तू सुलतानु कहा हउ मीआ तेरी कवन वडाई।
जो तू देहि सु कहा सुआमी मै मूरख कहणु न जाई॥
तेरे गुण गावा देहि बुझाई। जैसे सच महि रहउ रजाई॥ रहाउ॥
जो हउ होआ सभु किछु तुझ ते तेरी सभ असनाई।
तेरा अंतु न जाणा मेरे साहिब मैं अंधुले किआ चतुराई॥
किआ उह कथी कथे कथि देखा मै अकथुन कथना जाई।
जो तुधु भावै सोई आखा तिलु तेरी वडिआई॥
एते कूकर हउ बेगाना भउका इसु तन ताई।
भगति हीणु नानकु जे होइगा ता खसमै नाउ न जाई॥
हे मियाँ! यदि तू सुल्तान हो भी गया तो क्या हुआ! तेरा इसमें कौन सा बड़प्पन है! जो तू संसार के लोगों को देता है, उसकी क्या क़ीमत है? सच्चा मालिक जो देता है, उसका क्या कहना! परमात्मा की दाति (दान) का बखान मैं मूर्ख किन शब्दों में करूँ! हे परमात्मा! तेरा गुणगान तो तभी किया जा सकता है, जब तू वैसी बुद्धिमान गुण गायक पैदा कर दे।
जो कुछ भी संसार में हो रहा है, या हुआ है; सब कुछ तुम्हारे द्वारा ही हुआ है। तू ही सब प्रकार के अभाव देता है। हे मेरे साहिब! तेरा आदि अंत नहीं जाना गया और ना जाना जा सकता है। मुझ मूर्ख अज्ञानी में इतनी चतुरता कहाँ?
- पुस्तक : गुरु नानकदेव वाणी और विचार (पृष्ठ 255)
- संपादक : रमेशचंद्र मिश्र
- रचनाकार : गुरु नानक
- प्रकाशन : संत साहित्य संस्थान
- संस्करण : 2003
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