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गांधी के मोती

gandhi ke moti

महावीर त्यागी

महावीर त्यागी

गांधी के मोती

महावीर त्यागी

सन् 1921 का आंदोलन ढलाव पर था। लोग सज़ाएँ काट कर जेलों से छूट रहे थे। अँग्रेज़ों की चिढ़ बनी थी। पर जनता की उत्तेजना शांत हो पाई थी। बिना विध्वंस किए यह शांत हुआ नहीं करती।

ख़िलाफ़त के दिनों हिंदू-मुसलमानों में दूध-शक्कर की जैसी एकता थी। आंदोलन का ठंडा पड़ना था कि फूट पड़ गई। हिंदुओं ने 'शुद्धि' और मुसलमानों ने 'तबलीग' शुरू कर दी। बस होने लगे बलवे। हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग की बन आयी। विदेशी सरकार को मनचाही हो गई। और काँग्रेसमैन का बाज़ार भाव गिरने लगा।

इन्ही दिनों काँग्रेस के अध्यक्ष मौलाना मुहम्मद अली ने एक स्पीच में कहा: मैं एक फ़ाज़िर और फ़ासिक़ मुसलमान को भी महात्मा गांधी से अच्छा मानता हूँ। बस पंजाब के हिंदू अख़बार बौखला उठे और जो साबित क़दम हिंदू थे उन के भी पैर उखड़ने लगे।

मैं ऑल इंडिया काँग्रेस कमेटी का सदस्य था और पं० जवाहरलाल नेहरू सेक्रेटरी। काँग्रेस अध्यक्ष की यह तकरीर असहनीय हो गई। मैंने अविश्वास का प्रस्ताव भेज दिया और श्री नरदेव शास्त्री ने उस पर अनुमोदन के हस्ताक्षर कर दिए।

ए० आई० सी० सी० की बैठक अहमदाबाद में बुलाई गई। काँग्रेस के इतिहास में यह बैठक अमर रहेगी। महात्मा गांधी जेल से छूट कर पहली बार इस अधिवेशन में आए थे। उन के पीछे प० मोतीलाल, देशबंधु दास आदि ने मिलकर एक छानबीन कमेटी द्वारा यह सिफ़ारिश कर दी थी कि कौंसिलो का बाइकाट हटा लेना चाहिए और काँग्रेस को कौंसिलो के अंदर से आंदोलन चलाना चाहिए। इस प्रश्न पर काँग्रेस दो हिस्सों में बँटी हुई थी।

क्रांतिकारी दल ने भी इस बीच पंजाब और बंगाल की ओर अपनी सुट-पुट कर दी थी। इसी सिलसिले में शहीद गोपीनीय साहा को फाँसी हो गई थी। क्रांतिकारी दल ने नागपुर काँग्रेस में महात्मा गांधी को वचन दे दिया था कि उनके असह‌योग आंदोलन को खुला अवसर देंगे और इस बीच बम आदि चलाना बंद रहेगा। फिर भी कुछ नवयुवक ऐसे थे कि जो अँग्रेज़ो सरकार के ज़ुल्म को सहन कर सके। श्री साहा भी उन्हीं में से एक थे। कलकत्ते का पुलिस कमिश्नर सर चार्ल्स टेगर्ट क्रांतिकारी दल के पीछे पड़ा हुआ था। श्री साहा ने उसे गोली से मारने का निश्चय किया। पर धोखे में एक मिस्टरडे को मार दिया। गोपीनाथ को फाँसी हो गई।

देशबंधु दास ने एक प्रस्ताव गोपीनाथ साहा के साहस पर बधाई देने का पेश कर दिया। महात्मा गांधी उस से सहमत नहीं थे। प्रस्ताव पर बहस होने से पहले मौलाना मुहम्मद अली ने कहा, सब से पहले मेरी तक़दीर का फ़ैसला हो जाना चाहिए। और मुझे आवाज़ लगा दी। अविश्वास का प्रस्ताव पेश करो। मैं 24 वर्ष का युवक। खूँटा-सा प्लेटफ़ॉर्म पर जा खड़ा हुआ। मिस्टर प्रेसिडेंट एंड जेंटिलमैन कहते ही गांधी जी ने मुहम्मद अली से इजाज़त चाही, प्रस्ताव से पहले मुझे दो मिनट प्रस्तावक से बात करने का मौक़ा होना चाहिए। मौलाना ने ज़ोर से कहा, आर्डर, आर्डर। पहले प्रस्ताव का फ़ैसला होगा, फिर दूसरी बात।

महात्मा जी को चुप करना कठिन था। उन्होंने मुझ से कहा, तुम्हें तो मुझ से बात करने में एतराज नई है। मैं ने कहा, नही! तो ज़ोर से हँसते हुए बापू ने कहा, जब मैं और वो राजी तो बीच में क्यो बोलता काजी। सारी सभा हँसी से गूँज उठी। मैं फट से गांधी जी के पास जा बैठा।

