ये दुनिया अगर फ़्रांस के तुर शहर के इस क़ैदखाने जैसी है
दर्ज हैं इस दौरान जहाँ
हमारे नाम क़ैदी के बतौर,
अगर बाहर से आए अजनबी
हमारी चरागाह पे हल चला देते हैं
और अगर यूँ ही चलते रहना है आज का दौर
दर्ज नक़्शे पे करना होगा हर इक लम्हा मुझे
वक़्ते-नफ़रत के बतौर—
मैं कि जो बेहिस हूँ?
मैं कि इस वक़्त नहीं जिसका कोई कोनो-मकाँ
दिल तक में नहीं,
ऐ मेरे मुल्क, क्या मैं अब भी अपने मुल्क में हूँ?
नहीं हैं मेरे लिए आस्माँ पे उड़ते अबाबील फ़िलवक़्त
उनकी जन्नत की ज़बाँ पे है यहाँ पाबंदी,
और ये सिर के ऊपर से गुज़रते हुए अब्र
इन्हें भी भला क्या निहारना
ये तो ख़्वाबों के हैं बूढ़े फेरीवाले
थके-चुके, इनमें कहाँ कोई भरोसेमंदी!
नहीं ये वक़्त है मौजूँ कि बताऊँ मैं अपने दिल की बात,
कोई गुनगुन भी नहीं दिल में; है ये ऐसी हवा
देखते आप भी तो होंगे इस हवा की ज़ात!
और ये ख़ामुशी सौ मन के बोझ जैसी है
और ये रोशनी सूरज की—जो कुहरे जैसी
धुँधली-धुँधली-सी लगे है; हो जैसे बरसात।
वे हैं खूँखार दरिंदे
और हम फ़क़त परिंदे हैं आज़ादी के,
मेरे हमसफ़रो, हमें मालूम है अपना आसमान
तोड़नी होगी हमें ही ये रात की चुप्पी
अब भी हम क़ैदी बुन सकते हैं इक ऐसा गान।
गान जो आबे-आबशार से भी बढ़कर हो
गान जो जंग से पहले की रोटी जैसा हो
शब की तारीकी में लहराये जो परचम जैसा
और चरवाहों की आँखों में जो तड़प भर दे।
ऐसा ही इक गान फिर सुनेंगे हमवतन अपने
हमवतन अपने जो हैं मुख्तलिफ़ पेशों से जुड़े—
माँझी, कि कुली, खेत-मजूर, या कि कामगार
बुनकर, राज-मिस्त्री, किरानी या कि दुकानदार
रसोई से दफ़्तरों-कारख़ानों तक खटती हुई औरतें
खनिक, बुततराश, धोबी, बढ़ई, मोची और कुम्हार
क़लम के जादूगर, दस्तकार, कलाकार—
फिर से सुनेंगे ये सभी।
सभी फ़्रांसीसियों में ब्लांदेले11 की आत्मा ही है साँस लेती हुई
गाता है हरेक के गले से वो ब्लांदेल ही,
किसी भी नाम से पुकारें हम; मगर है वो आज़ादी ही
परिंदों के पंखों की रेशमी सरसराहट जैसी फुसफुसाहट में जो
देती है जवाब जाँबाज़ रिचर्ड के गान का।
- पुस्तक : रोशनी की खिड़कियाँ (पृष्ठ 151)
- रचनाकार : लुई आरागों
- प्रकाशन : मेधा बुक्स
- संस्करण : 2003
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