प्रेमिकाएँ

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सुदीप्ति

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सुदीप्ति

और अधिकसुदीप्ति

     

    पहले-पहल वे बोलती हैं तो फूल झरते हैं।
    शुरू-शुरू में जब उनकी नज़रें उठती हैं तो हवाएँ भी दम साध लेती हैं।
    फिर?
    फिर और ज़रूरी काम आ जाते हैं।
    और फिर कई सारे ग़ैरज़रूरी मसले भी उतने ही गंभीर हो उठते हैं।
    सहज होकर वे कितनी मामूली हो उठती हैं।

    ~•~

    पलकों के उठने-गिरने से दिन-रात होते हैं।
    हथेली के ज़रा-से स्पर्श से गले में हवा के बड़े घूँट सूखने लगते हैं।
    फिर (?)
    फिर वे रहती तो ‘वही’ हैं,
    पर वो ‘चार्म’ ख़त्म हो जाता।
    स्निग्धता रोमांच नहीं पैदा करती।
    लालसाएँ नए स्पर्श की बाट जोहने लगती हैं।
    परिचित हो वे कितनी सुलभ हो उठती हैं।

    ~•~

    प्रेम स्पर्शगम्य था।
    यानी जो छूने से जान पड़े वह!
    माने जो साकार हो वैसा।
    जिसके मूर्त होने पर कोई शक न हो वही।
    जिसे ठोस इंद्रियों से महसूस किया जा सके।
    जो स्पर्श्य और अनुभूत हो।
    जो भौतिक रूप से स्पष्ट और सत्य हो।
    वह मजाज़ी होकर भी हक़ीक़ी था।
    उसमें कुछ भी वायवीय नहीं,
    सब स्पर्श-योग्य और हाथ बढ़ाकर छूने जैसा।
    वही सच्चा था।

    फिर (?)

    इसी बिना पर वे बची नहीं प्रेम करने योग्य।

    ~•~

    कहीं किसी रोज़ समंदर के हाहाकार वाले शहरों की नमक भरी हवाओं में तुम्हारे आतुर चुंबनों की याद से अपरिचय का नाटक करते हुए नहीं मिलेगी वह! फिर?
    फिर नहीं मिलेगी, और क्या?
    काश! परिचय को झुठलाने जितना आसान होता स्पर्श की कामना की स्मृति का नकार भी।
    सुनो,
    पर तुम उदास मत होना।
    तुम्हारे चुंबनों ने त्वचा की रंगत में सुर्ख़ी भरी
    तुम्हारी निगाहों ने पीठ पर झूलती लटों को सँवार दिया
    तुम्हारी छुवन ने बताया कि स्पर्श कितना काम्य हो सकता है
    तुम्हारी बातों ने हँसी के गड्ढों को गुदगुदाया देर तलक।

    प्रिय कवि निज़ार क़ब्बानी की याद में

    ~•~

    तृष्णा और तृप्ति के बीच
    मोह और मन के बीच
    जो नाता होता है वही होता है तुम्हारे-उनके बीच।
    फिर?
    फिर सहती हैं मनमानी जब तलक
    मनभावन बनी रहती हैं तब तलक
    यों रहते-सहते किसी एक दिन उतर जाते हो तुम मन से;
    पानी ज्यों उतर जाता पुरइन पात से।

    ~•~

    जब नहीं मिल पातीं तो जीवन में एक कसक-सी बनकर रहती हैं।
    नाम लेने से चिलक उठती हैं भीतर।
    याद से मसोसकर मिच जाने वाला मन कभी-कभी खिल भी उठता है।
    और जो मिल जाएँ सदा के लिए?
    फिर?
    फिर रहती हैं ज्यों रहना होता है। मृगतृष्णा-सा ही तो मन में रहना संग रहना नहीं होता न?

