Font by Mehr Nastaliq Web

चराग़ हसन हसरत

charagh hasan hasrat

अल्लामा इक़बाल

अल्लामा इक़बाल

चराग़ हसन हसरत

अल्लामा इक़बाल

और अधिकअल्लामा इक़बाल

    मैक्लोड रोड पर लक्ष्मी इंश्योरेंस कंपनी की इमारत से कुछ आगे सिनेमा है। सिनेमा से इधर एक मकान छोड़ के एक पुरानी कोठी है, जहाँ कुछ आगे आजकल आँखों या दाँतों का कोई डॉक्टर रहता है। किसी ज़माने में अल्लामा इक़बाल यहीं रहा करते थे। चुनाँचे सन् 1930 ई० में यहीं पहली चार उनकी सेवा में उपस्थित होने का गौरव प्राप्त हुआ था। अब भी मैं उस तरफ़ से गुज़रता हूँ तो उस कोठी के निकट पहुँच कर क़दम रुकते मालूम होते हैं और नज़रें अनायास उसकी तरफ़ उठ जाती हैं।

    कोठी अच्छी-ख़ासी थी। सहन भी ख़ासा खुला हुआ। एक तरफ़ नौकर-पेशा के लिए दो-तीन कमरे बने हुए थे, जिनमें अल्लामा इक़बाल के नौकर चाकर अली बख़्श, रहमान, दीवान अली वग़ैरह रहते थे। लेकिन कोठी की दीवारें सीली हुई, प्लस्तर जगह-जगह से उखड़ा हुआ, छतें टूटी-फूटी, मुँडेर की कुछ ईंटें अपनी जगह से इस तरह सरकी हुई थीं कि हर वक़्त मुँडेर के ज़मीन पर आ रहने का भय था। ‘मीर’1 का मकान न सही, पर ‘ग़ालिब’ के बल्लीमारान वाले मकान से मिलता-जुलता नक़्शा ज़रूर था।

    कोठी के सहन में चारपाई बिछी थी। चारपाई पर उजली चादर। उस पर अल्लामा इक़बाल मलमल का कुरता पहने, तहबंद बाँधे, तकिए से टेक लगाए हुक़्का पी रहे थे। सुर्ख़-सफ़ेद रंग, भरा हुआ जिस्म, सिर के बाल कुछ सियाह, कुछ सफ़ेद। दाढ़ी बुटी हुई। चारपाई के सामने कुछ कुर्सियाँ थीं। उन पर दो-तीन आदमी बैठे थे। दो-तीन उठ के जा रहे थे। ‘सालिक’ साहब (उर्दू के मशहूर पत्रकार अब्दुल मजीद ‘सालिक’) मेरे साथ थे। अल्लामा इक़बाल ने पहले उनका मिज़ाज पूछा फिर मेरी ओर ध्यान दिया।

    उन दिनों नमक सत्याग्रह ज़ोरों पर था। डांडी-मार्च की चर्चा जगह-जगह हो रही थी। लाहौर में रोज़ जुलूस निकलते, जलसे होते और ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ के नारे लगते थे। मैंने कभी खादी के कपड़े नहीं पहने थे। पर वह तो खद्दर का आम मौसम था। कुछ आम रिवाज़ का असर कुछ किफ़ायत का ख़याल; मैंने भी खादी पहननी शुरू कर दी। ऐसा लगता है कि अल्लामा इक़बाल का दिमाग़ मेरे खादी के वस्त्रों से चर्ख़े, चर्ख़े से गाँधी जी और गाँधी जी से कांग्रेस की तरफ़ चला गया क्योंकि उस रस्मी परिचय के बाद उन्होंने जो बातें शुरू की तो उसकी लपेट में गाँधी जी, कांग्रेस और अहिंसा–  सब-के-सब आ गए थे।

