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'आज़ाद' की माँ'

azad ki man

वी जी वैशम्पायन

वी जी वैशम्पायन

'आज़ाद' की माँ'

वी जी वैशम्पायन

और अधिकवी जी वैशम्पायन

    रतलाम से बी० बी० एंड सी० आई० की गाड़ी पूर्ण वेग से रोज़ का रास्ता तय कर रही थी। यात्री हर स्टेशन पर उतरते और चढ़ते थे; परंतु मैं वर्षों की एक घटना का स्पष्ट चित्र देखने का प्रयत्न कर रहा था।

    सन् 1929 से ‘31 तक का साल हिंदुस्तान के क्रांतिकारी-आंदोलन के इतिहास का उज्ज्वल पृष्ठ है। बंगाल में आतंकवाद की ज्वाला प्रज्वलित थी। चिटगांव-सशस्त्र-आक्रमण के बाद तो बंगाल की तानाशाही सरकार की नींद हराम हो गई थी। अपनी समस्त पाशविक शक्ति लगाकर क्रांतिकारियों को मिटाने का वह प्रयत्न कर रही थी। उत्तर हिंदुस्तान में भी सैंडर्स-हत्याकांड और एसेंबली-बमकांड के बाद पहले-पहल लाहौर-षड्यंत्र का मुक़दमा था, फिर भी क्रांतिकारी ख़ामोश थे। वाइसराय की गाड़ी उड़ाने का प्रयत्न और भगतसिंह तथा दत्त को छुड़ाने के प्रयत्न, भावलपुर रोड पर एक कोठी में बमों का फटना—यह पुलिस और सरकार के लिए एक चुनौती थी।

    पुलिस समझ गई कि कुछ नौजवानों को पकड़ लेने से काम ख़त्म नहीं हुआ। पुलिस इन क्रांतिकारियों को खोज निकालने में सिर-चोटी का पसीना बहाए दे रही थी। आख़िर देश-द्रोहियों के कारण उसे सफलता मिल गई। अपनी लापरवाही के कारण कैलाशपति दिल्ली में अपनी प्रेयसी चंद्रावती के साथ गिरफ़्तार हुआ। मोह ने घेरा, चंद्रावती की शुभकामना की आड़ में उसने विश्वासघात किया। कानपुर, झाँसी, लखनऊ, ग्वालियर, अजमेर इत्यादि स्थानों में तलाशियाँ और धर-पकड़ शुरू हो गई। चंद्रशेखर ‘आज़ाद’ ने कानपुर छोड़ दिया, कारण वहाँ पर भी एक विश्वासघाती पैदा हो गया, जो आज़ादी की लड़ाई का सबकुछ मिटाने को तैयार था। वह अपनी ही भूल से शत्रु के पंजे में फँस कर मुख़बिर बन गया।

    कानपुर छोड़ कर इलाहाबाद अस्थाई हेडक्वार्टर बनाया गया। इन दिनों, आए दिन किसी-न-किसी क्रांतिकारी के गिरफ़्तार होने की ख़बर अख़बारों में छपती रहती। ‘आज़ाद’ की आँखों में नींद थी। दिन-रात यही समस्या उनके सामने थी कि क्रांतिकारियों की बिखरी शक्ति को किस तरह इकट्ठा किया जाए। ऐसे ही दिन बीत रहे थे। एक दिन खाना खाकर मैं कुछ सोचता और कुछ ऊँघता पड़ा था।

    एक गंभीर परंतु करुण-स्वर में ‘आज़ाद’ ने पुकारा, “बच्चन!”

    मैं इस स्वर को पहचानता था और जानता था कि इसका अर्थ है किसी गंभीर विषय का निश्चय।

    “बच्चन, मुझे तो ऐसा दिखाई देता है कि लाहौर-षड्यंत्र के बाद का उत्तर हिंदुस्तान के क्रांतिकारियों का संगठन एक बार तहस-नहस हो जाएगा।” कुछ दिन बाद ही ‘आज़ाद’ की वह भविष्यवाणी पूरी हो गई।

