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विषम राग

visham raag

प्रत्यूष चंद्र मिश्र

और अधिकप्रत्यूष चंद्र मिश्र


    अरुण प्रकाश के लिए

    एक

    इस विराट दुनिया में क्या सचमुच मैं हूँ
    समय के प्रवाह में बहता हुआ किनारे
    आपकी दृष्टि से अक्सर ओझल मेरी उपस्थिति
    कोरस का सबसे कमजोर कंठ
    कथा की सबसे कमज़ोर कड़ी
    राजनीति और प्रचलित विमर्शों का सबसे उपेक्षित अध्याय
    न्याय और मनुष्यता के इतिहास का सबसे अबूझ अध्याय
    यदि यह सचमुच कथा है
    तो इसमें कितना कम जीवन है
    और यदि यह जीवन है
    तो इसमें कितनी कम कथा है।

    दो

    बहुत कुछ देखते हुए मैं बचता रहा
    बहुत कुछ देखने और सुनने से
    लांछन, अपमान और पीड़ा की लहर को
    बचपन से अपने भीतर जज़्ब किए
    अपनी ही मानसिक व्यथा को समझने में अक्षम
    ऑफ़िस के ग्रुप-फ़ोटो में सायास सबसे किनारे
    उत्सवों में खाने की प्लेट भीड़ से बचकर उठाता हुआ
    ट्रैफ़िक में सिकोड़ते हुए अपना शरीर
    जिस तरह स्त्रियाँ समझ जाती हैं
    अपनी ओर उठी हर नज़र का कोण
    हम भी समझते हैं अपनी तरफ़ उठी
    दया और उपेक्षा और करुणा की दृष्टि को
    बहुत आसानी से दिख जाएगा
    शरीर पर काटे सर्प का नीला दंश
    युद्ध में क्षत-विक्षत अंगों की शनाख़्त भी बहुत आसान है
    रोज़मर्रा की जंग में
    हमारी पराजय की पहचान भी बहुत आमफहम
    पर हमारी आत्मा के भीतर पैठे
    अँधेरे की दरियाफ़्त इतनी आसान नहीं
    इस विराट जलसे में हमारा जीवन है एक शोकगीत
    सदियों से जिसका नाद हम अकेले सुनते आ रहे हैं।

    तीन

    चलना कितनी सहज क्रिया है आदमी के लिए
    पर इसी चलने ने कितना असहज किया है मुझे
    एक-एक क़दम पर परेशानियाँ जैसे भीतर से फूट पड़ती हैं
    चलने और फिर दौड़ने को नियति मान लिए गए इस समय में
    हम अक्सर घिसटते रहे अपनी ही इच्छाओं और देह-पिंड में
    ‘ढेले और पत्ते’ की लोककथा के अनगढ़ पात्र सरीखे रहे हम
    ‘दोस्ती’ फिल्म की करुण-कथा के अभागे नायक भी हम ही थे
    हम थे देह और अपनी आत्मा को जीवन के हाशिये पर सिकोड़ते हुए
    रोटी का सवाल तो सबकी तरह सामने था ही
    पर मेरे लिए यह जीवन ही
    सबसे मुश्किल सवाल की तरह खड़ा था।

    चार

    सड़क पर एक पत्थर है
    लोगों की ठोकरें खाता हुआ
    दीवाल का उखड़ा हुआ पलस्तर
    जहाँ नमी सबसे ज़्यादा है
    एक विशाल वृक्ष के नीचे
    ‘आधा हरा आधा सूखा हुआ पत्ता’
    हवा, धूप और पानी से अरक्षित
    एक टूटा हुआ बर्तन रसोई के
    सबसे उपेक्षित कोने में
    जल से भरा लबालब
    अपनी ही देह की भूलभुलैया में जूझता यह जीवन
    जो अक्सर भूल जाता है
    कि मन की आवेगमयता में वह जितना आगे हो
    उसे जीना होगा इसी देह की सच्चाई के साथ
    वह बस है!
    संगीत के तमाम रागों के बीच जीवन का एक विषम राग!
    वह है! आपके सौंदर्यबोध आपकी सुरुचि को धत्ता बताता हुआ!
    वह है! स्मृतियों में दबी एक टीस
    और घिसटते वर्तमान से बहुत-बहुत ज़्यादा।

