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किशोरीलाल गोस्वामी

kishorilal goswami

बनारसीदास चतुर्वेदी

बनारसीदास चतुर्वेदी

किशोरीलाल गोस्वामी

बनारसीदास चतुर्वेदी

और अधिकबनारसीदास चतुर्वेदी

    स्वर्गीय गोस्वामीजी के दर्शन करने का सौभाग्य मुझे तीन बार प्राप्त हुआ था, पहली बार तो सन 1927 में हिंदी-साहित्य सम्मेलन के इंदौर वाले अधिवेशन के पूर्व, दूसरी बार वृंदावन के सम्मेलन पर और तीसरी बार काशी में आज से चार पाँच वर्ष पूर्व। इन तीन अवसरों पर मैंने उन्हें भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में देखा। इंदौर सम्मेलन में साहित्य-विभाग के मंत्री की हैसियत से मैं लेख माँगने के लिए उनकी सेवा में वृंदावन पहुँचा था। ऊपर के विस्तृत कमरे में बैठे हुए थे। चारों ओर किताबों के ढेर लगे हुए थे। कहीं कुछ छपे-छपाए फ़ार्म रखे हुए थे, कहीं वी०पी० पार्सल डाकख़ाने जाने के लिए तैयार थे, प्रेस से प्रूफ़ देखने के लिए रहे थे और गोस्वामी जी के सुपुत्र छबीलेलालजी की कहानियों की किताब छप रही थी, ग़रज़ यह कि काम बड़े ज़ोरों के साथ चल रहा था। उस समय तक श्री छबीलेलालजी के सिर पर हुव्व्लवतनी का जिन सवार नही हुआ था और वे शुद्ध साहित्यिक जीव थे। गोस्वामी जी उस समय साधन संपन्न थे, और उनकी बातचीत में उत्साह था। अपने पिछले तीस वर्ष के अनुभव की उन्होंने कितनी ही बातें सुनाई। ग्रियसर्न साहब से उनका जो पत्र-व्यवहार तथा परिचय हुआ था, उसका ज़िक्र किया और अपनी एक छोटी-सी पुस्तक उस समय की छपी हुई दिखलाई, जब हमारा जन्म भी नही हुआ था! गोस्वामीजी की किसी पुस्तक का अनुवाद मराठी में हुआ था, उसका भी उन्होंने ज़िक्र किया। उन दिनों भी गोस्वामीजी को इस बात की कुछ शिकायत थी कि हिंदी-संस्थाएँ उनके साथ यथोचित व्यवहार नही करती। साहित्यिक प्रदर्शनियों पर वे बराबर अपनी किताबें भेजा करते थे, पर वे कहीं से वापस नही आती थी! अपने साहित्यिकों का सम्मान करना तो हिंदी वाले जानते ही नही, इस बात का भी गोस्वामीजी ने प्रसंगवश ज़िक्र किया था। गोस्वामी जी के यहाँ से मैं प्रभावित होकर लौटा। ह्रदय में इच्छा हुई कि यदि मैं भी इसी तरह का लेखक होता तो कैसा अच्छा होता।

    वृंदावन सम्मेलन के अवसर पर गोस्वामी जी काशी से पधारे थे। कवि-सम्मेलन में उन्होंने बड़े उत्साह से भाग लिया था, और उनके पुत्र श्री छबीलेलालजी ने इधर-उधर घूम-घूमकर सम्मेलन की सफलता के लिए प्रयत्न किया था। गोस्वामीजी में पुराने उत्साह की झलक बाकी थी, यदपि छबीलेलाल की लीडरी उन्हें बहुत महँगी पड़ी थी। श्री बालकृष्ण शर्मा नवीन ने प्रताप में एक बार मज़ेदार रसिया छपवाया था। जिसका प्रारंभ इस प्रकार होता था:--

    “हुब्वलवतनी को मरोरा छोरा ले डारैगो तोहि हुब्वलवतनी को मरोरा।”

