अमर बधावो म्हारे होय रह्यौ, होय रह्या मंगळाचार।
आया हो निकळंक नाथ म्हारे पावणा, जूना जोगेसर अपार।
हालो ए सइयां जुगत सूं बधावां, नई तर रह जासां लार॥
मारग बेखरी बारियो, मेट्यौ सब अळूजाड़।
पोळ पश्यंति खोल दीवी, मध्यमा कियौ निहार॥
परा नगर में सतगुरु नै लावणा, ब्रह्मानंद दरबार।
तुरिया तख्त बिछावणा,जड़िया रतन अपार॥
पाँच पच्चीस दस भेळा हुया, होय रही भीड़ अपार।
उमंगै सुरत सहेलड़ी, गज मोतियाँ रो भर थाळ॥
ढोल बाजै ए सइयां ध्यान रौ, घुळ रह्या रंग अपार।
संत बधाव घर लाविया, मिट गयौ भेद विकार॥
राम रीझ राजी हुया, एक दीठ सूँ निहार।
सगळां ने आप में भेळिया, कोई नहीं राख्या लार॥
मेळो हुतो सो मिट गयी, सुरता कियौ रे विचार।
म्हें अ'र सतगुरु दोय जणा, करसां वचन विहार॥
हंस बोल्या निकळंक नाथ, तूँ है मूरख गिंवार।
म्हें सो तूँ, तूँ सो म्हें हूँ, रह्यौ नीं भेद लिगार॥
म्हें अ'र तूँ दोनूं मिटग्या, अपणा ही आप आधार।
इण विध जोगेसर बधावजी, कदेई न पड़े जम री मार॥
सत रौ बधावौ साधां गावियौ, कर-कर मन में प्यार।
कहे रामदेव पहुंचियौ, हद बेहद सूँ पार॥
योग-साधना द्वारा परब्रह्म को प्राप्त करके साधक की चित्तवृत्तियाँ स्वागतगान कर रही हैं, ध्वल-मंगल गीत गा रही हैं।
जीवात्मा चित्तवृत्तियों से कह रही है कि हे सखियो! आओ युक्तिपूर्वक इनकी वंदना करके इन्हें प्राप्त कर लें, यदि युक्ति नहीं की तो मोक्ष से वंचित रह जाएँगी।
युक्ति यह है, सर्वप्रथम जीवात्मा ने बेखरी वाणी के सभी प्रपंच मिटाकर साधना का पथ उजागर किया। तत्पश्चात् दूसरी अवस्था में कंठ-स्थान में मध्यमा वाणी की प्राप्ति हुई और अंत में सुषुप्ति अवस्था में हृदय में स्थित पश्यंति वाणी का द्वार खुल गया, जिससे जीवात्मा आनंद की अवस्था में आ गई।
तुरीय अवस्था में पहुँचकर परावाणी को प्राप्त किया और जीवात्मा को निर्विकल्प सुखानुभव हुआ। मूर्धा में स्थित यही परा नगर है, यहीं शब्दब्रह्म की प्राप्ति का सुखानुभव करो और तुरीय अवस्था में रत्न जटित तख्त सहस्रदलकमल पर ब्रह्मानंद के दरबार में उपस्थित हो जाओ।
योग-साधना से पंच महाभूत, पच्चीस प्रकृति तथा दस इंद्रियों के बंधन से मुक्त होती हुई जीवात्मा परब्रह्म के दर्शन करके आह्लादित हुई और आत्मज्ञान से परब्रह्म की अभ्यर्थना प्राप्ति की।
तुरीय अवस्था में पहुँचने पर ध्यान योग से अनहत नाद सुनाई दिया तथा आनंद की अनुभूति हुई। परब्रह्म की प्राप्ति होते ही द्वैत भाव का विकार मिट गया।
जीवात्मा और परमात्मा का एक्य स्थापित हुआ, परमात्मा प्रसन्न हुए और साधक को भी अपने में मिला लिया।
इस स्थिति पर पहुँचकर जीवात्मा ने विचार किया कि संसार तो माया का मेला था। सभी सांसारिक संबंध मायाजनित थे, जो अब समाप्त हो गए। आत्मा निज स्वरूप को प्राप्त कर माया-मुक्त हो गई, जब जीवात्मा ने परम गुरु से वचन विलास की बात कही।
तो गुरु ने हँसकर द्वैत त्यागने का आदेश दिया और स्पष्ट किया कि अब जीवात्मा और परमात्मा में किंचित भी भेद नहीं रहा।
द्वैत भाव समाप्त हुआ, आत्मा अपने निज स्वरूप को प्राप्त हुई। यही निरालंब स्वयंभू अनादि योगेश्वर है, पूर्वोक्त विधि से इसकी प्राप्ति करो तो यम की यातना से बच जाओगे।
यही सद्गुरु (परमगुरु) की वंदना है, मन में इसी से अनुराग करो। रामदेव जी कहते हैं कि इस प्रकार जीवात्मा माया के बंधन से मुक्त होकर असीम ब्रह्म में लीन होगी।
- पुस्तक : बाबै की वांणी (पृष्ठ 96)
- संपादक : सोनाराम बिश्नोई
- रचनाकार : बाबा रामदेव
- प्रकाशन : राजस्थानी ग्रंथागार
- संस्करण : 2015
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.