वे मुझे तुरंत सूचना दे देंगे। मैंने जल्दी ही दूसरा उपाय किया और अब की बार एक ऐसे सज्जन को माध्यम बनाया जो विनीत और निष्ठावान होने के साथ-साथ अपने दायित्व के प्रति भी अत्यंत सजग थे। तब भी मैंने उन्हें पूरी तरह सतर्क कर दिया था। वे पूर्ण संकल्प के साथ आगे बढ़े और नाना प्रकार की बाधाएँ पार कर अंत में महादेवी जी की स्वीकृति प्राप्त करने में सफल हो गए। उसी दिन उन्होंने मुझे तार से सूचना दी कि महादेवी जी ने सहर्ष हमारा आमंत्रण स्वीकार कर लिया है।

    यद्यपि मेरे पास संदेह का कोई विशेष कारण नहीं था, क्योंकि एक तो यह दद्दा ये सारस्वत श्राद्ध का पुनीत अवसर था और दूसरे मेरा भी यह पहला निमंत्रण था जिसमें मैंने अपनी ओर से सभी प्रकार के विकल्प देवर अस्वीकृति के लिए कोई अवकाश नहीं छोड़ा था, फिर भी मैं आश्वस्त नहीं था और उधर उनकी 'तात्कालिक स्वीकृति' मेरे संदेह में और भी वृद्धि कर रही थी। निमंत्रण चूँकि सर्वथा औपचारिक था अंत उसकी औपचारिक स्वीकृति भी अपेक्षित थी— यहाँ से दूसरी समस्या आरंभ हुई। मैं पूरे बुद्धिबल से काम लेता हुआ, दोहरे साधनों का प्रयोग कर रहा था—एक ओर सीधे रजिस्ट्री पत्र और तार भेजता दूसरी ओर मित्र के माध्यम से उनकी प्रतिलिपियाँ। अंत में, दीदी के सहज स्नेह से अभिषिक्त व्यक्तिगत पत्र के साथ औपचारिक स्वीकृति तो मुझे मिल गई, परंतु तिथियों का प्रश्न अब भी हल नहीं हुआ। अंत तिथियों के निर्णय के लिए फिर मोर्चा लगाया गया, और महीनों के बाद यह फ़ैसला हुआ कि अगस्त में दद्दा के जन्मदिवस पर ही भाषणमाला वा श्रीगणेश हो। अगस्त का महीना आया और विभाग की और से, समय पर, अवसर एवं वक्ता की गरिमा के अनुरूप विधिवत् आयोजन किया गया। प्रयाग से आने की गाड़ी आदि का निश्चय हो गया और यह भी तय हो गया कि महादेवी जी को चूँकि नई दिल्ली में कुछ आवश्यक कार्य है, अंत वही श्री दिनकर के यहाँ ठहरने में उन्हें अधिक सुविधा रहेगी। समारोह से एक दिन पूर्व तार आया कि वे अपर इंडिया से रही है। हम लोगों ने आराम की साँस ली। पर कुछ ही घंटे बाद एक तार और आया—मेरा माथा ठनका और मैंने समझा कि बस कोई कोई बाधा गई। परंतु इस तार का भी मजमून वहीं था कि महादेवी जी अपर इंडिया से पहुँच रही हैं—मुझे लगा जैसे आतिथेय की व्यग्रता का संक्रमण अब अतिथि पर हो गया है। दूसरे दिन पता लगा कि अपर इंडिया लेट है—यो तो लेट होने की उसकी आदत पुरानी है पर उस दिन वह तीन घंटे लेट थी। ख़ैर, तीन घंटे भी कब तक पूरे होते और गाड़ी गई।

    परिचित वेश-भूषा में महादेवी जी अपनी सहायिका के साथ डिब्बे से उतरी। उनका स्वागत करने के लिए विभाग के अनेक सदस्य आए थे पर वे अपने-अपने काम पर लौट चुके थे—मैं भी घर जाकर दोबारा आया था। अंत उस समय मैं और मेरे साहित्य सहायक ही स्टेशन पर रह गए थे। मैंने सप्रणाम माल्यार्पण द्वारा उनका स्वागत किया और कहा इतने विलंब से आएँगी तो फीका ही स्वागत होगा। बोली, हम क्या करें—अँधेरे के कारण स्टेशन कुछ पहले चले आए थे—वहाँ आकर पता चला कि गाड़ी डेढ़ घंटा लेट है, फिर वह और लेट होती गई और 10 की जगह 1 बजे रात को जंक्शन से छूटी। कई दिन से हमें ज्वर था, पर डाक्टर से प्रार्थना की कि कैसे ही इंजेक्शन देकर इसे दवाइए नहीं तो नगेंद्र का हार्टफ़ेल हो जाएगा। ज्वर तो जैसे-तैसे दब गया, पर तीन घंटे तक स्टेशन पर बैठे रहने से फिर हरारत बढ़ आई है। और सचमुच उन्हें 100 से ऊपर बुख़ार था। मेरे मन ने कृतज्ञता और कलेश दोनों का एक साथ अनुभव किया।