    मैं आगे की बात सुनने के लिए उत्सुक हो उठा। उनकी आँखों में करुणा का एक भाव आया; पर शौर्य ने उसे दबोच दिया। आँसू बनकर बहने दिया। ‘आज़ाद’ पर बहुत से साथियों का यह आरोप था कि वे संगदिल थे; पर सच बात और ही थी। उनका हृदय रोना जानता था किसी, उच्च आदर्श के लिए मर मिटने वाले वीर के लिए। उनका दिल पिघलना जानता था, दीनता की पराकाष्ठा पर। उनकी आँखों में मैंने आँसू तीन बार देखे—भगवतीचरण की मृत्यु पर, भगतसिंह की स्मृति में और एक बार और। आदर्श की वेदी पर जिसने बचपन से ही अपना सब कुछ लुटा दिया, माँ-बाप के रहते हुए भी उनकी माया-ममता को ठुकरा दिया, ऐसे शहीद आज़ाद के दिल में माया थी, ममता थी और दया भी थी; पर जबतक भाव सोते रहते तबतक संसार उन्हें एक कर्म-क्षेत्र के सिवा और कुछ नज़र आता। गाना उनके लिए गला फाड़ने के सिवा और कुछ था; परंतु जब उनका सोया प्रेम जागा तब उन्होंने जाना कि संसार में केवल हम लड़ने के लिए ही नहीं जीना चाहते; बल्कि जीने के लिए लड़ते हैं। फिर तो उन्हें गाने से एक अजीब प्रेम हो गया।

    “बच्चन तुम तो जानते ही हो कि फाँसी की रस्सी मेरा गला घेरे है...। मैं चाहता हूँ कि तुम यहाँ से मेरे घर चले जाओ।” ‘आज़ाद’ ने कहा।

    मैंने पूछा—“पर वहाँ क्या करूँगा? मेरा काम तो यहीं है।”

    कुछ देर ख़ामोशी रही।

    “अच्छा बच्चन, जब कभी तुम गिरफ़्तारी के बाद रिहा हो, मेरे घर अवश्य जाना।” उनकी यह बात उनके मरने पर भी मेरे कानों में गूँजती रही।

    *******

    आख़िर रिहाई का दिन आया। बाहर लोग स्वागत के लिए आए; पर मेरे मन में वे शब्द फिर गूँज उठे—“अच्छा बच्चन, रिहा होने पर मेरे घर अवश्य जाना।”

    जाना तो मुझे तुरंत ही चाहिए था, परंतु रिश्तेदारों और मित्रों के मोह ने घेरा। आख़िर उस दिन, जुलाई 22 को, सब कठिनाइयों को पार कर चल ही पड़ा। मेरे छूटने के कुछ ही मास पूर्व उनके पिता की मृत्यु हो चुकी थी। रह गई थी केवल बुढ़िया माँ। बीच में लोगों ने यह भी उड़ा दिया था कि वे दोनों ही चल बसे।

    गाड़ी दोहद पहुँची। यहीं पर अलीपुर जाने के लिए मोटर मिलती है। हम तीनों मित्र एक अपरिचित प्रांत में पहुँचे। रास्ते में कन्हैयालालजी वैद्य मिल गए। उन्होंने हमें दोहद में ठहरने का एक ठिकाना बता दिया था। वैद्यजी के साथ हमें देखकर वहाँ खुफ़िया पुलिस ने कान फटफटाए।

    कन्हैयालालजी जबतक स्टेशन पर किसी परिचित को ढूँढें तबतक पुलिसवालों ने हमारा नाम-पता जानने के लिए एक षड्यंत्र रच लिया। हमें जिन महाशय के यहाँ जाना था उसी नाम के एक व्यक्ति स्टेशन के पास ही रहते थे। कुली ने पहले हमें वहीं पहुँचाया; पर जब उसकी भूल पर उसे डाँटा-डपटा गया तो वह एक ताँगा ले आया। ताँगे में पहले से ही दो व्यक्ति सवार थे। हमें जल्दी थी। इस कारण हम लोगों ने इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। अभी हम दोहद के बाज़ार में पहुँचे ही थे कि एक पुलिसवाले ने ताँगा रोक कर ताँगे वाले का पाँच सवारी बैठाने के कारण चालान करना चाहा। गवाही में हमारे भी नाम-पते लिखे गए। बाद में हमें पता चला कि यह सब नाटक केवल हमारा नाम पता लेने के लिए किया गया था और वह भी इसी कारण, क्योंकि हम कॉमरेड कन्हैयालाल के साथ गाड़ी से उतरे थे।

    दूसरे दिन सबेरे आठ बजे मोटर से हम भावरा पहुँचे। यह अलीराजपुर रियासत में है। यही शहीद चंद्रशेखर ‘आज़ाद’ की जन्मभूमि है। यहाँ की वनश्री देखने योग्य है। यहाँ मिलों का कोलाहल है और मानव के कृत्रिम सुखों का साधन। प्रकृति अब भी वहाँ के अधिक भागों पर अपना साम्राज्य बनाए है। पानी नहीं बरसा था, फिर भी पहाड़ी पर हरियाली दिखाई देती थी। गाँव के पास ही एक छोटी-सी नदी बहती है जो कुकसी कहलाती है। इसमें पानी सूख गया था, पर कहीं-कहीं गड्ढे भरे हुए थे। भील स्त्रियाँ इन गढ़ों से पीने के लिए पानी भर ले जाती हैं। भावरा के आस-पास के प्रदेश में भीलों की आबादी है। इन्हें खाने का शौक़ है, पहनने का। हाँ, इन्हें शौक़ है तो ताड़ी और अफ़ीम का। इसके लिए तो वे अपने-आपको भी बेच सकते हैं। कपड़े के नाम इनके बदन पर नीचे एक लंगोटी और सिर पर एक फटी पगिया बँधी रहती है। तीर-कमान वे हर वक़्त साथ रखते हैं। यही है आड़े समय का उनका हथियार। भावरा में सप्ताह में दो बार हाट लगती है, इसी कारण भावरा में ज़्यादातर दुकानदार ही रहते हैं और रहते हैं कुछ सरकारी नौकर।

    यहीं पर 20 वीं सदी के प्रारंभ में चंद्रशेखर ‘आज़ाद’ के पिता आकर बसे थे। इनकी दो ही संतानें थीं। ‘आज़ाद’ के बड़े भाई सुखदेव उनके जीवित रहते ही काल का ग्रास हो चुके थे और ‘आज़ाद’ के विषय में तो दुनिया ही जानती है; पर हाय! रे माँ का हृदय! वह जानते हुए भी अभी तक विश्वास नहीं कर सकी है कि ‘आज़ाद’ इस दुनिया में नहीं है।

    गाँव के एक छोर पर जंगल के सहारे एक जीर्ण-शीर्ण झोपड़ी के सामने ले जाकर एक व्यक्ति ने हमें खड़ा कर दिया—यही है तिवारी जी का मकान।

    ‘आज़ाद’ के पिता वहाँ इसी नाम से पुकारे जाते थे। माताजी घर पर नहीं थीं। उत्सुकता हुई—शहादत के इस दरिद्र रूप को देखने की। बार-बार दिल में यही भाव उठते थे कि हिंदुस्तानी किसी के पूजक हो सकते हैं। पर उसकी क़ीमत आँकना नहीं जानते। जिसने आज़ादी के लिए अपने प्राण गँवाए उसकी बूढ़ी माँ दाने-दाने को तरसे; रहने के लिए टूटी झोपड़ी उसे नसीब हो!

    उस टूटी झोपड़ी को देखकर क्या कोई सोच सकता था कि जिसने एक बार देश में ब्रिटिश सरकार को हिला दिया वह इसी झोपड़ी में पैदा हुआ होगा और जीवन के 12 वर्ष इसी में उसने बिताएँ होंगे?

    हम तीनों व्यक्ति विचारों की उधेड़-बुन में पड़े हुए थे कि इतने में किसी के पैरों की आहट सुनाई दी। एक वृद्धा धीरे-धीरे जीवन के भार को आगे ढकेलती हुई अंदर आई। किसी के परिचय कराने की आवश्यकता पड़ी। मैं पैरों की तरफ़ झुका। माँ के हृदय ने बीच में ही रोक लिया, फिर, पर फिर क्या...? वही अश्रुओं की मूक भाषा, जो मूक होते हुए भी सब कुछ कह डालती है। मैं हत बुद्धि-सा माँ के बाहुपाश में और मेरे पास ही मेरे साथी खोए से खड़े रहे। किसी को भी कुछ सूझता था। सांत्वना के लिए उस समय मौन से अधिक अच्छी और कोई दवा थी।

    धीरे-धीरे अश्रुओं का वेग स्वयं ही रुक गया। कोलाहल सुनकर पड़ोसी जुटे। सवाल होने लगे। वृद्धा स्वयं ही उत्तर देती थी।

    एक ने पूछा—“कहाँ से आए हैं? देश से?”

    वृद्धा माँ ने उत्तर दिया—“हाँ।”

    दूसरे ने पूछा—“वहाँ पानी कैसा है?”

    हमने उत्तर दिया—“अच्छा है।”

    इसी तरह थोड़ी देर तक सवाल-जवाब की झड़ी लगी रही। धीरे-धीरे पड़ोसी खिसकने लगे।

    माँ पास सरक आई और धीरे से पूछने लगी—“सच बताओ भैया, चंद्रशेखर मर गया?”

    मैं इधर-उधर देखने लगा। कैसे बताता कि चंद्रशेखर इस संसार में नहीं है। मेरे साथियों में से एक ने कहा—“हाँ माँ, वे अब ज़िंदा नहीं हैं। इसका पता तो तुम्हें भी लग गया होगा?”