बापू यह प्रस्ताव तो ठीक नई है। मौलाना ने इस में किसी और को तो कुछ कहा नई। महात्मा गांधी से 'फ़ाज़िर फ़ासिक' मुसलमान को अच्छा समझने की बात है। उस में कोई गाली तो नई है गाली का साबूत तो उस के लगना ठैरा। गांधी तो उस का लगना स्वीकार नई करता। फिर तो वह खलास हो गई।

मैं ने उत्तर दिया, महात्मा गांधी से कोई संबंध नहीं है। इस तकरीर के अनुसार 'राष्ट्रपति' को निगाह में एक गुंडा बदमाश मुसलमान भी दूसरे संप्रदाय के श्रेष्ठतम व्यक्ति से ऊँचा है। आजकल जगह-जगह हिंदू-मुसलमान के दंगे हो रहे है, ऐसी तकरीर जलती हुई आग में पेट्रोल का काम करेगी!

गांधी तुम्हें इस प्रस्ताव के पास हो जाने की आशा है? कितना वोट मिलेगा?

मैंने कहा, दो वोट तो पक्के हैं। पास हो या हो, कम से कम यह तो रिकार्ड पर जाएगा कि काँग्रेस के अध्यक्ष की तकरीर पर कुछ लोगों को आपत्ति थी।

गांधी जी : ऐसी बात लाने से काँग्रेस का रिकार्ड अच्छा होने की बजाए काला बनेगा। हिंदू-मुसलमान को साथ रखना है तो एक-दूसरे की कमज़ोरी को निभाना पड़ेगा। यह प्रस्ताव ठीक नहीं है! मैंने उत्तर दिया, अब वापस तो नहीं करूँगा, बापू!

बापू ने मेरे उठने से पहले कहा, अच्छा तुम्हारी ख़ुशी। पर एक बात का जवाब लूँगा। तुम अक़्लमंद हो या महात्मा गांधी?

मैंने कहा, महात्मा गांधी।

बापू बोले, फिर तो हो गया, एक बेवक़ूफ़ को अक़्लमंद की बात मान्य होगी, यह दलील तो तुम को पसंद आई होगी। वो तो मैं पहले से जानता था। बेवक़ूफ़ को अक़्ल की दलील नही बेवक़ूफ़ी की दलील पसंद आती है अब तो वापस लोगे?

क्या बोलता? प्रस्ताव वापस ले लिया।

देशबंधु दास और पंडित मोतीलाल नेहरू ने गोपीनाथ साहा की देशभक्ति, साहस और त्याग की सराहना का प्रस्ताव पेश कर दिया था। महात्मा गांधी ने उस का विरोध किया। पर कुछ देर के वाद-विवाद के बाद यह प्रस्ताव पास हो गया। फिर एक दूसरे प्रस्ताव के सिलसिले में मतभेद हो गया। प्रश्न था कि दीवानी के मामले में कचहरी का बायकाट उठा लिया जाए। देशबंधु दास, पंडित मोतीलाल नेहरू और उन की पार्टी वोट लेने से पहले ही बाहर चली गई। वोट में गांधी जी के पक्ष की विजय हुई।

पर गांधी पर देशबंधु दास आदि के बाहर चले जाने का गहरा असर पड़ा। उन्होंने कहा, गोकि प्रस्ताव अस्वीकृत हो गया, पर रिकार्ड में इस को स्वीकृत समझा जाना चाहिए। इस पर डॉ० चोइथराम गिडवानी ने अपना पाइंट आफ़ ऑर्डर पेश करते हुए कहा, किस क़ायदे किस क़ानून से 'अस्वीकृत' प्रस्ताव को 'स्वीकृत' लिखा जा सकता है। जितने सदस्य बैठक छोड़कर बाहर चले गए हैं, उन सब की राय प्रस्ताव के पक्ष में मानने पर भी बहुमत प्रस्ताव के विरोध में है।

डॉ० चोइथराम के कथन में कोई अनुचित बात नहीं थी, फिर भी हम ने देखा कि गांधी जी के मुँह पर सिलवटें पड़ गईं, गाल फड़कने लगे और टप-टप आँसू झरने लगे। चादर से पोंछते हुए हिचकियाँ ले-ले कर महात्मा जी कहने लगे, यह चोइथराम जो मेरे बच्चे की तरह पला, आज मुझ को 'पाइंट ऑफ़ ऑर्डर' कहता है। आज तो आप सब ने मुझ को जवाब दे दिया, मैं अकेला पड़ गया हूँ। आदि आदि।

याद नहीं सब क्या-क्या कहा। पर हम से बर्दाश्त नहीं हुआ। इसी बीच बाहर जाने वाली पार्टी भी लौट आई। हमारी युवक मंडली ने भरी बैठक में खड़े हो कर गले फाड़-फाड़ कर, महात्मा जी की जय! के नारे लगाने शुरू कर दिए।

स्रोत :
  • पुस्तक : ज्ञानोदय (पृष्ठ 583)
  • संपादक : लक्ष्मीचंद्र जैन
  • रचनाकार : महावीर त्यागी
  • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
  • संस्करण : 1957

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