कल, मौत के बारे में सोचते हुए
kal, maut ke bare mein sochte hue
निकोलाय ज़बोलोत्स्की
Nikolay Zabolotsky
कल, मौत के बारे में सोचते हुए
kal, maut ke bare mein sochte hue
Nikolay Zabolotsky
निकोलाय ज़बोलोत्स्की
और अधिकनिकोलाय ज़बोलोत्स्की
अचानक निष्ठुर हो गया मेरा हृदय।
दिन कुछ उदासी भरा था, युगों पुरानी प्रकृति,
जंगल के अंधकार में से देख रही थी मेरी तरफ़।
बिछोह का असहनीय दु:ख चीर रहा था मेरा हृदय
और तभी सुनाई दिए मुझे
साँझ की घास के गीत, पानी का वार्तालाप
पत्थरों की मृत चीख़ें।
और मैं जीवित, सैर कर रहा था खेतों पर
बिना डरे मैंने प्रवेश किया जंगल में,
मृतकों के विचार पारदर्शी मीनारों की तरह
चारों ओर से उठ रहे थे आकाश तक।
पत्तियों के ऊपर से सुनाई दी पूश्किन1 की आवाज़।
खलेव्निकोव2 के पक्षी गा रहे थे नदी के पास।
एक पत्थर से मुलाक़ात हुई। खड़ा था वह एक ही जगह
उस पर दिखाई देने लगा मुझे स्कोवोरोदा3 का चेहरा।
सारे वजूदों और सब लोगों ने
सँभालकर रखा था वह चिरंतन जीवन।
और मैं मात्र पुत्र नहीं था प्रकृति का
बल्कि उसका विचार था, विवेक था अस्थिर-सा।
- पुस्तक : नियति की अज्ञात इच्छाएँ (पृष्ठ 77)
- रचनाकार : निकोलाय ज़बोलोत्स्की
- प्रकाशन : प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली
- संस्करण : 2016
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