Font by Mehr Nastaliq Web
noImage

चरनदास

1706 - 1785 | अलवर, राजस्थान

'चरणदासी संप्रदाय' के प्रवर्तक। योगसाधक संत। जीवन-लक्ष्य साधने हेतु कृष्ण-भक्ति के साथ अष्टांग योग पर बल देने के लिए स्मरणीय।

'चरणदासी संप्रदाय' के प्रवर्तक। योगसाधक संत। जीवन-लक्ष्य साधने हेतु कृष्ण-भक्ति के साथ अष्टांग योग पर बल देने के लिए स्मरणीय।

चरनदास का परिचय

मूल नाम : चरनदास

जन्म :अलवर, राजस्थान

निधन : चाँदनी चौक, दिल्ली

चरनदास का जन्म मेवात (राजस्थान) के डेहरा गाँव में भाद्रपद शुक्ल तृतीया, मंगलवार सन् 1703 ई. में एक ढूसर वैश्यकुल में हुआ था। इनके पिता का नाम मुरलीधर और माता का कंजो था। मिश्रबंधुओं ने इन्हें पंडितपुर निवासी ब्राह्मण कहा है। मेवात के ढूसर अपने को वधूसर (भार्गव) ब्राह्मण कहते हैं, कदाचित् इसीलिए मिश्रबंधुओं को उपर्युक्त भ्रम हुआ था। इन्होंने अपने गुरु का नाम शुकदेव बताया है और कहा जाता है कि इनके गुरु मुजफ्फरनगर के समीपवर्ती शुकताल गाँव के निवासी कोई सुखदेव या सुखानंद थे। इनकी मृत्यु अगहन सुदी चतुर्थी सन् 1782 ई. में दिल्ली में हुई थी। यहीं इन्होंने अपना संत-जीवन व्यतीत किया था।

इनकी कुल इक्कीस रचनाएँ बतायी जाती हैं। इनमें पंद्रह का एक संग्रह वेंकटेश्वर प्रेस, बंबई से प्रकाशित हुआ है। नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ से इनकी प्रायः सभी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। 'ब्रज चरित', 'अमरलोक अखंड धाम वर्णन', 'धर्म जहाज वर्णन' 'अष्टांग योग वर्णन', 'योग संदेह सागर', 'ज्ञान स्वरोदय', 'पंचोपनिषद्', 'भक्ति पदार्थ वर्णन', 'मनविकृत करन गुटकासार', 'ब्रह्मज्ञान सागर' 'शब्द और भक्ति सागर' इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। इनके अतिरिक्त 'जागरण माहात्म्य', 'दानलीला' 'मटकी लीला', 'कालीनाथ-लीला', 'श्रीधर ब्राह्मण लीला', 'माखन चोरी लीला', 'कुरुक्षेत्र लीला', 'नासकेत लीला', और 'कवित्त' अन्य रचनाएँ हैं जो इन्हीं की कृतियाँ मानी जाती हैं।

इनकी समस्त रचनाओं का प्रमुख विषय-योग, ज्ञान, भक्ति, कर्म और कृष्ण चरित का दिव्य सांकेतिक वर्णन है। भागवत पुराण का ग्यारहवाँ स्कंध इनकी रचनाओं का प्रेरणा स्रोत है।

समन्वयात्मक दृष्टिकोण होते हुए भी इन्होंने योगसाधना पर अधिक बल दिया है। इसीलिए रामदास गौड़ ने इनके संप्रदाय को योगमत के अंतर्गत रखा है। विल्सन महोदय ने इसे वैष्णव पंथ माना है जो गोकुलस्थ गोस्वामियों के महत्त्व को कम करने के लिए प्रवर्तित हुआ था। बड़थ्वाल ने प्रेमानुभूति की प्रगाढ़ता के कारण इसे निर्गुण संत-संप्रदाय के अंतर्गत रखना ही उचित माना है। परशुराम चतुर्वेदी ने इसे ज्ञान, भक्ति, योग का समन्वय करनेवाला पंथ कहा है।

इनके शिष्यों की कुल संख्या बावन बतायी जाती है, जिन्होंने विभिन्न स्थानों पर पंथ का प्रचार किया था। सहजोबाई और दयाबाई इनकी प्रसिद्ध शिष्याएँ हैं। समन्वयात्मक दृष्टिकोण होने पर भी इनका मूल स्वर संतों का ही है। इनमें काव्य रचना की अच्छी क्षमता थी और इनकी रचनाएँ सामान्य संतों से उत्कृष्ट हैं।

Recitation

जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली

टिकट ख़रीदिए