छायाभ्रम
chhayabhram
इतिहास के कौए के घोंसले में तीलियाँ जलाएगा कौन? क्या तुम्हारी
अनुर्वर आकांक्षा, क्या मेरी उत्तप्त ख़ून की बाढ़?
पर्वत के उस पार बहु दूर-दूर प्रतिध्वनि सुन रहा हूँ—प्रतिध्वनि।
किसकी प्रतिध्वनि है? ज़िंदा इंसान की या पड़ी हुई हड्डी की?
मेरी मरु शुष्क कल्पना तुम्हारा आकाश स्पर्श तक नहीं कर सकती।
कल्पना के पैर पंगु हैं। बकरे के सींग की तरह चंद्रमा के जीवन का सत्
घोर अमावस्या में मर जाता है। जैसा मेरा यौवन तुम्हारी
मुक्ता-पंक्ति दाँत की मुस्कराहट में खाक हो जाता है।
(सद्य यौवने! तुम्हारे वक्ष के विप्लव की कल्पना मैं कर सकता हूँ।)
मेरी कल्पना सैकड़ों चीज़ों को पहचानती है।
मेरी आँखों के दोनों पार 'दिखौ' का स्वप्न नाचता है। नृत्य-रता
उर्वशी से भी चमत्कार। (एक स्वप्न का अवकाश है ढाई मिनट)
डेढ़ सौ सैकंड। अजेय समय।
मेरी स्वप्न की बात सुनो। कान लगाकर सुनो। युग के
खर स्रोत में हम वर्षा की बड़ी बाढ़ तोड देंगे। तैरेंगे।
शायद तैरते-तैरते पार मिल जाएगा। नहीं तो मिट जाएँगे। और
हमारी तरह आएँगे हज़ारों जन। मौत—मौत जिसके लिए
जीवन का लाल करबी फूल है। उसके लिए आक्षेप का
फूज़ियामा अचल है। निर्विकार है। ...
आज भी उतर आया है पृथिवी के उर्वर वक्ष में झुंड-झुंड
टिड्डियों की तरह साम्राज्य-पिपासु लोलुप शकुन। आँखें
छुरे की तरह तेज़ हैं। ये फल गए हैं पृथिवी के प्रांत-प्रांत में
द्वीप-द्वीप में। द्वीपांतर में। फणिधर की तरह उन्मत्त,
विशाल।
समर-पिपासु दल अड्डा बना रहा है। मलाया के रबर-खेतों में
कंबोडिया के गहन वन में। मेकांग के पार हरे
धान के खेत के हरे कोने में।
लिप्सा का छाया-भ्रम घूर्णन कर बहता है। जल कल्लोल लाल शहर में।
नंगे पर्वत के नीरव शिखरों में। युग के अंतरंग महल में।
नवजातक शिशु के ख़ून के लिए ख़ूँख़ार गिरगिट दल
जाग रहा है। निर्वाक, निष्ठुर।
नए इंसान के अंकुर में ही मौत आई है। श्मशान में
मरण का नाच है। करुण, निर्दय।
आकाश अंधकार। आलोक? आलोक कहाँ? चारों तरफ़
षड्यंत्र-जाल है।
नव-जन्म। वहाँ प्रभात अरुण है। इंसान की हड्डी बोल रही है—
“मृत्यु किवा जय”
- पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 37)
- रचनाकार : हेम बरुआ
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
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