    ~•~

    अमलतास के फूलों की तरह होती हैं
    सुबह को मुलायम,
    पहर भर बाद चटख
    और शाम तक उसी रंग की पर कुछ म्लान
    बिखरती नहीं,
    डाल पर टँगे गुच्छों-सी बस
    कुम्हला जाती हैं।

    ~•~

    मन में रहा, ‘विदा करो मुझे कोई वादा लिए बग़ैर’
    असल में कहा, ‘बस तुम्हारे लिए…
    लौटता हूँ बेहतर कल के साथ’
    फिर?
    वे तब भी जानती थीं।
    बस जानकर माना नहीं।
    …और देहरी से विदा होने तक निगाहें लौटने वाली राह पर रहीं।

    ~•~

    पहले पुकारे गए नामों को स्नेह से दुलराती हैं।
    फिर पुकारे जा सकने की संभावना वाले नामों को हल्के से सहलाती हैं।
    वे सहेज लेती हैं उतारे कपड़ों में बची तुम्हारी देह-गंध की तरह प्रेम के सारे निशान।
    तुम्हारी स्मृति में बच गई और तुम्हारी कामनाओं में समाने वाली स्त्रियों से कर सकती हैं वे स्पर्धा।
    पर कुछ कर बैठती हैं दुलार!

    ~•~

    विदा देना उसे आया नहीं
    रहना उसकी नियति नहीं चाहना रही
    सोचकर ही बाज़ दफ़े मन के भीतर चिलक चढ़ती है,
    हूक-सी उठ जाती है
    कोटरें भर-भर आती हैं
    मुस्कान खो जाती है
    फिर उसे कोई कैसे समझाए
    विदा में शांति है, सुख है?

    ~•~

    जाते हुए उसकी पीठ देखना
    और भूल जाना
    ‘कि तुम्हारी देह ने एक देह का
    नमक खाया है।’

    कि आने से पहले तय था उसका जाना
    सदा के लिए था नहीं कोई वादा

    कि तुम थी नहीं कोई भी
    एक रिक्त-स्थान में खींची लकीर से ज्यादा

    कि याद सदा चुभती है
    कॉलर बोन से नीचे छाती के भीतर वाले कोमल हिस्से में।

    ~•~

    जब भी पुकारा उसने नाम तुम्हारा
    घुलता रहा स्वाद मिसरी का
    आती रही बिन मुँहधुले दुधमुँहे की गंध
    कसती रही मुट्ठी में चोटियाँ
    चेहरे को चूमती रही समंदर की आर्द्र हवा

    फिर एक दिन
    बंद कर दिया पुकारना तुम्हारा नाम

    तब भी
    कभी किसी और से सुनकर
    एक उदास मुस्कान खिल जाती है आँखों में

    उसकी उदासी तुम्हें पसंद नहीं थी न?

    ~•~

    उसकी दाईं एड़ी पर उभर रहा है
    एक तिल
    नया-नया
    चाहती है तुम उसे कोई नाम दो
    तुम्हारा पुकारा नाम उसे सम्मोहित करता है।

    तुम्हारी आवाज़ में अपना ही नाम
    लगता है किसी अनसुने मोहक राग-सा,
    एक ऐसे आलाप-सा जो आगे बढ़ने न दे
    फिर-फिर ख़ुद को सुनवाए,
    कभी-कभी
    गीता दत्त के गाए और बार-बार सुनकर भी
    सदा नए लगते बोल-सा।

    तो फिर
    सोचो कोई नाम
    इस नए तिल के वास्ते।

    सुदक्षिणा के लिए

    ~•~

    प्रेम के बारे में बहुत कुछ कह दिया गया
    प्रेम के बारे में बहुत कुछ कहा जाएगा
    उन्हें उस लिखे के बारे में जानना नहीं
    वे करती हैं।

    एक ही जीवन में कई बार
    जबकि दुनिया के एक बड़े उम्दा क़लमकार ने
    सालों पहले कह डाला था,
    ‘असल में स्त्रियाँ पहली बार ही करती हैं प्रेम
    हर अगली बार में बस उस स्मृति की आवृत्ति रहती है’

    हर बार नए आवेग से
    यक़ीन और सपनों के साथ
    आतुरता और कामना से
    उसे देती हैं झुठला
    वे करती हैं
    प्रेम!

    ~•~

    ‘‘मेरा मन ज़रा चंचल है
    मुझमें थोड़ी कड़वाहट भी है
    ये आँखें भी आवारा हैं
    फिर कुछ-कुछ उदासी भी तारी रहती है
    पर क्या तुम भूल गए कि तुमने किन बातों के लिए मुझे चाहा था?’’