    विषय शुष्क था पर बीच-बीच में लतीफ़े भी होते जाते थे। मैं तो ‘हूँ’ ‘हाँ’ करके रह जाता था, पर सालिक साहब कब रुकने वाले थे। जहाँ मौक़ा मिलता था, कोई लतीफ़ा, कोई चुटकुला, कोई फब्ती ज़रूर कह देते थे। हम जब गए थे तो सूरज छिपने में कोई आध घंटा बाक़ी था, पर उठे तो अच्छी-ख़ासी रात हो चुकी थी। मुझे लाहौर आए हुए सवा साल से ऊपर हो चुका था, लेकिन अधिक लोगों से संपर्क नहीं था। या अकेला घर में बैठा हूँ या सालिक साहब के यहाँ। हफ़्ते में एक दो बार हकीम फ़क़ीर साहब चिश्ती के यहाँ भी चला जाता था। लेकिन जो अल्लामा इक़बाल की सेवा में पहुँच हो गर्इ तो एक और ठिकाना हाथ आ गया। कुछ दिनों में तो यह हालत हो गया कि अव्वल तो दूसरे-तीसरे, वरना सातवें वे उनकी ख़िदमत में ज़रूर पहुँचता। कभी किसी दोस्त के साथ, कभी अकेला। लेकिन जब जाता था, घंटा दो घंटा ज़रूर बैठता था। कभी-कभी ऐसा होता था कि बारह-बारह बजे तक बराबर महफ़िल जमी है। लोग आ रहे हैं, जा हैं। साहित्य, कविता, राजनीति, धर्म पर बहसें हो रही हैं। लेकिन उन महफ़िलों में सबसे ज़्यादा बातें अल्लामा इक़बाल करते थे। दूसरे लोगों की हैसियत अधिकतर ‘श्रोताओं’ की होती थी। मेरा यह मतलब नहीं कि वे दूसरों को बात करने का मौक़ा नहीं देते थे या बात काट कर बोलना शुरू कर देते थे, बल्कि सच यह है कि हर विषय में उनकी जानकारी दूसरों से अधिक होती थी और उपस्थित लोगों के लिए इसके अतिरिक्त कोई दूसरा चारा न होता था कि चंद जुमले कह कर चुप बैठ रहें।

    उनके मकान के दरवाज़े ग़रीब-अमीर, छोटे-बड़े सव पर खुले थे। न कोई संतरी न दरबान। न मुलाक़ात के लिए कार्ड भिजवाने की ज़रूरत न परिचय के लिए किसी सहारे की आवश्यकता। जो आता है, कुर्सी खींच कर बैठ जाता है और या तो स्वयं अपना परिचय देता है या चुपचाप बैठा बातें सुनता रहता है। अल्लामा इक़बाल बातें करते-करते थोड़ी देर के लिए रुकते हैं तो उसकी तरफ ध्यान देते हैं और पूछते हैं, ‘फ़रमाइए, कहाँ से आना हुआ?’ वह अपना नाम बताता है। कोई ज़रूरत होती है तो बयान कर देता है।

    डॉ० मुहम्मद दीन ‘तासीर’ कहते हैं कि एक रात को मैं डॉ० इक़बाल साहब की सेवा में उपस्थित था। कुछ और लोग भी बैठे थे कि एक आदमी, जिसके सिर के बाल बढ़े हुए थे और कुछ बदहवास मालूम होता था, आया सलाम करके बैठ गया। अल्लाम इक़बाल कुछ देर बाद उसकी ओर आकृष्ट हुए और कहने लगे, “फ़रमाइए, कहाँ से तशरीफ़ लाए?” वह कहने लगा, “यूँ ही, आपसे मिलने चला आया था।” ख़ुदा जाने डॉक्टर इक़बाल  ने उसके चेहरे से मालूम कर लिया कि उसने खाना नहीं खाया, या कोई और बात थी, बहरहाल उन्होंने पूछा, “खाना खाइएगा?” उसने जवाब दिया, “हाँ, खिला दीजिए! ” डॉक्टर इक़बाल ने अली बख़्श को बुला कर कहा, “इन्हें दूसरे कमरे में ले जा कर खाना खिला दो।” यह सुनकर वह कहने लगा, “मैं खाना यहीं खाऊँगा।” ग़रज़ अली बख़्श ने वहीं दस्तरख़्वान बिछा कर उसे खाना खिलाया। वह खाना खा कर भी न उठा और वहीं चुपचाप बैठा रहा। रात अच्छी ख़सी जा चुकी थी, इसलिए मैं उसे वहीं छोड़ कर घर चला आया। दूसरे दिन डॉक्टर साहब की सेवा में पहुँचा तो मैंने सब से पहले यह सवाल किया कि क्यों डॉक्टर साहब, रात जो आदमी आया था, उसका क्या हुआ? कहने लगे, तुम्हारे जाने के बाद मैंने उससे कहा कि अब सो जाइए। लेकिन वह कहने लगा कि आपके कमरे में ही पड़ रहूँगा। चुनूचे अली बख़्श ने मेरे कमरे के दरवाज़े के साथ उसके चारपाई बिछा दी। सुबह-सबेरे उठ कर वह कहीं चला गया।
    उनसे जो लोग मिलने आते थे, उनमें कुछ तो रोज़ के आने वाले थे, कुछ दूसरे-तीसरे और कुछ सातवें-आठवें आते थे। बहुत से लोग ऐसे थे, जिन्हें उम्र भर में सिर्फ़ एक बार उनसे मिलने का मौक़ा मिला। फिर भी उनके यहाँ हर वक़्त मेला-सा लगा रहता था। जब जाओ, दो-तीन आदमी बैठे हैं। कोई सिफ़ारिश कराने आया है; कोई किसी शे’र का अर्थ पूछ रहा है; किसी ने आते ही राजनीतिक बहस छेड़ दी और कोई मज़हब के संबंध में अपनी शंकाएँ बयान कर रहा है।

    अक्सर लोग, जो बाहर के किसी शहर से लाहौर की सैर करने आते थे, उनकी कोठी पर हाज़िर होना अनिवार्य समझते थे। क्योंकि लाहौर आकर अल्लामा डॉक्टर इक़बाल को न देखा तो क्या देखा! ऐसे लोग भी थे, जो उनके नाम के साथ ‘डॉक्टर’ लिखा देख कर उनसे इलाज कराने आ जाते थे। चुनाँचे एक बार एक आदमी उनसे दाँत निकलवाने चला आया था। जब उसे मालूम हुआ कि डॉ० इक़बाल इलाज करना नहीं जानते वह बड़ा हैरान हुआ और कहने लगा कि ये कैसे डॉक्टर हैं, जिन्हें दाँत निकालना भी नहीं आता।

    बहुत से लोग ऐसे भी हैं जिन्हें अल्लामा इक़बाल से मिलने और उनकी बातें सुनने की इच्छा उम्र भर रही, पर उनकी सेवा में उपस्थित होने का साहस न हुआ। इसका कारण यह था कि उन लोगों को अल्लामा इक़बाल के स्वभाव का कुछ भी ज्ञान नहीं था। वे उनकी महानता की चर्चा सुन-सुन कर और उनके नाम के साथ ‘सर’ जैसी रोबदार उपाधि देखकर मन में समझते थे कि उनकी सेवा में हम ऐसे ग़रीब लोगों की पहुँच कहाँ। मेरे एक गहरे दोस्त, जो अल्लामा इक़बाल के बड़े भक्त हैं, उनके स्वर्गवास से कोई दो महीने के बाद मुझसे मिलने आए और जब तक बैठे रहे, उनकी ही चर्चा करते रहे। जब उन्हें मेरी ज़बानी मालूम हुआ कि अल्लामा इक़बाल से हर आदमी मिल सकता था, तो उन्होंने अनायास रोना शुरू कर दिया और कहने लगे, “तुमने मुझे पहले क्यों न बताया। मुझे कई साल से उनकी ख़िदमत में हाज़िर होने की तमन्ना थी, मगर हौसला नहीं पड़ता था। जी में सोचता था कि बग़ैर किसी ज़रिए के कैसे मिलूँ। क्या अजब है कि वो मिलने से इनकार ही कर दें। कई बार इस शौक़ में उनकी कोठी तक गया, मगर अंदर क़दम रखने की हिम्मत न पड़ी। इसलिए बाहर से ही उल्टे पाँव लौट आया...।”

    अल्लामा इक़बाल बहुत सीधी-सादी ज़िंदगी बिताते थे। घर में तो वे हमेशा तहबंद और कुर्ते में नज़र आते थे। हाँ, बाहर निकलते तो कभी कोट पतलून पहन लेते थे। कभी फ़राक कोट के साथ शलवार और तुर्की टोपी होती थी। विलायत जाने से पहले वे पंजाबियों का आम लिबास पहनते थे यानी कभी मशहदी लुंगी के साथ फ़राक कोट और शलवार, कभी सफ़ेद मलमल की पगड़ी। वे शेरवानी और चुस्त घुटन्ना भी पहनते रहे हैं, मगर बहुत कम मैंने इस लिबास में उन्हें देखा तो नहीं, पर अनुमान है कि शेरवानी और चुस्त घुटन्ना उनके जिस्म पर बहुत खिलता होगा।

    वे खाना कम खाते थे, पर हमेशा अच्छा खाते थे। मुद्दत से उनका यह नियम था कि रात को खाना नहीं खाते थे, सिर्फ़ नमकीन कशमीरी चाय पी लिया करते थे। दस्तरख़्वान पर हमेशा दो-तीन सालन ज़रूर होते थे। पुलाव और कबाब उन्हें बहुत पसंद थे। शबदेग2 पकवाते और ख़ुश्के के साथ खाते थे। फलों में सिर्फ़ आमों का चाव था। आमों की फ़सिल में लगन और सीनियाँ भर के बैठ जाते। स्वयं खाते, दोस्तों को खिलाते लतीफ़े कहते, आप हँसते और दूसरों को हँसाते थे।

    जवानी के दिनों में उनका नित्य का नियम था कि सुबह उठ कर नमाज़ पढ़ते, क़ुरान शरीफ़ का पाठ करते, फिर कसरत शुरू कर देते। डँड़ पेलते, मुगदर हिलाते और जब सारा जिस्म पसीने से भीग जाता तब मुगदर हाथ से छूटता। सिन ज़्यादा हो गया तो कसरत छूट गर्इ। हाँ, क़ुरान का पाठ आख़िरी वक़्त तक जारी रहा।

    आमतौर पर पंजाबी बोलते थे। कभी-कभी बातें करते-करते अंग्रेज़ी बोलना भी शुरू कर देते थे। यू० पी० के जो शायर और अदीब उनसे मिलने आते थे, उन्हें इक़बाल के डील-डौल, लब-ओ-लहज़े और बात-चीत के अंदाज़ पर हैरत होती थी, क्योंकि उन लोगों के दिमाग़ में शायर का काल्पनिक रूप कुछ और ही है–  तीखे-तीखे नक़्श, जिस्म धान-पान बल्कि मुश्त-ए-अस्तख़्वान (हड्डियों का ढाँचा), कल्ले में गिलौरी, जिसकी पीक बह-बह कर ठोड़ी तक पहुँची है। सिर पर पट्टे और उन पर दो पल्ली टोपी। बात-बात पर तसलीमात बजा लाता और दोहरा हुआ जाता है। बग़ल में काग़ज़ों का पुलिंदा, जिसमें कुछ अधूरी और कुछ पूरी ग़ज़लें। सामने वाले के मज़ाक़ (सुरुचि) और विचारों का लिहाज़ नहीं करता। जो मिलने आता है, उसे अपना कलाम सुनाना शुरू कर देता है और तब तक चुप नहीं होता, जब तक सुनने वाला उकता नहीं जाता।

    मुझसे यू० पी० के एक मशहूर शायर ने, जो अल्लामा इक़बाल से मिल चुका था, तअज्जुब के अंदाज़ में कहा, “जी साहब! डॉक्टर इक़बाल अपने लब-ओ-लहज़े और डील-डौल से बिलकुल पंजाबी मालूम होते हैं।” गोया उनके नज़दीक अच्छे शायर के लिए ज़रूरी है कि वह अपने लब-ओ-लहज़े और डोल-डौल से पंजाबी मालूम न हो।

    एक बार यू० पी० के एक शायर आए और थोड़ी देर बाद उन्होंने अल्लामा इक़बाल से उनका कलाम सुनने की इच्छा प्रकट की। उन्होंने टालना चाहा। लेकिन आप जानते हैं कि यू० पी० का शायर शे’र सुनने के मामले में हमेशा ‘बे-पनाह’ होता है। उन्होंने अल्लामा इक़बाल के इंकार को शायराना इंकिसार (विनम्रता) समझा और बराबर तक़ाज़ा जारी रखा। जब यूँ काम न निकला तो अपनी एक ग़ज़ल सुनानी शुरू कर दी। अल्लामा इक़बाल कुछ देर तो चुपचाप बैठे सुनते रहे। लेकिन जब देखा कि वो हज़रत कान खाना ही काफ़ी नहीं समझते, बल्कि साथ-ही-साथ दाद भी चाहते हैं तो उनसे न रहा गया। साफ़ कह दिया कि इस क़िस्से को जाने दीजिए। मैं शेर सुनने-सुनाने का क़ायल नहीं। वे थोड़ी देर चुपके बैठे रहे, फिर उठ कर चले गये। पर उनके तेवरों से साफ़ मालूम होता था कि यहाँ से निकलते ही हत्या कर लेंगे। और इस मामले में वे सही भी थे। उन्हें निश्चय ही उम्र भर में इस क़िस्म के शायर से वास्ता न पड़ा होगा। जी में कहते होंगे, ये कैसे शायर हैं, जो न शे’र सुनाते हैं, न सुनते हैं। न दाद लेने का शौक़, न दाद देने का सलीक़ा।

    अल्लामा इक़बाल जवानी में कभी-कभार मुशायरों में भी शरीक हो जाते थे, लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता उन्हें इस क़िस्म के जमघटों से नफ़रत सी हो गर्इ। एक दिन मुशायरों का ज़िक्र आ गया तो फ़रमाया, “उर्दू शायरी को इन मुशायरों ने खोया।” मैंने पूछा, “वो कैसे?” कहने लगे “मुशायरों में बुरे-भले सब शरीक होते हैं और दाद को शे’र की अच्छाई और बुराई की कसौटी समझा जाता है। इसका नतीजा यह हुआ कि उर्दू शायरी ने अवाम (जनसाधारण) के मज़ाक को अपना रहनुमा (पथ-पदर्शक) बना लिया।” मैंने अर्ज़ किया, “इन मुशायरों ने तो उर्दू ज़बान को बहुत फ़ायदा पहुँचाया है।” फ़रमाया, “ज़बान को फ़ायदा पहुँचाया और शायरी को ग़ारत कर डॉला।”

    अल्लामा इक़बाल की तबिअत बड़ी विनोद-प्रिय थी शुष्क दार्शनिक विषयों को भी वे लतीफ़ों और फब्तियों से ऐसा दिलचस्प बना देते थे कि जो चाहता था, पहरों बैठे उनकी बातें सुनते रहें। यूँ तो हर रोज़ दो-तीन लतीफ़े हो जाया करते थे, लेकिन जो फब्तियाँ उन्होंने सर शहाबुद्दीन पर कही हैं, उन्हें ऐतिहासिक महत्व प्राप्त हो गया है। ऐसा लगता है मानो उन्हें देख कर अल्लामा इक़बाल को लतीफ़ों और फब्तियों के सिवा और कुछ नहीं सूझता था। सर शहाबुद्दीन का रंग बेहद काला था। एक बार वे काला सूट पहन कर असेंबली में आए। अल्लामा इक़बाल ने उन्हें देखा तो हँस के फ़रमाया, “चौधरी साहब! आज तो आप नंगे ही चले आए।”