    “हाँ बेटा, एक बार गाँव के लोगों ने एक फोटू दिखाया और कहा था कि वह लड़ाई में मारा गया; पर बेटा, हमारी तो समझ में नहीं आया कि उसने ऐसा कौन-सा काम किया था, जिससे उसे लड़ाई लड़नी पड़ी और फोटू छप कर बिके? मेरा तो सब कुछ होकर भी कुछ नहीं रहा। मैं निपूती-की-निपूती ही बनी रही। ज़िंदा हूँ, इसीसे इस पेट का भाड़ा चुकाने के लिए कुछ-न-कुछ करना पड़ता है। मैं तो उस दिन की बाट जोह रही हूँ, जब भगवान् मेरी सुन लें।”

    इसी प्रकार माँ अपने जीवन के दुःख को कहकर हल्का करती रही। इसी बीच बुढ़िया को हमारे पेट का ख़याल आया। बहुत मना करने पर भी वह मानी। दाल, भात, साग और रोटी बनी।

    माँ की उम्र 60 से ऊपर है। शरीर दुर्बल, मुँह में एक दाँत नहीं। एक आँख बहुत सिर-दर्द होने के कारण निकलवा देनी पड़ी और दूसरी से भी कम दिखाई देता है। खाना कभी बना, कभी नहीं, फिर भी अपने हाथ से दोनों वक़्त पानी भरना, रोटी बनाना, बर्तन धोना इत्यादि संसार के सभी काम करती है।

    झोपड़ी में एक ही कमरा है और आगे ज़रा-सा सहन। सारी झोपड़ी बाँस की बनी हुई है। कारण यहाँ के जंगल में बाँस कसरत से मिलता है। सामने आँगन में एक आम का और पपीते का पेड़ लगा हुआ है और उसके आगे बाँस की छोटी सी किवड़िया है, जो हाते का फाटक है। पिछली ओर कुछ साग-तरकारी लगा रखी है। अगर बकरियों से बच गई तो मुहल्ले वाले उस पर हाथ साफ़ करते हैं और उनसे बचने पर माँ के हिस्से में आती है। रात को रावजी नाम का एक भील एक वक़्त वहीं खाना मिलने पर एक बोथरी तलवार लिए सोता है, इसलिए कि जंगली भील मौक़ा पाने पर चोरी करने से नहीं चूकते।

    हमारे वहाँ जाने से बढ़िया के जीवन में एक परिवर्तन हुआ। उसे समय काटने का साधन मिल गया। सवेरा होते ही उसे हमारी चाय की फ़िक्र होती और दोपहर को बारह बजते ही भोजन की। हम बहुत मना करते; परंतु इसमें उसे सुख और आनंद मिलता। चाय पीकर हम आस-पास के जंगल में घूमने निकल जाते और दोपहर को जब लौटते तो बुढ़िया को बाट जोहते पाते। उसे स्मरण हो आते अपने पुराने दिन, जो अब कहानी बन गए थे। हाँ, ठीक इसी तरह तो वे अपने लड़कों का रास्ता देखा करती थीं। हमें देखते ही वह झट सवाल कर बैठतीं—“बच्चा, आज बहुत लंबे निकल गए रहौ का?”

    “नहीं अम्मा, यहीं तो नदी पर बैठे थे।”

    माँ खाना परोसती। हम झगड़-झगड़ कर खाते। बुढ़िया हँसते-हँसते कहती—“बेटा, चले जाओगे तो यही बातें मुझे रुलाएँगी। अब तुम यहीं रहो, बच्चा।”

    नित-नए प्रकार का भोजन होता, सादा पर सुस्वाद। एक दिन घर के आम का अमावट खाने को मिला। माँ इसे उपवास के दिन पानी में शरबत बना कर खाती थी। यही होता है उसके उपवास के दिन का आहार। रात को 11-12 बजे तक मोहल्ले की बूढ़ी औरतें बैठतीं और इधर-उधर की बातें कहतीं और पूछतीं।

    जब भी हम जाने का नाम लेते, माँ कह उठती, “नहीं, बच्चा कुछ दिन और रहो।” आख़िर जाने का दिन निश्चित हुआ, पर विदा के समय की वह करुण-दृष्टि कभी नहीं भूलेगी। वह बार-बार यही कहती, “सूना घर और दरिद्रता तो मेरे जीवन के साथी हैं।”

    दुनिया “चंद्रशेखर ‘आज़ाद’ ज़िंदाबाद” कह सकती है; पर उनकी माँ के त्याग को स्मरण करने के लिए संसार के पास तो समय है और देखने के लिए आँखें।

    स्रोत :
    • पुस्तक : अमिट रेखाएँ (पृष्ठ 75)
    • संपादक : सत्यवती मलिक
    • रचनाकार : वी जी वैशम्पायन
    • प्रकाशन : सत्साहित्य प्रकाशन
    • संस्करण : 1955
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