प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
पांडवों के वनवास के दिनों में कई ब्राह्मण उनके आश्रम गए थे। वहाँ से लौटकर वे हस्तिनापुर पहुँचे और धृतराष्ट्र को पांडवों के हाल-चाल सुनाए। धृतराष्ट्र ने जब यह सुना कि पांडव वन में बड़ी तकलीफ़ें उठा रहे हैं, तो उनके मन में चिंता होने लगी। लेकिन दुर्योधन और शकुनि कुछ और ही सोचते थे।
कर्ण और शकुनि दुर्योधन की चापलूसी किया करते थे, किंतु दुर्योधन को भला इतने से संतोष कहाँ होता! वह कर्ण से कहता—“कर्ण, मैं तो चाहता हूँ कि पांडवों को मुसीबतों में पड़े हुए अपनी आँखों से देखूँ। इसलिए तुम और मामा शकुनि कुछ ऐसा उपाय करो कि वन में जाकर पांडवों को देखने की पिता जी से अनुमति मिल जाए।”
कर्ण बोला—“द्वैतवन में कुछ बस्तियाँ हैं, जो हमारे अधीन हैं। हर साल उन बस्तियों में जाकर चौपायों की गणना करना राजकुमारों का ही काम होता है। बहुत समय से यह प्रथा चली आ रही है। इसलिए उस बहाने हम पिता जी की अनुमति आसानी से प्राप्त कर सकते हैं।”
कर्ण अपनी बात पूरी तरह से कह भी न पाया था कि दुर्योधन और शकुनि मारे ख़ुशी के उछल पड़े। राजकुमारों ने भी धृतराष्ट्र से आग्रहपूर्वक प्रार्थना की कि वह इसकी अनुमति दे दें। किंतु धृतराष्ट्र न माने।
दुर्योधन ने विश्वास दिलाया कि पांडव जहाँ होंगे, वहाँ वे सब नहीं जाएँगे और बड़ी सावधानी से काम लेंगे। विवश होकर धृतराष्ट्र ने अनुमति दे दी। एक बड़ी सेना को साथ लेकर कौरव द्वैतवन के लिए रवाना हुए। दुर्योधन और कर्ण फूले नहीं समाते थे। उन्होंने पहुँचने पर अपने डेरे ऐसे स्थान पर लगाए, जहाँ से पांडवों का आश्रम चार कोस की दूरी पर ही था।
गंधर्वराज चित्रसेन भी अपने परिवार के साथ उसी जलाशय के तट पर डेरा डाले हुए था। दुर्योधन के अनुचर जलाशय के पास गए और किनारे पर तंबू गाड़ने लगे। इस पर गंधर्वराज के नौकर बहुत बिगड़े और दुर्योधन के अनुचरों की उन्होंने ख़ूब ख़बर ली। वे कुछ न कर सके और अपने प्राण लेकर भाग खड़े हुए। दुर्योधन को जब इस बात का पता चला, तो उसके क्रोध की सीमा न रही। वह अपनी सेना लेकर तालाब की ओर बढ़ा। वहाँ पहुँचना था कि गंधर्वों और कौरवों की सेनाएँ आपस में भिड़ गईं। घोर संग्राम छिड़ गया। यहाँ तक कि कर्ण जैसे महारथियों के भी रथ और अस्त्र चूर-चूर हो गए और वे उलटे पाँव भाग खड़े हुए। अकेला दुर्योधन लड़ाई के मैदान में अंत तक डटा रहा। गंधर्वराज चित्रसेन ने उसे पकड़ लिया। फिर रस्सी से बाँधकर उसको अपने रथ पर बैठा लिया और शंख बजाकर विजय घोष किया। जब युधिष्ठिर ने सुना कि दुर्योधन व उसके साथी अपमानित हुए हैं, तो उसने गंभीर स्वर में कहा—“भाई भीमसेन! ये हमारे ही कुटुंबी हैं। तुम अभी जाओ और किसी तरह अपने बंधुओं को गंधर्वो के बंधन से छुड़ा लाओ।”
युधिष्ठिर के आग्रह पर भीम और अर्जुन ने कौरवों की बिखरी हुई सेना को इकट्ठा किया और वे गंधर्वों पर टूट पड़े। अंतत: गंधर्वराज ने कौरवों को बंधनमुक्त कर दिया। इस प्रकार अपमानित कौरव हस्तिनापुर लौट गए।
पांडवों के वनवास के समय दुर्योधन की तो इच्छा राजसूय यज्ञ करने की थी, किंतु पंडितों ने कहा कि धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर के रहते उसे राजसूय यज्ञ करने का अधिकार नहीं है। तब ब्राह्मणों की सलाह मानकर दुर्योधन ने वैष्णव नामक यज्ञ करके ही संतोष कर लिया।
इसी समय की बात है कि महर्षि दुर्वासा अपने दस हज़ार शिष्यों को साथ लेकर दुर्योधन के राजभवन में पधारे। दुर्योधन के सत्कार से ऋषि बहुत प्रसन्न हुए और कहा—“वत्स, कोई वर चाहो, तो माँग लो।”
