सच है—'अपना सोचा होत नहिं, प्रभु चेता तत्काल'—
'अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति यममन्दिरम्।
शेषा जीवितूमिच्छन्ति किमश्चर्यमतः परम्॥'
बराबर देख रहे हैं, आज यह गए, कल उनकी बारी आई, परसों उन्हें चिता पर सुला आये। पर जो बचे हुए है, उन्होंने यही मन में ठान रखा है कि हम अजर-अमर और अविनाशी है, सदा स्थायी रहेंगे। यह तो कभी उनको कलुषित चित्त में धंसता ही नहीं कि एक दिन आवेगा कि हम शव-रूप में ऐसी ही चिता पर सोलाए जाएँगे। न जानिए; हज़ार, लाख या करोड़ वर्ष की नेह गाड़े हुए निश्चिंत बैठे हैं। निस्संदेह इससे बढ़कर अचरज की बात और क्या होगी? हमारे मन में आता है कि ऐसों ही के लिए कई वर्ष से प्लेग मनुष्य के जीवन को पानी का बुल्ला सा करता, मानो चितावनी दे रहा है। पर काहे को कोई चेते और क्यों चेते? किसी बात की कमी नहीं, रुपयों से खचाखच खज़ाना भरा है। 24 घंटे के दिन-रात में 36 भाँति की उमंग और होंसिले मन में उठते रहे हैं। सच है—
'दिनमपि रजनी सायं प्रात: शिशिर वसन्ती पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि न मुंचत्याशावायुः।’
चार भाइयों के बीच में एक लड़का है। बाप, माँ, चाचा, ताऊ, बाबा, नाना, बड़े लोग सब दिन-रात मुँह जोहते रहते हैं और अपने प्रिय पुत्र की सोहावनी सूरत पर बार-बार पानी पी रहे हैं। अँगुलियाँ दिन गिनते बीतता है कि कब वह समय आवे कि हम अपने ललन का ब्याह करें। बहू घर में आवै, चंद्रसेनी हार मुँह दिखाई में भेंटकर उसका चाँद सा मुखड़ा देख अपना जी जुड़ावें। हमारे सब मनोरथ सफल हों, बड़ी से बड़ी महफ़िल साज सात भाँति की मिठाई परसे, चार भाई-बिरादरी का जूठन पड़े, हमारा घर पवित्र हो। वर्षों के पहिले से नगर की प्रसिद्ध वार-वनिताओं को बयाना दे दिया गया, ब्याह की तैयारियाँ हो रही थी कि अचानक ललन को ज्वर आया, दवा-दारू, झार-फूँक, टोना-टनमन में सैकड़ों रुपयों को फूँक डाला। ज़रा भी फ़ुर्सत न हुई, गिलटी प्रगट हो आई, दो ही तीन दिन में ललनजी जहाँ के थे, वहीं चल बसे।
बड़ी से बड़ी डिगरी हासिल किए हुए हैं। छात्र मंडली में जिनकी कुशाग्र बुद्धि की शाहरत है। बड़ी-बड़ी उमंग मन में भरी हुई हैं कि कंपटीशन में हम विलाइतवालों को अपने नीचे करेंगे; मातृभूमि के लिए हम ऐसी कोई बात कर गुज़रें, जिसमें भारत के सत्पुत्र कहलावें। आहार-विहार की गड़बड़ी से एक दिन दो-चार दस्त और कै हुई; दोस्तों ने समझा अजीर्ण है, दौड़-धूप करने लगे, इधर इनका हाल बिगड़ता ही गया, 12 घंटे के भीतर ही समाप्त हो गए। यह किसी ने न समझा कि अंत तक देव ने एक बड़ा भारी कॉलेज खोल रखा है, सर्चविद्या पारंगत इनको वहाँ का प्रोफ़ेसर किया चाहते हैं। यह न्याय है या अन्याय, इसका विचार कभी मन में न आया; अधम से अधम काम करने में कभी हिचक न हुई; कई लाख और करोड़ की माया जोड़ने में बराबर महा अर्थ पिशाच रहे आये; फिर भी दिन-रात सोचा करते हैं, 50 हज़ार फलाने आसामी के बाक़ी हैं, एक लाख अमुक सेठ के नीचे दबा है और वह टाट पलटने पर है; 25 हज़ार ब्याज का चिथरूमल गोधनदास से अब तक न वसूल हुआ।
