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रात जल्दी-जल्दी पैर बढ़ा रही है

ओझल हो रही है,

चादर तान सोई पड़ी दुनिया के ऊपर से

एक पायलट बादलों को चीरता गुज़र रहा है।

वह कुहरे में ग़ायब हो गया है

प्रवाह में खो गया है

जैसे किसी कपड़े पर टाँका,

या धोबी का चिह्न।

नीचे रात-भर जागे मयख़ाने हैं

अजनबी नगर हैं,

बैरक़ हैं, भट्टियाँ हैं,

स्टेशन हैं, ट्रेनें हैं।

विमान के डैनों की छाया

बादल पर पड़ती है

नक्षत्र झुंड बना-बना

घूम रहे हैं

और आकाशगंगा एक भयानक

मोड़ ले

किन्हीं और अजनबी

लोकों की तरफ़ निकल गई है।

अनंत अंतरिक्ष में

महाद्वीप जगमगा रहे हैं

जाग रहे हैं व्यापारी

भट्टियों, तहख़ानों में।

शुक्र या मंगल

पेरिस की छतों की आड़ से झाँक रहे हैं

कि पोस्टरों में

किस नए प्रहसन की सूचना है?

कहीं किसी अद्भुत सुदूर संसार में

खपरैलों वाली छत के तले

एक पुरानी दुछत्ती में

कोई सो नहीं पा रहा है।

तारे गिन रहा है

गोया आसमान

उसकी रात की

रोज़ाना चिंता का विषय हो।

सोओ मत, सोओ मत, काम करो

रुको नहीं, काम करो,

सोओ मत, नींद से जूझो

पायलट की तरह, तारे की तरह।

सोओ मत, मत सोओ, कलाकार

हावी मत होने दो नींद को,

तुम अनंतता की ज़मानत हो,

काल के बंदी हो।

स्रोत :
  • पुस्तक : आधुनिक रूसी कविताएँ-1 (पृष्ठ 59)
  • संपादक : नामवर सिंह
  • रचनाकार : बोरीस पस्तेरनाक
  • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  • संस्करण : 1978

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