    चौधरी साहब ने ग़ौर किया तो मालूम हुआ कि वस्त्रों के चुनाव में उन्होंने सचमुच भूल की है। काले रंग पर काला कोट सचमुच भला नहीं लगता। लोगों को यह जानने में कठिनाई होती है कि कोट का कालर कहाँ है और ठोढ़ी कहाँ? यह सोच कर काले सूट की बजाए सफ़ेद सूट पहनना शुरू कर दिया। सफ़ेद पतलून, सफ़ेद कोट, सफ़ेद क़मीज़, सफ़ेद पगड़ी। चूँकि वे खुद भी पंजाबी के शायर थे, इस लिए सफ़ेद सूट पहन कर समझ लिया कि कोई आपत्ति नहीं कर सकता। सफ़ेद लिबास में काला चेहरा इसी तरह मालूम होगा जैसे गोरे गालों पर काला तिल। और माशूक़ के गाल के तिल की तारीफ़ में तो शायरों ने दीवान के दीवान लिख मारे हैं। अल्लामा इक़बाल ने उन्हें नए रूप में देखा तो सिर से पाँव तक एक नज़र डॉली और अनायास हँस पड़े। चौधरी साहब ने झुँझला कर पूछा, “आप हँसते क्यों हैं?” अल्लामा इक़बाल ने कहा, “मैं देख रहा हूँ कि ये आप हैं या कपास के खेत में अरना भैंस।”

    एक बार फिर ऐसे ही एक मौक़े पर उन्होंने बुझे हुए सिग्रेट की फब्ती कही थी।

    एक बार बेतकल्लुफ़ दोस्तों की सोहबत में बैठे बातें कर रहे थे कि चौधरी शहाबुद्दीन की बात छिड़ गर्इ। कहने लगे, “मैंने ख़्वाब की हालत में एक बुढ़िया देखी, जो स्टेशन की तरफ़ जा रही थी। मैंने पूछा, तू कौन है? कहने लगी, मैं ताऊन हूँ। मैंने पूछा, तो भाग कर कहाँ जा रही है? कहने लगी, मैं शहर की तरफ़ जाना चाहती थी। लेकिन वहाँ शहाबुद्दीन पहले ही मौजूद है। मेरी क्या ज़रूरत रह गई?”

    एक दिन सर शहाबुद्दीन से कहने लगे, “चौधरी साहब! आप सच्चे मुसलमान हैं।” चौधरी साहब ने पूछा, “आपको कैसे मालूम हुआ?” कहने लगे, “मुसलमान की पहचान यह है कि वह अंदर और बाहर से एक-सा होता है और ख़ुदा का शुक्र है कि आप भी बाहर और अंदर से बिलकुल एक-से हैं।”

    इस क़िस्म के लतीफ़े, जो सिर्फ़ चौधरी सर शहाबुद्दीन से संबंध रखते हैं, हज़ारों नहीं तो कम-से-कम सैकड़ों ज़रूर हैं। लेकिन मुसीबत यह है कि अल्लामा इक़बाल अल्लाह को प्यारे हो गए और चौधरी साहब नहीं। दूसरे लोगों को जो लतीफ़े याद रह गए हैं, उनमें से कुछ हाज़िर हैं। कुछ और भी हैं, लेकिन उन्हें इस लिए नहीं लिखता कि मैं ताज़ीरात-ए-हिंद और ज़ाब्ता दीवानी दोनों से बहुत डरता हूँ। ताज़ीरात-ए-हिंद तो ख़ैर कुछ ज़्यादा डरने की चीज़ नहीं, लेकिन ज़ाब्ता दीवानी की पकड़ में आने के लिए ज़रा जेब में ‘ज़ोर’ होना चाहिए। क्योंकि मुझे डिगरी और क़ुर्क़ी से बहुत डर लगता है।

    मैं पहले बता चुका हूँ कि अल्लामा इक़बाल से हर क़िस्म के लोग मिलने आते थे और वे सब की बातें ग़ौर से सुनते और उनका जवाब देते थे। दूसरे-तीसरे कॉलेजों के कुछ विद्यार्थी भी आ जाते थे। उनमें से कोई उनके शेरों के अर्थ पूछता था, कोई मज़हब के बारे में सवाल करता था, कोई फलसफ़े की बहस ले बैठता था। एक बार गवर्नमेंट कॉलेज के चार-पाँच विद्यार्थी उनके पास आए जानते हैं कि कॉलेज के लड़कों में बनने सँवरने का शौक़ ज़्यादा है, पौडर और सुर्ख़ी का इस्तेमाल दिन-पर-दिन बढ़ता जाता है। अबरुओं को ख़म देने, ज़ुल्फ़ों में बल डॉलने, गालों या होंठों पर सुर्ख़ी लगाने का शौक़ बढ़ता जा रहा है। एक तो ये चारों पाँचों ख़ूबसूरत और नाज़ुक बदन, उस पर बनाव-सिगार का ख़ास आयोजन। उन्होंने आते ही पर्दे की बहस छेड़ दी और एक नौजवान कहने लगा, “डॉक्टर साहब, मुसलमानों को पर्दा उठा देना चाहिए।”