दुर्योधन बोला—“मुनिवर! प्रार्थना यही है कि जैसे आपने शिष्यों-समेत अतिथि बनकर मुझे अनुगृहीत किया है, वैसे ही वन में मेरे भाई पांडवों के यहाँ जाकर उनका भी सत्कार स्वीकार करें और फिर एक छोटी सी बात मेरे लिए करने की कृपा करें। वह यह कि आप अपने शिष्यों समेत ठीक ऐसे समय युधिष्ठिर के आश्रम में जाएँ, जब द्रौपदी पांडवों एवं उनके परिवार को भोजन करा चुकी हों और जब सभी लोग आराम से बैठे विश्राम कर रहे हों।” उन्होंने दुर्योधन की प्रार्थना तुरंत मान ली। दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ युधिष्ठिर के आश्रम में जा पहुँचे। युधिष्ठिर ने भाइयों समेत ऋषि की बड़ी आवभगत की और उनका सत्कार किया। कुछ देर बाद मुनि ने कहा—“अच्छा! हम सब अभी स्नान करके आते हैं। तब तक भोजन तैयार करके रखना।” कहकर दुर्वासा शिष्यों समेत नदी पर स्नान करने चले गए।
वनवास के प्रारंभ में युधिष्ठिर से प्रसन्न होकर सूर्य ने उन्हें एक अक्षयपात्र प्रदान किया था और कहा था कि बारह बरस तक इसके द्वारा मैं तुम्हें भोजन दिया करूँगा। इसकी विशेषता यह है कि द्रौपदी हर रोज़ चाहे जितने लोगों को इस पात्र में से भोजन खिला सकेगी; परंतु सबके भोजन कर लेने पर जब द्रौपदी स्वयं भी भोजन कर चुकेगी, तब इस बर्तन की यह शक्ति अगले दिन तक के लिए लुप्त हो जाएगी।
जिस समय दुर्वासा ऋषि आए, उस समय सभी को खिला-पिलाकर द्रौपदी भी भोजन कर चुकी थी। इसीलिए सूर्य का अक्षयपात्र उस दिन के लिए ख़ाली हो चुका था।
द्रौपदी बड़ी चिंतित हो उठी और कोई सहारा न पाकर उसने परमात्मा की शरण ली। इतने में श्रीकृष्ण कहीं से आ गए और सीधे आश्रम के रसोईघर में जाकर द्रौपदी के सामने खड़े हो गए। बोले—“बहन कृष्णा, बड़ी भूख लगी है। कुछ खाने को दो।”
द्रौपदी और भी दुविधा में पड़ गई।
कृष्ण बोले—“ज़रा लाओ तो अपना अक्षयपात्र। देखें कि उसमें कुछ है भी या नहीं।”
द्रौपदी हड़बड़ाकर बरतन ले आई। उसके एक छोर पर अन्न का एक कण और साग की पत्ती लगी हुई थी। श्रीकृष्ण ने उसे लेकर मुँह में डालते हुए मन में कहा—यह भोजन हो, इससे उनकी भूख मिट जाए।
द्रौपदी तो यह देखकर सोचने लगी—“कैसी हूँ मैं कि मैंने ठीक से बर्तन भी नहीं धोया! इसलिए उसमें लगा हुआ अन्न-कण और साग वासुदेव को खाना पड़ा। धिक्कार है मुझे!” इस तरह द्रौपदी अपने-आपको ही धिक्कार रही थी कि इतने में श्रीकृष्ण ने बाहर जाकर भीमसेन को कहा—“भीम, जल्दी जाकर ऋषि दुर्वासा को शिष्यों समेत भोजन के लिए बुला लाओ।”
भीमसेन उस स्थान पर गया, जहाँ दुर्वासा ऋषि शिष्यों-समेत स्नान कर रहे थे। नज़दीक जाकर भीमसेन देखता क्या है कि दुर्वासा ऋषि का सारा शिष्य-समुदाय स्नान करके भोजन भी कर चुका है।
शिष्य दुर्वासा से कह रहे थे—“गुरुदेव! युधिष्ठिर से हम व्यर्थ में कह आए की भोजन तैयार करके रखें। हमारा तो पेट भरा हुआ है। हमसे उठा भी नहीं जाता। इस समय तो हमारी ज़रा भी खाने की इच्छा नहीं है।”
यह सुनकर दुर्वासा ने भीमसेन से कहा—“हम सब तो भोजन कर चुके हैं। युधिष्ठिर से जाकर कहना कि असुविधा के लिए हमें क्षमा करें।” यह कहकर ऋषि अपने शिष्यों सहित वहाँ से रवाना हो गए।
panDvon ke vanvas ke dinon mein kai brahman unke ashram ge the. vahan se lautkar ve hastinapur pahunche aur dhritarashtr ko panDvon ke haal chaal sunaye. dhritarashtr ne jab ye suna ki panDav van mein baDi taklifen utha rahe hain, to unke man mein chinta hone lagi. lekin duryodhan aur shakuni kuch aur hi sochte the.