    नियत समय पर मैथिलीशरण गुप्त के व्यक्तित्व और कृतित्व पर महादेवी जी के दो भाषण हुए। विश्वविद्यालय का सबसे बड़ा हाल—नवदीक्षांत-भवन—खचाखच भरा हुआ था दिल्ली की साहित्यिक और हिंदी प्रेमी जनता भारतवर्ष की सर्वाधिक प्रतिभा शालिनी नारी के दर्शन के लिए उमड़ पड़ी थी परंतु वह अपार भीड़ एक विशेष सम्भ्रम की भावना से अनुशासित थी। स्वागत भाषण में जब गार्गी और मैत्रेयी की परंपरा के प्रतिनिधि-रूप में महादेवी जी का अभिनंदन किया गया, तो वाणी तथा व्यवहार में अत्यंत सयत डा० देशमुख ने बड़े आदर के साथ करतल-ध्वनि से उसका समर्थन किया। महादेवी जी ने अपने पहले भाषण में दद्दा के व्यक्तित्व का मार्मिक विश्लेषण किया। प्रतिभा से दीपित उनकी वाणी अत्यंत शांत-स्निग्ध रूप में प्रवाहित हो रही थी। हृदय से उद्भूत भाव सहज रूप में बिंबों पर आरूढ़ होकर वाग्धारा पर तैरते चले जाते थे। तूलिका के बड़े ही सरस कोमल स्पर्शों से उन्होंने स्वर्गीय कवि के जीवन के मार्मिक चित्र अंकित किए, लगा श्रवण-चक्षुओं के सामने दद्दा के जीवन का सुंदर एलबम खुलता जा रहा हो और वह अपार श्रोता-समूह मंत्रमुग्ध होकर उसे कानों से देख रहा हो। सभापति—डॉ० देशमुख—के चेहरे पर गर्व-मिश्रित संतोष का भाव था और जब मैं धन्यवाद प्रस्ताव करने के लिए उठा, तो उन्होंने धीरे-से कहा यह ज़रूर कहना कि रुग्ण होने पर भी हमारा आमंत्रण स्वीकार कर इन्होंने हमें विशेष रूप से उपकृत किया है।—और, फिर, अपने पास बैठे हुए बंगला के प्रोफ़ेसर से अँग्रेज़ी में बोले 'वेरी सेन्सिटिवली पेन्टेड—बड़ा ही मार्मिक चित्रण था। भाषण समाप्त होने के बाद एक मित्र ने कहा कैसा अद्भुत प्रवाह था, लगता था जैसे पूनम की चाँदनी से झलमल गंगा की धारा बह रही हो। मैंने उत्तर दिया आपकी यह उत्प्रेक्षा सुंदर होने पर भी अपूर्ण रही, इसमे शुभ्र स्नेह और स्फीत वाग्धारा के उपमान तो हैं, परंतु वाणी के साथ सहज रूप से गुंफित बिंबावली का उल्लेख नहीं है, यह कहिए कि जैसे पूनम की चाँदनी में झलमल गंगा की धारा फूलों से भरी घाटियों में होकर बह रही हो।

    दूसरा भाषण मैथिलीशरण गुप्त में कृतित्व पर हुआ—अध्यक्ष थे विश्वविद्यालय के प्र- उपकुलपति डा० गांगुलि। इस भाषण में भी शब्द और अर्थ का वैसा ही अपूर्व समारोह था और हम सभी के मन में बार-बार यह विचार रहा था कि कवि के श्रद्धापर्व की इससे सुंदर परिणति संभव नहीं थी। इतने में ही अपने अध्यक्षीय वक्तव्य वा उपसंहार करते हुए डॉ० गांगुलि ने कहा “हमारे धर्म में भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं के पूजन की अलग अलग विधियों है। इनमें गंगा पूजन की पद्धति सबसे विलक्षण है। उसमें बाहर से कोई सामग्री लाने की आवश्यकता नहीं होती, गंगाजल से ही गंगा का अभिषेक कर दिया जाता है। हमने भी वही किया है स्वर्गीय राष्ट्रकवि की वाणी का अर्चन आज हमने उन्हीं में समतुल्य एक दूसरे कवि की वाणी के द्वारा किया है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : महादेवी-संस्मरण-ग्रंथ (पृष्ठ 53)
    • रचनाकार : नगेंद्र
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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