    डॉ० साहब मुस्कुरा कर बोले, “आप औरतों को पर्दे से निकालना चाहते हैं और मैं इस फ़िक्र में हूँ कि कॉलेज के नौजवानों को भी पर्दे में बिठा दिया जाए।”

    अली बख़्श उनका पुराना नौकर था और कोई चालीस साल तक बराबर उनके साथ रहा। नौकरी शुरू की तो रेखें भी नहीं निकली थीं। अब डॉढ़ी मूँछे सफ़ेद हो चुकी थीं। दाढ़ी तो ख़ैर मुँड़वा दी और पर्दा ढक गया। मूँछों में ख़िज़ाब लगाया। पर चंद दिनों में ख़िज़ाब उड़ गया और मूँछों का रंग कुछ अजीब-सा हो गया। सर इक़वाल के देहांत से एक दो महीने पहले की बात है कि वे तकिए से टेक लगाए बैठे थे। इर्द-गिर्द कुछ बे-तकल्लुफ़ दोस्त बैठे थे। अली बख़्श पास में खड़ा था कि उसकी मूँछों के रंग की बात छिड़ गर्इ। एक साहब कहने लगे, “यह बात हमारी समझ में नहीं आर्इ कि आख़िर अली बख़्श की मूँछों की रंगत क्या है?” दूसरे बोले, “ख़ाकिस्तरी! ” एक और साहब ने कहा, “ख़ाकिस्तरी नहीं, अगरर्इ।” डॉ० साहब भी सुन रहे थे। मुस्कुरा कर बोले, “न अगरई न ख़ाकिस्तरी−मुछर्इ कहो मुछई।”

    अल्लामा इक़बाल के मिलने वालों में दो शख़्स बहुत दिलचस्प थे। मौलाना गिरामी जालंधरी और अब्दुल्लाह चग़ताई। गिरामी होशियार पुर के रहने वाले और फ़ारसी के बहुत बड़े शायर थे। लेकिन उनकी सूरत-शक्ल, चेहरे-मुहरे से ज़रा भी न लगता था कि मेधावी या बुद्धिजीवी हैं। सिर पर बड़ा पग्गड़, जिसके पेच खुले हुए। बड़े-बड़े हाथ-पाँव। हाथ में डंडा लिए रहते। अल्लामा इक़बाल से उन्हें सच्ची मोहब्बत थी। लाहौर आते थे तो महीनों उनके ही यहाँ रहते थे। कभी वे देर तक न आते थे तो अल्लामा इक़बाल उन्हें ख़ुद बुलवा भेजते थे। एक बार मालूम हुआ कि गिरामी जालंधर आए हुए हैं। डॉक्टर इक़बाल ने अली बख़्श को जालंधर भेजा कि गिरामी को लेकर आओ। गिरामी ने उसे देख कर कहा, “अली बख़्श तुम कहाँ?” उसने कहा, “आपको लेने आया हूँ।” वे बोले, “मैं तो ख़ुद लाहौर चलने की तैयारी कर रहा हूँ।...अरे कोई है? ताँगा लाओ! स्टेशन तक जाएँगे। अच्छा सा ताँगा हो। लाहौर जा रहे हैं लाहौर। वक़्त प स्टेशन पहुँच जाए।”

    ताँगा आया और ताँगे वाले ने उसे धूप में खड़ा कर दिया। थोड़ी देर में मौलाना गिरामी घर से निकले और पिछली सीट पर बैठ गए। क्षण भर बैठ कर उतर गए और बख़्श से कहने लगे, “तुम लाहौर चले जाओ। मैं नहीं जाता।”

    उसने पूछा, “वह क्यों!”