    श्री छबीले लाल जी ने अपने पिताजी के प्रकाशन कार्य को नितांत उपेक्षा की द्रष्टि से देखा था। आवश्यकता इस बात की थी कि प्रेस की उन्नति करके उनके ग्रंथ नए आकर प्रकार से छुपाए जाते और उनकी बिक्री का उचित प्रबंध होता, पर छबीलेलालजी व्याख्यानबाज़ी में लगे हुए थे। परिणाम यह हुआ कि बाज़ार में छबीलेलालजी का मोल बढ़ गया, लेकिन उनके पिताजी की पुस्तकों का मोल घट गया। इधर जनता की रूचि में भी परिवर्तन हो रहा था। इन सब परिस्थितियों ने मिलकर श्री गोस्वामी जी की आर्थिक स्थिति पर ज़बरदस्त प्रभाव डाला था, फिर भी उन्होंने गंभीरतापूर्वक सब कुछ सहन किया था, और उनकी ज़िंदादिली में किसी तरह का अंतर नही पड़ा था।

    काशी में पिछली बार जब मैंने उनके दर्शन किए, उस समय उनमे स्फूर्ति बहुत कम रह गई थी। बढ़ती हुई उम्र का तकाज़ा था, गृहस्थी की परेशानियाँ थी, साथ ही यह पछतावा भी था छबीलेलालजी ने साहित्य सेवा सदा के लिए मुँह मोड़ लिया था। बड़े ख़ेदपूर्वक उन्होंने कहा भी, “छबीलेलाल अच्छी कहानियाँ लिखने लग गया था, पर उसने राजनीतिक झंझटो में पड़कर सारा साहित्यिक काम चौपट कर दिया।”

    इस समय गोस्वामी जी बातों से यह ख़ेदजनक ध्वनि और भी स्पष्टतया निकलती थी कि हिंदी जनता ने उनका यथोचित सम्मान नहीं किया। उनसे जूनियर आदमी सम्मानित हो चुके थे, और उनका किसी ने नाम भी नहीं लिया था। पर गोस्वामीजी मौजी आदमी थे, शिकायत के निरुत्साहप्रद वायुमंडल में अधिक देर साँस लेना उन्हें नापसंद था, और उनकी ज़िंदादिली की पुरानी स्पिरिट अब भी बाक़ी थी। उन्होंने शृंगार रसकी कई कविताएँ सुनाई, जिनसे एक का नाम था ‘बारेकी नारि’ या बालक की वनिता’। कविता प्रारंभ इस प्रकार होता था।

    “निज बालम बारे निहारि अली मन मेरो हमेस पियासो रहे।”

    चारों चरणों के अंत में ‘पियासो रहे’ भिन्न-भिन्न अर्थों में आया था। शृंगार रस के बाद आपने अपनी लिखी उर्दू की कुछ ग़ज़लें सुनाई।

    हो जवाँमर्द डर करके छिपो अंदर यों,

    बढ़के दो हाथ चला डालो खंजर बाहर।

    जो जवाँमर्द हैं मरने से नहीं डरते वह,

    आबरू रखते हैं दुश्मन से निबटकर बाहर।

    जिनको जोरू के लहँगे में जगह मिलती थी,

    वह भी मुरदार, बने आज है लीडर बाहर।

    देखते घर में तमाशा हैं लड़ाने वाले,

    लड़ रहे शौक़ से हैं ख़ास बिरादर बाहर।

    हिंदी की आबरू तुमसे रहेगी यारो,

    घर में बैठे हुए फेंका करो पत्थर बाहर।

    तत्पश्चात् अपना पद सुनाया—

    श्री हरि अपनी ओर निहारु।

    कामी कुटिल पातकी दुर्जन जानि मोहि बिसारहु

    कोटि कोटि खल जैसे तारे तैसेहि मोहि उबारहु

    रसिक किसोरी सरनागत लखि अब करुणा करि तारहु।

    इसके बाद गोस्वामी जी अपनी एक पुरानी नोट बुक ले आए, और उसमे से कितने ही मनोरंजक कवित्त और किस्से सुनाने लगे। उन्होंने बतलाया कि एक बार हिंदी और उर्दू के विषय में स्वामी दयानंद सरस्वती, भारतेंदु हरिश्चंद्र, श्री बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’, श्री राधाचरण गोस्वामी, श्री प्रतापनारायण मिश्र और पंडित बालकृष्ण भट्ट ने एक एक पद्य कहा था। पद्य मुझे पसंद आए, और मैंने उसी वक़्त उन्हें अपनी नोटबुक में दर्ज़ कर लिया। आप भी सुन लीजिए।

