हरीराम व्यास के दोहे
‘व्यास’ न कथनी और की, मेरे मन धिक्कार।
रसिकन की गारी भली, यह मेरौ सिंगार॥
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‘व्यास’ बचन मीठे कहै, खरबूजा की भाँति।
ऊपर देखौ एक सौ, भीतर तीन्यों पाँति॥
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मुख मीठी बातें कहै, हिरदै निपट कठोर।
व्यास कहौं क्यों पाय हैं, नागर नंदकिसोर॥
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‘व्यास’ मिठाई विप्र की, तामे लागै आगि।
बृंदाबन ते स्वपच की, जूठहि खैए माँगि॥
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‘व्यास’ बड़ाई लोक की, कूकर की पहिचानि।
प्रीति करै मुख चाटही, बैर करै तनु-हानि॥
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बृंदावन के स्वपच कौ, सेवक होय।
तासों भेद न कीजिए, पीजै पद-रज धोय॥
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श्रीहरि-भक्ति न जानहीं, माया ही सों हेत।
जीवन ह्वैहै पातकी, मरि कै ह्वैहै प्रेत॥
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मेरे मन आधार प्रभु, श्रीवृंदावन-चंद।
नितप्रति यह सुमरत रहौं, ‘व्यासहिं’ मन आनंद॥
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हरि हीरा गुरु जौहरी, ‘व्यासहिं’ दियौ बताय।
तन मन आनंद सुख मिलै, नाम लेत दुख जाय॥
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सती सूरमा संतजन, इन समान नहिं और।
अगम पंथ पै पग धरैं, डिगै न पावै ठौर॥
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‘व्यास’ स्वपच बहु तरि गए, एक नाम लवलीन।
चढ़े नाव अभिमान की, बूड़े कोटि कुलीन॥
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‘व्यास’ कुलीननि कोटि मिलि, पंडित लाख पचीस।
स्वपच भक्त की पानहीं, तुलै न तिनके सीस॥
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मुख मीठी बातैं कहै, हिरदै निपट कठोर।
‘व्यास’ कहौ क्यों पाय है, नागर नंदकिसोर॥
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‘व्यास’ बड़ाई जगत की, कूकर की पहिचानि।
प्यार करे मुख चाटई, बैर करे तन हानि॥
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साकत सगो न भेटिये, इंद्र कुबेर समान।
सुंदर गनिका गुन भरी, परसत तनु की हान॥
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नारि नागिनी बाघनी, ना कीजै विश्वास।
जो वाकी संगत करै, अंत जु होय बिनास॥
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‘व्यास’ पराई कामिनी, कारी नागिन जान।
सूँघत ही मर जायगो, गरुड़ मंत्र नहिं मान॥
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साकत-बामन जिन मिलौ, वैष्णव मिलि चंडाल।
जाहि मिलै सुख पाइये, मनो मिले गोपाल॥
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‘व्यास’ दीनता पारसै, नहिं जानत जग अंध।
दीन भये तैं मिलत है, दीनबंधु से बंध॥
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‘व्यास’ न कथनी काम की, करनी है इकसार।
भक्ति बिना पंडित वृथा, ज्यों खर चंदन भार॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere