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गुरु अमरदास

1479 - 1574 | अमृतसर, पंजाब

सिक्ख धर्म के तीसरे गुरु और आध्यात्मिक संत। जातिगत भेदभाव को समाप्त करने और आपसी सौहार्द स्थापित करने के लिए 'लंगर परंपरा' शुरू कर 'पहले पंगत फिर संगत' पर ज़ोर दिया।

सिक्ख धर्म के तीसरे गुरु और आध्यात्मिक संत। जातिगत भेदभाव को समाप्त करने और आपसी सौहार्द स्थापित करने के लिए 'लंगर परंपरा' शुरू कर 'पहले पंगत फिर संगत' पर ज़ोर दिया।

गुरु अमरदास के दोहे

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आपै नो आपु मिली रहिआ, हउमै दुविधा मारि।

नानक नामि रते दुतरु तरे, भउ जलु विषमु संसारु॥

विसना कदे चुकई, जलदी करे पुकार।

नानक बिनु नावै कुरूपि कुसोहणी, परहरि छोड़ी भतारि॥

सबदि रती सोहागणी, सतिगुर कै भाइ पिआरि।

सदा रावे पिवु आपणा, सवै प्रेमि पिआरि॥

आसा मनसा जगि मोहणी, जिनि मोहिआ संसारू।

सभु को जमके चीरे बिचि है, जेता सभु आकारु॥

भै बिचि सभु आकारु है, निरभउ हरिजीउ सोइ।

सतिगुरि सेविऐ हरि मनि बसै, तिथै भउ कदे होइ॥

हसा वेषि तरंदिआ, वगांभि आया चाउ।

डूबि मुए वग वपुड़े, सिरु तलि उपरि पाउ॥

मनु माणकु जिनि परखिआ, गुर सबदी बीचारि।

से जन बिरले जाणी अहि, कल जुग बिचि संसारि॥

धन पिवु एहि आखिअन्हि, व्हन्हि कइठे होइ।

एक जोति दुइ मूरती, धन पिवु कहीऐ सोई॥

हरि गुण तोटि आवई, कीमति कहण जाई।

नानक गुरमुखि हरिगुण रवहि, गुण महि रहे समाई॥

सहजि वणसपति फुलु फलु, भवरु बसै भैषंडि।

नानक तरवरु एकु है, एको फुलु भिरंगु॥

इसु जगमहि पुरुष एकु है, होर सगली नारि सवाई।

सभि घट भोगवै अलिपतु रहै, अलषु लखणा जाई॥

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