    बभूवतुस्ते ब्रजभूमि द्वे सुते

    स्वजन्मबीजेन विभिन्नमार्गे।

    तयोस्तु हिंदीकुलकामिनी वरा

    कनिष्टिकोर्दु कथिता विलासिनी।

    --स्वामी दयानंद

    सब गुन ले हिंदी भई ब्रजभाषा के कोष

    तापर जो उरदू भई, सो गुन रहित सदोष।

    --भारतेंदु हरिश्चंद्र

    हुई सैकड़ों ब्रजभाषा की यद्यपि बिटिया ललित ललाम

    पर उन सबमें हिंदी और उर्दू ने ही पाया नाम।

    --बद्रीनारायण चौधरी, ‘प्रेमघन’

    द्वे सुते ब्रजभाषाया हिंदी चोर्दु बभूवतु:

    आद्य वरांगना चान्त्या ख्याता वारांगना भुवि।

    --राधाचरण गोस्वामी

    है बड़ी हिंदी उर्दू उसकी छोटी बहन है

    आई ब्रजभाषा से दोनों यह बड़ो की कहन है।

    --प्रतापनारायण मिश्र

    दुई बिटियाँ ब्रजभाषा की हैं हिंदी उर्दू सुंदर नार

    जेठी महलन में है पैठी लौहरी बैठी जय बजार।

    --बालकृष्ण भट्ट

    कई घंटे तक गोस्वामी जी के सत्संग का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मन में इच्छा भी हुई कि कई दिन तक उनकी सेवा में बिताकर पुरानी बातों के नोट ले लूँ, पर अपनी दीर्घसूत्रतावश वैसा कर सका। इस अवसर पर मुझे यह बात स्वीकार करनी पड़ेगी कि गोस्वामी जी के काशीवाले घर से मैं उस प्रकार के उत्साह के भाव सन् 1917 में उनके वृंदावन वाले कार्यालय से लेकर लौटा था। इसके कई कारण हो सकते हैं। संभवतः मेरी मनोवृत्ति ही परिवर्तन हो गया था, अथवा संकटग्रस्त होने के कारण उनके व्यक्तित्व को निरंतर प्रभावोत्पादक बनाए रखने के लिए तप और त्याग, निश्चित अवकाश तथा आर्थिक सुविधा की नितांत आवश्यकता होती है और संभवतः विकट परिस्थितियों ने गोस्वामी जी के लिए उतना अवसर ही छोड़ा था कि वे अपने व्यक्तित्व को विशेष आकर्षक बनाए रखते। आर्थिक संकट व्यक्तित्व का कितना बड़ा विघातक है, इसका अनुमान मुक्तभोगी ही कर सकते हैं। पर किसी भी हालत में वे उस उपेक्षा के योग्य थे, जो उनकी ओर प्रदर्शित की गई थी। मरने के कुछ घंटे पहले उन्होंने श्री छबीलेलालजी से कहा था—

    “तुम्हें इस बात पर आश्चर्य और दुःख है कि मेरी बीमारी में काशी का कोई भी हिंदी-साहित्य सेवी देखने सुनने नहीं आया, पर मैं इसे ईश्वर का अनुग्रह समझता हूँ और चाहता हूँ कि मेरे अंत समय तक कोई भी आने की कृपा करे। निर्वात-निष्कम्पमिव प्रदीप के समान मैंने आजीवन आँधी तूफ़ान को देखा। जो कुछ कहा सुना गया, उसे शांति से सहन किया, और अब अंतिम समय भी उस शांति में विघ्न हो, यही चाहता हूँ। जगदीश्वर यहाँ के साहित्यसेवियों की मति ठीक रखें, और वे मुझपर अनुग्रह प्रकाश करने की उदारता करें।”

    ‘आज’ में बीमारी की सूचना छपने पर मुझे आशा थी कि कुछ लोग अवश्य आएँगे”, छबीलेलालजी ने कहा।

    “तुमने कभी संसार को पहचाना और पहचान ही सकोगे। इस चर्चा को बंद करो। इस समय केवल गीता के कृष्ण की चर्चा करो।” गोस्वामीजी ने कहा।

    गोस्वामीजी ने अपने समय में मात्रभाषा के लिए जो कार्य किया था, वह वास्तव में महत्वपूर्ण था, और यद्यपि समय की गति उन्हें पीछे छोड़ गई थी, तथापि वे अपने ढंग के निराले आदमी थे, और उनकी सेवाओं को भूल जाना घोर कृतघ्नता की बात होगी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : संस्मरण (पृष्ठ 166)
    • संपादक : लक्ष्मीचंद्र जैन
    • रचनाकार : बनारसीदास चतुर्वेदी
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसी
    • संस्करण : 1958

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