सन् 3031
san 3031
बात ऐसी है कि एक दिन
इस धरती पर एक लहर चली
बहाते हुए सारे ज़ाफ़रानी ज़हर।
करोड़ों आवाज़ें गूँजीं,
अरबों क़दम उठे।
लाँघो, लाँघो सरहद लाँघो।
तोड़ो-तोड़ो,
तोड़ो राष्ट्रों के क़ैदख़ाने तोड़ो,
द्वीपों के द्वारों की अर्गलाएँ भग्न करो,
सागर तटों को खींचकर धरती से मिलाओ।
आओ-आओ, दहकती धरती की चितवन बदल दें।
हाँ, हाँ, इस धरती पर सरहदें थीं
थे अलग-अलग देश
अलग-अलग संप्रभुताएँ
हाँ, हाँ यह धरती एक ऐसी इमारत थी
जहाँ एक घर के बच्चे दूसरे घर में वीज़ा लेकर जाया करते थे!
वे कैसे लोग थे?
कैसे नागरिक,
कैसी सभ्यता और कैसी थीं उनकी आदिम बस्तियाँ?
वह जीवन कितना ज़ालिम था
वह आदमी कितना आदिम था
जब चाँदनी मैली होने लगी
और सूरज की धूप काली पड़ने लगी
जराजीर्ण सोच और समाज को कुछ लोगों ने माचिस लगा दी!
क्योंकि विकसित होती उस सभ्यता में कुछ लोगों ने माचिस का
सही उपयोग करना सीख लिया था!
वह पशुवत समाज था
इनसान पशुवत आवाज़ों के इर्द-गिर्द एकत्र होते
सुनते, सिर हिलाते, चरते और
अपने-अपने मालिकों की आवाज़ें सुनकर
अपने-अपने बाड़ों में स्वत: वापस चले जाते थे,
जिन्हें उन दिनों बड़े गर्व से राष्ट्र कहा जाता था!
वह संप्रभु बाड़ा युग था
विकसित संप्रभु बाड़ों ने प्रगति कर ली थी
हर सदस्य की एक यूनीक आईडी थी
और किसी एक बाड़े से कोई दूसरे बाड़े में
जाता था तो यह आईडी नंबर काम आता था!
नाम मिटते गए थे और हर आदमी की आईडी रह गई थी
आईडी के साथ कुछ वर्ण लगे रहते थे
जो धर्म, जाति, गोत्र और क़बीले को दर्शाते थे
ये संकेताक्षर सबको भाते थे।
आईडी नंबर से हर पशुवत इंसान
बड़ी-बड़ी आँखों से
विश्वविजेता बाड़ेवालों को देख
विस्मित होते हुए आभार जताया करता था।
सींग उस सभ्यता में इंसान के सिर से लुप्त हो चुके थे
वह इंसान बिना सींग वाले सिर झुकाया करता था
और अपने बाड़े से निकलकर पश्चिमी बाड़ों में आने के लिए
कार्टर, बुश, ओबामा नामक देवताओं के भजन गाया करता था।
समस्त बाड़ों के अपने-अपने गान थे,
अपनी-अपनी पताकाएँ, अपने-अपने सैनिक थे,
अपने-अपने अहंकार, अपने-अपने मिथ्याभिमान थे,
अपने-अपने झूठ, अपनी-अपनी हताशाएँ थीं।
वह बाड़ा-सभ्यता इतनी पतित थी कि
एक बाड़े के लोग दूसरे बाड़े को अशांत करने लगे रहते थे।
इस बाड़ा-सभ्यता के लोग यह भी नहीं जानते थे कि
कितना समय बचा है : सही समय आने और बुरा समय जाने में।
बाड़ा-सभ्यता की समस्या यह थी कि
उसमें हर बाड़ा अपनी बुरी सभ्यता पर ख़ूबियों के खोल में चढ़ाने में माहिर था।
वह बुरी सभ्यता आख़िरी दौर में इतनी बुरी हो चली थी कि
साँप नष्ट होने लगे थे, बाघ मिटने लगे थे, घोड़े हिनहिनाना भूलने लगे थे,
गगन की आभा फीकी पडऩे लगी थी और धरती का चेहरा पीला पड़ गया था,
पर्वतों को बाड़ा सभ्यता ने पानी में गलाकर अपने घरों में खपा दिया था
और नदियों में पानी दिखाई देना बंद होने लगा था।
पक्षियों को उन आदिम लोगों ने नष्ट कर दिया था और
कुत्ते पालने वाली उस सभ्यता के लोगों ने पक्षियों की चहचहाहट,
हरे वृक्षों की छाया, बारिश की बूँदों की अनुभूतियाँ खो दी थीं!
हर बाड़े का अपना बाज़ार था,
जिससे सभी बाड़े धीरे-धीरे जुड़ गए थे
और इस बाज़ार में बड़े बाड़े वालों की धमक थी!
इस बाज़ार में मुद्रा का प्रवाह बड़े बाड़े की तरफ़ रहता था
और जब कभी मुद्रा की कुछ बूँदें
किसी छोटे बाड़े पर टपक पड़ती थीं
तो वह सबसे बड़े बाड़े से अपने आपको छोटा नहीं मानता था।
बाड़ा युग का यह बाज़ार इतना सम्मोहक था
कि इसमें जो कोई इंसान माल बनकर आ जाया करता था
उसकी क़ीमत तब के बाड़ा बाज़ार में सबसे ज़्यादा लगा करती थी।
और अगर यह इंसान कोई युवा स्त्री होती तो
उसका मूल्य कई गुणा ज़्यादा हुआ करता था।
उस युग में दासप्रथा ने काफ़ी उदार रूप ले लिया था
और बाज़ार के नियंत्रणकर्ताओं के दास
एक गेंद और दो बल्लों से एक मैदान में खेलते थे
और बाज़ार इस एक गेंद के ज़रिए
अख़बारों, राजनीति, टेलीविज़न चैनलों, साहित्य, संस्कृति
और आम सामाजिक जीवन को नियंत्रित किया करता था।
वह बाड़ा-सभ्यता विकसित होते हुए भी इतनी आदिम थी कि
गर्भ में ही मादा शिशुओं को नष्ट करने में आनंदित होती थी
उस सभ्यता में सबसे सभ्य डॉक्टर माने जाते थे
और जो मादा-भ्रूणों को नष्ट करने का सबसे असभ्य काम किया करते थे।
बाड़ा-युग में बाज़ार ने बच्चों से लेकर बुज़ुर्गों तक को,
यहाँ तक कि महिलाओं और बच्चियों तक को
ग्लैडिएटर में बदल दिया था।
ऐसे ग्लैडिएटरों में,
जिनके हाथों में तलवार की जगह आत्मसम्मान था।
सचमुच वह धरती बाड़ों में बँटी थी
लाल, नीले, हरे, सफ़ेद, बैंगनी, पीले, गुलाबी रंग वाले बाड़ों में
वह एक आदिम सभ्यता थी,
जिसे याद करने पर आज भी नाक में दुर्गंध आती है
वह आदिम सभ्यता, जिसने एवरेस्ट नष्ट कर दिया,
जिसने इस नीले गगन को छलनी कर दिया
जिसने इंसान को बाड़ों में बाँटकर छोड़ दिया,
जिन बाड़ों की क़ब्रों से आज भी आती हैं आदिम आवाज़ें,
जो ख़तरा हैं हमारे विश्व समाज के लिए।
इस प्रार्थनारत पृथिवी समाज के लिए।
- रचनाकार : त्रिभुवन
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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