    पाँच

    जीवन में न तो बहुत ज़्यादा दोस्त रहे न दुश्मन
    जो नौकरी मिली वह आरक्षण की देन थी
    और जो घर-परिवार मिला
    वहाँ सब आरक्षण-विरोधी
    घृणा और दया के ध्रुवांत पर थी मेरी अस्मिता
    मैं भुगतता रहा हर जगह
    अपने अल्पसंख्यक होने का दंश
    आख़िर मैं किससे सवाल करता कहाँ जाता
    ईश्वर जैसी चीज़ में आस्था थी नहीं
    कविताएँ लिखता था
    मगर उससे पीड़ा कम नहीं होती थी
    दफ़्तर और घर के दो पाटों के बीच पिसता
    मैं भूल जाता था
    कभी-कभी अपना आदमी होना।

    छह

    धर्म, ईश्वर, क़ानून, इतिहास और समाज
    सब जगह बहुत बारीक थी अन्याय की बुनाई
    कथा के धीरोदात्त नायकों से
    हमारी छवियाँ मेल नहीं खाती थीं
    कविताओं के दुःख में नहीं था मेरा दुःख
    वर्ण, जाति और लिंग के महाख्यानिक विमर्शों के शोर में
    लड़खड़ाते हुए मैं कितनी दूर चलता
    मेरी आस्था सिर्फ़ आदमी में थी
    अस्मिताओं को वर्षों तक झूठ मानने वाला
    अंततः झुठला नहीं पाया अपनी अस्मिता।

    सात

    यह बहुत पहले की बात नहीं है
    जब सुंदर लोग मुझे बहुत पसंद थे
    सुंदर स्त्री देखता तो कल्पना करता
    कि यह मेरी बीवी होती
    सुंदर पुरुष देखता तो सोचता काश यह मैं होता
    दृश्य के सौंदर्य से अभिभूत
    मैं भूल चुका था सौंदर्य का अस्ल पता
    अपने ही अनगढ़ शरीर की क़ैद में थी मेरी दृष्टि
    सुंदरता की इस अमानवीय धारणा से
    मुक्ति आसान नहीं थी मेरे लिए
    मुक्ति कभी आसान नहीं होती किसी के भी लिए
    बहुत वक़्त लगता है
    अपने दिल-ओ-दिमाग़ पर उग आए
    झाड़-झंखाड़ को हटाने में।

    आठ

    उत्पीड़न और वंचना के साथ गुज़रता यह जीवन
    अपने अर्थ और अभिप्राय में दो विपरीत ध्रुवों पर रहा
    भाषा के सरकारी चमत्कारों में छुपा नहीं पाता था अपनी नग्नता
    टिकट-काउंटर की भीड़ से तो बच जाता
    पर नज़रों के ज़हर बुझे तीर से कैसे बचता
    सरहद पर लगते देशभक्ति के नारों और
    आवारा भीड़ के ज़रूरी हिस्से में तय थी मेरी अनुपस्थिति
    मंदिरों और मस्जिदों के बाहर जब भी जाती नज़र
    अपने ही शरीर से आने लगती घिन
    ताक़त के शोर से भरी इस दुनिया में
    रूई से भी हल्की थी मेरी दीनता
    मैं अकिंचन मौसम की मार से बच भी जाता
    मगर निष्ठुर रिश्तों के ताप और शीत से
    बचा नहीं पाता था अपना अंतस्तल।

    नौ

    सड़क पर किसी घायल को उठाने में
    शरीर से पहले मन आया आड़े
    मन जो बंधक था इसी शरीर का
    हमारी भाषा की सारी सुंदरता
    सोख ले गया यह शरीर
    हमारी ताक़त
    हमारी करुणा
    और हमारा उत्कट प्रेम तक छिपा लेता था यह
    विनम्रता हमारे किसी काम की नहीं थी
    हमारी गर्वोन्नत आत्मा का भार उठाने में
    कितना अक्षम था यह
    और विडंबना यह कि हमें
    अपने इसी शरीर से प्रेम करना था।
    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रत्यूष चंद्र मिश्र
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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