karn aur shakuni duryodhan ki chaplusi kiya karte the, kintu duryodhan ko bhala itne se santosh kahan hota! wo karn se kahta—“karn, main to chahta hoon ki panDvon ko musibton mein paDe hue apni ankhon se dekhun. isliye tum aur mama shakuni kuch aisa upaay karo ki van mein jakar panDvon ko dekhne ki pita ji se anumti mil jaye. ”
karn bola—“dvaitavan mein kuch bastiyan hain, jo hamare adhin hain. har saal un bastiyon mein jakar chaupayon ki ganna karna rajakumaron ka hi kaam hota hai. bahut samay se ye pratha chali aa rahi hai. isliye us bahane hum pita ji ki anumti asani se praapt kar sakte hain. ”
karn apni baat puri tarah se kah bhi na paya tha ki duryodhan aur shakuni mare khushi ke uchhal paDe. rajakumaron ne bhi dhritarashtr se agrahpurvak pararthna ki ki wo iski anumti de den. kintu dhritarashtr na mane.
duryodhan ne vishvas dilaya ki panDav jahan honge, vahan ve sab nahin jayenge aur baDi savadhani se kaam lenge. vivash hokar dhritarashtr ne anumti de di. ek baDi sena ko saath lekar kaurav dvaitavan ke liye ravana hue. duryodhan aur karn phule nahin samate the. unhonne pahunchne par apne Dere aise sthaan par lagaye, jahan se panDvon ka ashram chaar kos ki duri par hi tha.
gandharvraj chitrsen bhi apne parivar ke saath usi jalashay ke tat par Dera Dale hue tha. duryodhan ke anuchar jalashay ke paas ge aur kinare par tambu gaDne lage. is par gandharvraj ke naukar bahut bigDe aur duryodhan ke anuchron ki unhonne khoob khabar li. ve kuch na kar sake aur apne praan lekar bhaag khaDe hue. duryodhan ko jab is baat ka pata chala, to uske krodh ki sima na rahi. wo apni sena lekar talab ki or baDha. vahan pahunchna tha ki gandharvon aur kaurvon ki senayen aapas mein bhiD gain. ghor sangram chhiD gaya. yahan tak ki karn jaise maharathiyon ke bhi rath aur astra choor choor ho ge aur ve ulte paanv bhaag khaDe hue. akela duryodhan laDai ke maidan mein ant tak Data raha. gandharvraj chitrsen ne use pakaD liya. phir rassi se bandhakar usko apne rath par baitha liya aur shankh bajakar vijay ghosh kiya. jab yudhishthir ne suna ki duryodhan va uske sathi apmanit hue hain, to usne gambhir svar mein kaha—“bhai bhimasen! ye hamare hi kutumbi hain. tum abhi jao aur kisi tarah apne bandhuon ko gandharvo ke bandhan se chhuDa lao. ”
yudhishthir ke agrah par bheem aur arjun ne kaurvon ki bikhri hui sena ko ikattha kiya aur ve gandharvon par toot paDe. anttah gandharvraj ne kaurvon ko bandhanmukt kar diya. is prakar apmanit kaurav hastinapur laut ge.
