नागरीदास के दोहे
इस्क-चमन महबूब का, जहाँ न जावै कोइ।
जावै सो जीवै नहीं, जियै सु बौरा होइ॥
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अरे पियारे, क्या करौ, जाहि रहो है लाग।
क्योंकरि दिल-बारूद में, छिपे इस्क की आग॥
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सीस काटिकै भू धरै, ऊपर रक्खै पाव।
इस्क-चमन के बीच में, ऐसा हो तो आव॥
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थिर कीन्हेंचर,चर सुथिर, हरि-मुख मुरली बाजि।
खरब सुकीनो सबनि कों, महागरब सों गाजि॥
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कहूँ किया नहिं इस्क का, इस्तैमाल सँवार।
सो साहिब सों इस्क वह, करि क्या सकै गँवार॥
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सब मज़हब सब इल्म अरु, सबै ऐस के स्वाद।
अरे, इस्क के असर बिन, ये सब ही बरबाद॥
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इस्क-चमन महबूब का, सँभल पाँउ धरि आव।
बीच राह के बूड़ना, ऊबट, माहि बचाव॥
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इश्क उसी की झलक है, ज्यौं सूरज की धूप।
जहाँ इस्क तहँ आप हैं, क़ादिर नादिर रूप॥
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प्रिय-परिकर के सुघरजन, बिरही-प्रेम-निकेत।
देखि कबै लपटायहों, उनतें हिय करिहेत॥
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आया इस्क-लपेट में, लागी चस्म-चपेट।
सोई आया ख़लक़ में, और भरै सब पेट॥
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पिक केकी, कोकिल-कुहुक, बंदर-वृंद अपार।
ऐसे तरु लखि निकट कब, मिलिहौ बाँह पसार॥
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हेरत, टेरत डोलिहौं, कहि-कहि स्याम सुजान।
फिरत-गिरत बन सघन में, यौंही छुटिहैं प्रान॥
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कब बृंदावन-घरनि में, चरन परैंगे जाय।
लोटि धूरि धरि सीस पर, कछु मुखहूँ में पाय॥
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कबै मनोरथ सिद्ध ये, ह्वै हैं मेरे लाल।
सतसंगति तें दूर नहिं, जानें रसिक रसाल॥
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कछु मोहूँ में प्रेम लखि, तब औरन ते फाट।
कबै पुलिन लै जाहिगे, करन मानसी ठाट॥
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बंस-बंस में प्रगटि भई, सब जग करत प्रसंस।
बंसी हरि-मुख सों लगी, धन्य वंस कौ बंस॥
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हा हा! अब रहि मौन गहि, मुरली करति अधीर।
मोसी ह्वै जो तू सुनै, तब कछु पावै पीर॥
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सब कौ मन ले हाथ में, पकरि नचाई हाथ।
एक हाथ की मुरलिया, लगि पिय-अधरनि साथ॥
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मो नैनन की ठौर कों, कब लैहे वह रूँध।
तीन-ताप-सीतलकरन, सघन तरुन की धूँध॥
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कबै रसीली कुंज में हौ करिहौ परवेस।
लखि-लखि लताजु लहलही, चित्त ह्वैगो आवेस॥
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कियौ न, करिहै कौन नहिं, पिय सुहाग कौ राज।
अरी, बावरी बँसुरिया, मुख-लागी मति गाज॥
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तो कारन गृह-सुख तजे, सह्यो जगत कौ बैर।
हमसों तोसों मुरलिया, कौन जनम कौ घैर॥
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ऐ अभिमानी मुरलिया, करी सुहागिनि स्याम।
अरी, चलाये सबनि पै, भले चाम के दाम॥
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कोइ न पहुँचा वहाँ तक, आसिक नाम अनेक।
इस्क-चमन के बीच में, आया मजनू एक॥
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ता दिन हीं तें छुटि है, खान-पान अरु सैन।
छीन देह, जीरन बसन, फिरिहौ हिये न चैन॥
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चरन छिदत काँटेन तें, स्रवत रुधिर, सुधि नाहिं।
पूछत हौ फिरिहौ भटू, खग, मृग, तरुबन माहिं॥
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दमक दसनि, ईषद हँसनि, उपमा समसर है न।
फैलि परत किरननि निकर, कब देखों इन नैन॥
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तूहूँ ब्रज की मुरलिया, हमहूँ ब्रज की नारि।
एक बास की कान करि, पढ़ि-पढ़ि मंत्र न मारि॥
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मुख मूँदे रहु मुरलिया, कहा करति उतपात।
तेरे हाँसी घर-बसी, औरन के घर जात॥
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परम मित्र आग्या दई, मेरेहूँ हित वास।
नवल ‘मनोरथ-मंजरी', करी ‘नागरीदास'॥
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जुगलरूप-आसव-छक्यो, परे रीझ के पान।
ऐसे संतन की कृपा, मोपै दंपति जान॥
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अरी, छिमा कर मुरलिया, परत तिहारे पाय।
और सुखी सुनि होत सब, महादुखी हम हाय॥
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हरि चित लियो चुरायकैं, रह्यौ परत नहिं मौन।
तापर बंसी बाज मति, देह कटे पर लौन॥
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फूँकनि के चल तीर तन, लगे परतु नहिं चैनु।
अंग-अंग आप विधाइकै, हमहूँ बेधतु बैनु॥
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जमना-तट निसि चाँदनी, सुभग पुलिन में जाय।
कब एकाकी होयहों, मौन बदन उर चाय॥
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जो बाँचै सीखै सुनै, रीझि करै फिरि प्रस्न।
सो सतसंगति कीजियौ, पहुँचै ‘जय श्रीकृस्न॥
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मति मारै सर तानिकैं, नातो इतो विचारि।
तीन लोक संग गाइए, बंसी अरु ब्रजनारि॥
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सबद सुनवात हमहिं तूँ, देत नहीं छिन चैनु।
अनबोली रहु तनिक तौ, ऐ बकवादी बैनु॥
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कब दुखदाई होयगो, मोको बिरह, अपार।
रोय-रोय उठ दौरिहों, कहि-कहि,किन सुकुवाँर॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere