मुंबई की ठंडी क्या है
एक सुरसुरी तो है
और गाँव की
वह तो एक कँपकँपी है
क्या अद्भुत पागलपन है लोगों का हाँ भाई अद्भुत
सुरसुरी से ऊबने लगते हैं तो कँपकँपी याद आती है
कंपकंपी से ऊबने लगे तो सुरसुरी
आख़िर यह ऊब-डूब क्यों
सलाह-जवाब कई हो सकते हैं
मिज़ाज के मस्त अपने एक से एक सचित्र अंदाज़ में देते भी हैं
हद है लोग उसी सचित्र अदा से सुनते भी हैं
जैसे लपककर मुँह से हर बात झपट लेंगे
इन्हें याद आता है कउड़ा
जहाँ सामूहिक रूप से बैठ आग तापते थे
और दूसरे-तीसरे के घर की चुगली तक भी करते थे
इन्हें गादा-गचरी याद आती हैं
जिन्हें साँझ-सवेरे छौंककर फाँकने को देती थीं पत्नियाँ
इन्हें पुआल भी याद आता है जिस पर सोकर तोसक का मज़ा लेते थे
वह बोरसी याद आती है जिसकी आग पर
भूसी रख देते थे धुआँने को मच्छर भगाने के लिए
याद भी क्या याद है वाह
इन्हें अपनी वह चादर और स्वेटर तक याद आते हैं
जो अपनों के ही तन पर कब के फट चुके होंगे
इन्हें एक-एक कर जाने क्या-क्या याद आता है
ठंडी के वक़्त खोली में हों या फ़्लैट में
पूरी स्पीड से चलते पंखे के नीचे गुड नाइट की सुरक्षा में
या एसी में विदेशी मुलायम कंबल ओढ़े
ये अपनी यादों में जब एकदम से डूब-डूब जाते हैं
तब एक अर्से के बाद हो लेते हैं गाँव
लेकिन वहाँ मुंबई की ठंडी
जब जगाने लगती है बनके जवान याद
फिर से ऊबने लगते हैं
कि अपनी कहीं की भी ठंडी को
अपनी मानी के ये रंगीले
कभी पुरानी होने देना नहीं चाहते
ये जो दुविधा के दुखी भक्त हैं
माहिम की खाड़ी के किनारे जैसे-तैसे
झोंपड़ों में रहने वालों के पास कभी नहीं गए
वर्सोवा समंदर किनारे की झोंपड़ियाँ तक नहीं देखीं
ये तो धारावी की ऐसी कई जगहों को नहीं जानते
जहाँ लोग मुंबई की कही जाने वाली ठंडी की अपेक्षा
न कही जाने वाली अधिक ठंडी को हर रात झेलते हैं
बग़ैर चादर स्वेटर दस्ताना टोपी गुलबंद के
बग़ैर बोरसी पुआल के
क्या बात है नागरिक बने रहने के लिए तब भी
उन्हें ऐसी किसी याद को पालने की कभी कोई ज़रूरत नहीं होती
हो जाए तो हो जाए पुरानी
पर अपनी जड़ रहे जहाँ रहें
सोचता हूँ कहूँ तो किससे कहूँ
और सुनेगा भी तो कौन
कि ठंडी चाहे सुरसुरी हो हो कंपकंपी
यह वह नगरी है जो रहते-सहते
बात यह डाल ही देती है भेजे में
सुन रे भाऊ, गाँव की नदी में बहा दे
या मुंबई के समंदर में ये यादें
कि उस किसी भी जगह अंततः लौटने से क्या फ़ायदा
जहाँ देखते कुत्ते काटने को दौड़े
बहुत सारे पक्षियों के रंग नाम सुर स्वर भूल जाएँ
मेंड़ पगडंडियाँ रास्ते उस हर एक पल की याद दिलाएँ
जिसके मरने के बाद कोई शोक नहीं मनाया गया
रस्सी भी साँप नज़र आए
कुछ में भी कुछ को देना पड़े अपने होने का सबूत
और आख़िरी इच्छा मौत के सिवा दूसरी कोई न हो
अंततः लौटने से क्या फ़ायदा
सुन रे भाऊ
भाऊ
अपनी जड़ रहे जहाँ रहें।
- पुस्तक : विलाप नहीं (पृष्ठ 43)
- रचनाकार : कुमार वीरेंद्र
- प्रकाशन : मेधा बुक्स
- संस्करण : 2005
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