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जैसे माँ ठगी गई थी

jaise maan thagi gai thi

तजेंद्र सिंह लूथरा

तजेंद्र सिंह लूथरा

जैसे माँ ठगी गई थी

तजेंद्र सिंह लूथरा

मैं सिर्फ़ पर तोल रहा था,

और आकाश को आँखें भर देख रहा था,

मेरी अंगड़ाई के सामने छत छोटी पड़ने लगी थी,

मेरा साहस दो-चार क़दम पल्लू छोड़ रहा था,

सभी करते हैं कोशिश,

कुछ सोच समझकर,

कुछ बाल हठ में,

कुछ अधिकार से,

कुछ फ़र्ज़ में।

मेरी कोशिशें साधारण थी,

पर माँ के लिए नहीं,

अपनी उंगली छूटने की सोच भर से,

वो इतनी कमज़ोर पड़ गई थी,

की रोने लगी थी,

माँ सोचती थी मैं छोड़ जाऊँगा उसे,

लगभग सदा के लिए,

माँ शायद ठीक थी,

दूरियाँ रिश्ते तो नहीं,

पर उनके अनुभव ज़रूर बदल देती है।

आज तुम दौड़ने को ललक रहे हो,

तुम्हारी अभिव्यक्ति नये पड़ाव ढूँढ़ रही है,

तुम्हारी कोशिशें सामान्य हैं,

पर मैं असहज,

माँ जैसा बेचैन और धृतराष्ट्र जैसा कमज़ोर,

मैंने जितना छोड़ा था माँ को,

उतना आज तुम मुझे,

जितना माँ नहीं समझ पाई थी मुझे,

कुछ उतना आज मैं तुम्हें,

जैसे माँ ठीक थी,

वैसे आज मैं ठीक हूँ।

तुम पर मेरे अभिमान के आसमान,

वैसे ही छोटे पड़ गए हैं,

जैसे माँ की पीड़ा के ब्रह्माँड के आगे,

माँ के गर्व मुझ पर,

मेरे बौने स्वार्थ ने,

तुम्हें क्यूँ नहीं बनाए रखा बौना,

ये मुझसे भी जुड़े थे,

जिनके उत्तर तुमने ख़ुद हलकर डाले,

काश तुम गिर पड़ो अभी,

और मैं लपक लूँ झट से,

लगूँ दुलारने,

फिर से सिखाने लगूँ चलना,

उंगली पकड़ के,

ये बस बात की बात,

कि थोड़ा ठहर जाते,

तुम कभी भी जाते,

तुम्हारे बड़े होने का अहसास,

जी छोटा कर जाता,

प्यास इतनी ही बुझता,

जैसे मैं नहीं भूल पाया माँ को,

तुम भी मेरे साथ रहोगे,

जैसे माँ ने छुटी उंगली से चलना सीख लिया आख़िर,

मैं भी वक़्त की कोई खाली उंगली पकड़ लूँगा,

पीड़ा मर जाएगी कभी तो,

बन जाएँगे कुछ पुल नए,

पर अभी तो यूँ लगता है,

मैं वैसे ही ठगा गया हूँ,

जैसे माँ ठगी गई थी,

कई बरस पहले।

स्रोत :
  • रचनाकार : तजेंद्र सिंह लूथरा
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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