    कहने लगे, “ताँगा गर्म हो गया है। डॉक्टर को मेरा बहुत बहुत सलाम कहना और कह देना, ताँगा गर्म हो गया था, इसलिए नहीं थे। अगले महीने आएँगे, अगले महीने हाँ, यह ज़रूर कह देना कि ताँगा गर्म हो गया था।”

    गिरामी के लतीफ़े तो बे-गिनती हैं, लेकिन इस ख़याल से नहीं लिखता कि यह मज़मून कहीं ‘गिरामी के लतीफ़े’ बन कर न रह जाए। अब्दुल्लाह चग़ताई गिरामी को नहीं पहुँचते। वैसे वे भी अपने अंदाज़ के एक ही बुज़ुर्ग हैं। जितना तेज़ बोलते हैं उतना ही तेज़ चलते हैं। और लिखने में बोलने और चलने दोनों से तेज़। प्राधा वाक्य दिमाग़ में है, आधा काग़ज़ पर। यही कारण है कि उनकी नस्र (गद्य) ‘ग़ालिब’ और ‘बेदिल’ (फ़ारसी के मशहूर शायर) की नज़्म (पद्य) से ज़्यादा मुश्किल होती है। डॉ० इक़बाल उन्हें छेड़-छेड़ कर उनकी बातें सुनते और मज़ा लेते थे।

    डॉ० इक़बाल ज़िंदगी के कुछ मामलों में ख़ास क़ायदों के पाबंद थे वे घर का सारा हिसाब-किताब बाक़ायदा रखते थे और हर आदमी के ख़त का जवाब ज़रूर देते थे। लेकिन यह अजीब बात है कि कोई आदमी उनसे कोई सनद या किसी रचना पर उनकी राय लेने आता था तो कहते थे—ख़ुद लिख लाओ। मैं दस्तख़त कर दूँगा। और यह बात महज़ टालने को नहीं कहते थे, बल्कि जो कुछ कोई लिख लाता था, उस पर दस्तख़त कर देते थे। उनकी तबिअत में बला की आमद थी। एक एक बैठक में दो-दो सौ शे’र लिख जाते थे। पलँग के पास एक तिपाई पर पेंसिल और काग़ज़ पड़ा रहता था। जब शेर कहने पर तबिअत आती थी तब लिखना शुरू कर देते थे कभी ख़ुद लिखते थे, कभी किसी को लिखवा देते थे। रसूल की मोहब्बत ने उनके दिल को पवित्र बना रखा था। मुहम्मद साहब का नाम लेते वक़्त उनकी आँखें भीग जाती थीं और क़ुरान पढ़ते-पढ़ते अनायास रो पड़ते थे। कहने का मतलब यह कि उनका व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक था। जिन लोगों ने सिर्फ़ उनका कलाम पढ़ा है और उनसे मिले नहीं, वे इक़बाल के कमालों से बेख़बर हैं।

    मौत से कोई ढाई साल पहले वे मेओ रोड पर अपनी नर्इ बनी कोठी में उठ गए थे। वहाँ गए अभी थोड़े दिन हुए थे कि उनकी बेगम साहबा का देहांह हो गया। उन्हें इस घटना का बहुत दुख हुआ। मैंने उस हालत में उन्हें देखा कि बेगम की क़ब्र खोदी जा रही है और वे माथे पर हाथ रखे पास ही बैठे हैं। उस वक़्त वे बहुत बूढ़े मालूम हो रहे थे। कमर झुकी हुई थी और चेहरा पीला पड़ गया था। उस घटना के बाद उनका स्वास्थ्य बिगड़ता चला गया। आख़िर 21 सन् 1937 ई० को देहांत हुआ और शाही मसजिद के बाहर दफ़्न हुए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : उर्दू के बेहतरीन संस्मरण (पृष्ठ 74)
    • संपादक : अश्क
    • रचनाकार : अल्लामा इक़बाल
    • प्रकाशन : नीलाभ प्रकाशन
    • संस्करण : 1862

    संबंधित विषय

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली

    टिकट ख़रीदिए