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ओ मेरी वफ़ादार मेज़

o meri vafadar mez

मारीना त्स्वेतायेवा

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मारीना त्स्वेतायेवा

ओ मेरी वफ़ादार मेज़

मारीना त्स्वेतायेवा

और अधिकमारीना त्स्वेतायेवा

    मेरी वफ़ादार मेज़!

    शुक्रिया कि तुमने मेरा साथ दिया

    सारे रास्ते-भर, मेरी रक्षा की

    क्षतचिह्न जैसी मेरी पहचान, तुम्हारा शुक्रिया!

    मेरा लेखन ढोने वाले खच्चर!

    शुक्रिया कि कभी तुम्हारे पाँव नहीं झुके

    बोझा ढोने में, और निरंतर बढ़ते चले जाने में

    सपनों का ढेर लिए—शुक्रिया कि तुम नहीं थके!

    कठोरतम दर्पण!

    शुक्रिया कि तुमने सदा निर्मम बन

    (दुनियावी लोभों की देहरी पर)

    लौकिक आनंदों के पार रखा अपनापन,

    दूर रखा ओछी और कमीनी, घिसी-पिटी चीज़ों से।

    बलूत की लकड़ी से निर्मित मेरी अनुरक्ति,

    घृणा के हिंस्र सिंह और आक्रामक हाथी के विरुद्ध

    सबके विरुद्ध, हाँ सबके विरुद्ध, तुम हो मेरी प्रतिशक्ति।

    तुम मेरे मंच हो जो हैं मृतवत जीवित,

    धन्यवाद कि तुम होती हो जाती हो विकसित

    मेरे साथ-साथ और मेरे कारनामों के साथ-साथ

    जो मेज़ से जुड़े हैं और तुमसे होते जाते हैं विशालतर और विस्तृत

    इतने सुविस्तृत, इतने दूर-दूर तक फैले,

    इतने कि मेरा मुँह फैला रह जाता है खुलकर,

    और मेज़ का किनारा पकड़, मैं चीख़ उठती हूँ,

    कि मुझको चपेट में ले लिया है तुमने ज्वार की तरह उछलकर!

    सुबह होते ही बाँध लेते हो तुम मुझे कसकर,

    शुक्रिया कि तुम मेरे पीछे उमड़ती चलती हो,

    सारे रास्ते घेरकर तुम मुझे पकड़ लेती हो

    जैसे कोई शाह किसी शरण आई युवती को।

    वापस कुर्सी में लुढ़क जाती हूँ! शुक्रिया कि तुम मेरी

    देखभाल करती हो इतनी कि मुझको क्षणभंगुर

    लोभों से उबार लेती हो जैसे मुक्त कर लेता है

    सम्मोहन में बँधे किसी निद्राचारी को कोई जादूगर।

    युद्धों के मेरे क्षतचिन्हों को, मेरी मेज़,

    तुमने कर दिया है स्तंभों के रूप में व्यवस्थित

    मशालों की तरह : किरमिज़ी रंग ज़िंदा है

    वह मेरी करनी का स्तंभ है सुनिश्चित।

    संन्यासी के निवास-स्तंभ, मेरे अधरों के ताले,

    तुम सिंहासन हो, मेरे विस्तार हो व्यापक,

    तुम मेरे लिए जलता हुआ स्तंभ हो जैसे

    यहूदी जन-सागर का स्तंभ था प्रेरणादायक!

    इसलिए तुम चिरजीवी हो!

    मैं अपने मस्तक, कुहनी और घुटने के बल

    परीक्षा ले चुकी हूँ तुम्हारी और एक आरी की तरह

    तुम मेरे सीने को चीरती हो मेज़ की धार से केवल!

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक रूसी कविताएँ-1 (पृष्ठ 68)
    • संपादक : नामवर सिंह
    • रचनाकार : मारीना त्स्वेतायेवा
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
    • संस्करण : 1978

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