    अडेल को सुनते हुए

    ~•~

    उसे पता है
    ऐसी भी मामूली नहीं है वह
    जितना देती हैं जता
    तुम्हारी चुप्पियाँ

    उस क़दर
    विस्मृत हो जाने लायक़
    तुच्छ तो बिल्कुल ही नहीं
    जिस तरह
    तुम्हारी उपेक्षा समझा देती है

    अपने अहम में सिमटी हुई नहीं
    पर मालूम है
    अहद* नहीं भी तो क्या
    अहद ही है वह।
    __________

    * अहद का एक अर्थ : ख़ुदा/ईश्वर होता है, और
    दूसरा : एक, अपने आप में एक होना।

    ~•~

    तुम्हारी आवाज़ में
    अपना ही नाम
    कभी कानों में मिश्री घोलता है
    कभी पलकों पर सपने की थपकी देता है
    कभी अलस भरी दुपहर से शाम की जाग में ले जाता
    कभी मन के एकांत में मिलन की आतुरता जगाता
    कभी भीड़ के बीच हौले से उठी पुकार-सा गुज़रता
    कभी विकल आह्वान-सा कहीं रुकने नहीं देता।
    तुम्हारी आवाज़ में अपना ही नाम
    अच्छा लगता है
    बेहद!
    पुकारो मुझे मेरे ही नाम से।

    ~•~

    कहानियों से निकल
    पास आ बैठी थीं
    सुदूर पूरब की औरतें
    जिनकी केश में था
    भेड़ा बनाकर बाँधने का जादू
    न… नहीं सीखना था उसे
    उड़ते पाखी सुंदर जो लगते हैं
    उनको बाँधना क्या
    फिर (?)

    फिर सुचिक्कन केश दे गईं
    जादू जानने वाली पूर्वजाएँ।

    ~•~

    ऐसा नहीं कि
    वह तुम्हें कहीं और ख़ुश देखकर ख़ुश नहीं होगी!
    ख़ूब-ख़ूब होगी
    पर शायद उन पलों में
    उसकी स्मृति में कोई धूप का टुकड़ा कौंध जाए
    उसकी याद का कोई नाज़ुक पल किरच बन चुभ जाए
    स्पर्शों के कोष का सबसे कीमती कोई मोती बेपरत हो जाए

    फिर (?)

    ख़ुश तो वह ख़ूब होगी
    पर शायद उसे अपनी ख़ुशी ही छाले की तरह टीसती रहे।

    ~•~

    तुम्हारे चमत्कारी प्रभाव के दिनों में
    वह पीछे चली जाती है
    उतार के दिनों में
    परछाईं बन नि:शब्द साथ
    अहंकार के दिनों में
    आँखों में देख सच बयान का साहस भी रखती है
    कम होती हैं
    पर होती हैं ऐसी भी।

    ~•~

    होने को वह बहुत कुछ हो सकती थी
    पर तुम्हारे प्यार में
    उसने वॉन गॉग का कान होना चुना।

    ~•~

    बड़े-बड़े पहाड़ उठा लिए उसने
    बोझ से दबा नहीं मन
    भार से थमी नहीं नज़र
    दुख से कुचली नहीं आत्मा
    फिर (?)
    नहीं उठाई गई कभी तिनके भर की बात।

    ~•~

    मन का मोह भर रहा
    शब्दों के माया-जाल से बुना
    जीवन की दुपहर वाली चटक धूप ने
    माया और छाया के जाल-भ्रम को दूर कर दिया

    फिर किसी साँझ डूब
    स्मृति-तरंगों में
    सोचती हैं
    दूसरे का न सही
    प्रेम अपना तो सच ही था
    और
    मुदित-मोहित होती हैं
    अपने ही मन के भ्रमों पर।

    ~•~

    वे इतिहास की दरारों से ख़ाली पाँव
    निकल आती हैं बाहर
    बेखटके
    बिन आहट

    तुम देखते रह जाते हो
    पलकों के झिप जाने तक
    बस रोक नहीं पाते

    जाते हुए जलते हैं उनके तलुए
    जबकि बहती है नदी
    इन पत्थरों के नीचे
    तब भी झुलसना उनकी राहदारी है
    बिन तपे होती है भला कोई आवाजाही (?)
    पत्रहीन गाछ की छाँह बन बैठी रहती हैं
    भरी दुपहर में कुछ।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सुदीप्ति
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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