panDvon ke vanvas ke samay duryodhan ki to ichchha rajasuy yagya karne ki thi, kintu panDiton ne kaha ki dhritarashtr aur yudhishthir ke rahte use rajasuy yagya karne ka adhikar nahin hai. tab brahmnon ki salah mankar duryodhan ne vaishnav namak yagya karke hi santosh kar liya.
isi samay ki baat hai ki maharshi durvasa apne das hazar shishyon ko saath lekar duryodhan ke rajabhvan mein padhare. duryodhan ke satkar se rishi bahut prasann hue aur kaha—“vats, koi var chaho, to maang lo. ”
duryodhan bola—“munivar! pararthna yahi hai ki jaise aapne shishyon samet atithi bankar mujhe anugrihit kiya hai, vaise hi van mein mere bhai panDvon ke yahan jakar unka bhi satkar svikar karen aur phir ek chhoti si baat mere liye karne ki kripa karen. wo ye ki aap apne shishyon samet theek aise samay yudhishthir ke ashram mein jayen, jab draupadi panDvon evan unke parivar ko bhojan kara chuki hon aur jab sabhi log aram se baithe vishram kar rahe hon. ” unhonne duryodhan ki pararthna turant maan li. durvasa rishi apne shishyon ke saath yudhishthir ke ashram mein ja pahunche. yudhishthir ne bhaiyon samet rishi ki baDi avabhgat ki aur unka satkar kiya. kuch der baad muni ne kaha—“achchha! hum sab abhi snaan karke aate hain. tab tak bhojan taiyar karke rakhna. ” kahkar durvasa shishyon samet nadi par snaan karne chale ge.
vanvas ke prarambh mein yudhishthir se prasann hokar surya ne unhen ek akshayapatr pradan kiya tha aur kaha tha ki barah baras tak iske dvara main tumhein bhojan diya karunga. iski visheshata ye hai ki draupadi har roz chahe jitne logon ko is paatr mein se bhojan khila sakegi; parantu sabke bhojan kar lene par jab draupadi svayan bhi bhojan kar chukegi, tab is bartan ki ye shakti agle din tak ke liye lupt ho jayegi.
jis samay durvasa rishi aaye, us samay sabhi ko khila pilakar draupadi bhi bhojan kar chuki thi. isiliye surya ka akshayapatr us din ke liye khali ho chuka tha.
draupadi baDi chintit ho uthi aur koi sahara na pakar usne parmatma ki sharan li. itne mein shrikrishn kahin se aa ge aur sidhe ashram ke rasoighar mein jakar draupadi ke samne khaDe ho ge. bole—“bahan krishna, baDi bhookh lagi hai. kuch khane ko do. ”
draupadi aur bhi duvidha mein paD gai.
krishn bole—“zara lao to apna akshayapatr. dekhen ki usmen kuch hai bhi ya nahin. ”
draupadi haDabDakar bartan le aai. uske ek chhor par ann ka ek kan aur saag ki patti lagi hui thi. shrikrishn ne use lekar munh mein Dalte hue man mein kaha ye bhojan ho, isse unki bhookh mit jaye.
draupadi to ye dekhkar sochne lagi—“kaisi hoon main ki mainne theek se bartan bhi nahin dhoya! isliye usmen laga hua ann kan aur saag vasudev ko khana paDa. dhikkar hai mujhe!” is tarah draupadi apne aapko hi dhikkar rahi thi ki itne mein shrikrishn ne bahar jakar bhimsena ko kaha—“bhim, jaldi jakar rishi durvasa ko shishyon samet bhojan ke liye bula lao. ”
bhimasen us sthaan par gaya, jahan durvasa rishi shishyon samet snaan kar rahe the. nazdik jakar bhimasen dekhta kya hai ki durvasa rishi ka sara shishya samuday snaan karke bhojan bhi kar chuka hai.
shishya durvasa se kah rahe the—“gurudev! yudhishthir se hum vyarth mein kah aaye ki bhojan taiyar karke rakhen. hamara to pet bhara hua hai. hamse utha bhi nahin jata. is samay to hamari zara bhi khane ki ichchha nahin hai. ”
ye sunkar durvasa ne bhimasen se kaha—“ham sab to bhojan kar chuke hain. yudhishthir se jakar kahna ki asuvidha ke liye hamein kshama karen. ” ye kahkar rishi apne shishyon sahit vahan se ravana ho ge.
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हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।