ऐसी ही ऐसी चिंता में व्यग्र एक रात को नींद न आई, अधिक शीत के कारण फ़ाज़िल आ टूटा, ज़बान बंद हो गई। मुँह टेढा पड़ गया, सुबह होते-होते चल बसे। साथ अपने एक पाई भी न ले गए। एक-एक पैसे के लिए जेर-बार हैं; रोज़ का भोजन बड़ी कठिनाई से चलता है। दैव संयोग से एक ऐसा भाग्यवान कुल-उजागर जन्मा कि उसने कुल की प्रतिष्ठा चौगुनी कर दी; मिट्टी छूते सोना होने लगा; बरसाती नदी की बाढ़ के समान धन-संपत्ति सब ओर से आ इकट्ठा होने लगी; दौलत की बाढ़ के साथ होंसिले और उमंग भी बढ़ने लगे; संगीन पक्का मकान छोड़ दिया गया; जड़ाऊ ठोस गहने पिटने लगे; ज़मींदारी की भी ख़रीद होने लगी; बात-बात में नफ़ासत और वज़ेदारी को तराश-खराश पल्ले दर्जे तक पहुँची। अकस्मात् वह पुरुष-रत्न जिसकी बदौलत यह सब कुछ था, चल बसा। सूर्यास्त होने पर अंधकार सा छा गया! जिनके मिज़ाज कुतुबमीनार की ऊँचाई तक चढ़ गए थे, अब कौड़ी के तीन-तीन हो गए। इस तरह इस कालचक्र की अद्भुत महिमा झूरी भर भरी ढरकावे की भाँत कुछ समझ में नहीं आती।
अब दूसरी ओर देखिए, कुछ अकिल नहीं काम करती, क्यों इस कालचक्र का चक्कर ऐसा टेढ़ा-मेढ़ा है? युग-व्यवस्था के संबंध में पुराणवालों की पुरानी अकिल चाहे जो मान बैठी हो, हमें तो कुछ ऐसा ही जँचता है कि यह युग-व्यवस्था भी इसी कालचक्र की विकराल गति है। जहाँ और जब इस चक्र का चक्कर अपने अनुकूल है, तहाँ और तब सतयुग है, उसका प्रतिकूल होना ही कलियुग है। भारत पर वह चक्कर नितांत प्रतिकूल है, इसलिए यहाँ घोर कलियुग बरत रहा है। विलायत पर अनुकूल है, वहाँ शुद्ध सतयुग राज करता है; वहाँ वालों में जो बुराइयाँ हैं, वे भी भलाई में शामिल कर ली गई हैं। उसी कालचक्र को प्रतिकूलता से हमारे में बची-खुची जो दो-एक भलाई थी, वह भी बुराई समझ ली गई। कालचक्र की अनुकूलता तथा प्रतिकूलता का इससे बढ़कर दूसरा उदाहरण और क्या होगा कि आदि में जो यहाँ सौदागरी करने के बहाने आये, वे अब समस्त भारत के काश्मीर से कन्याकुमारी तक प्रखंड एकचक्र पृथ्वी के राज्य के अधिकारी हो गए। वही यहाँ वाले जिनको अनादि काल से यहाँ की भूमि से मातृवात्सल्य रहा और जिनकी नस-नस में यहाँ की जलवायु का असर चुभा हुआ है, वे कालचक्र की प्रतिकूलता से निकाल बाहर कर दिये गए; बैठे-बैठे ललचाते और मुँह ताकते रह जाते हैं। जो कुछ सार पदार्थ और रस है, उसका आनंद एक तीसरा भोग रहा है। ये खूदड़ और उच्छिष्ट ही से अपना पेट पाल लेने को परम सौभाग्य मान रहे थे, सो उसमें भी उस चक्र की वक्र कुटिल गति ने ऐसा खलल डाल रक्खा है कि चिरकाल से दुर्भिक्ष और अवर्षण इन्हें निश्चिंत नहीं रहने देता। इस समय कई और उपद्रवों से कुछ स्वास्थ्य था, तो प्लेग अपनी बहादुरी प्रगट कर रहा है। इससे किसी तरह गल छुटैगा, तो कोई दूसरी बला आ घेरैगी।
बड़े-बड़े दार्शनिक, वैज्ञानिक, योगी तथा भविष्य के जानने वाले किसी ने इसका भेद न पाया कि क्यों ऐसा होता है। कोई कहता हैं, यह ईश्वर की इच्छा है। दूसरे मानते हैं, नहीं-नहीं, पूर्व-संचित का यह परिणाम है: 'जो जस कोन सो तस फल चाखा'; और लोग सिद्ध करते हैं, यह सितारों की गर्दिश है। संशोधक और रिफ़ार्मर जुदा ही बान भर रहे हैं कि अपने यहाँ प्रचलित कुरीतों को उठाय समाज का संशोधन क्यों न कर डालें, जिसमें हमारे में कौमियत और एकता आवे, मुल्की जोश पैदा हो, कालचक्र की जो वक्र गति है; ऋजु गति हो जाए। कोई कहता है, यह बाल-विधवाओं की आह है; दूसरे कहते हैं, यह बाल विवाह का सब दोष है इत्यादि-इत्यादि। हमारे धूर्त-शिरोमणि इसी पर ज़ोर दे रहे हैं कि ब्राह्मणों का मान और हिंदू-धर्म पर विश्वास उठता जाता है, उसी का यह सर्व फल है; कोई-कोई दबी ज़बान हिम्मत बाँध कह डालते हैं, यह सब राजा के पाप या पुण्य का परिणाम है। जो हो, वास्तव में यह क्या गोरखधंधा है, कुछ नहीं खुलता।
सच पूछो तो आदमी की शैतानी अकिल एक हारी है, तो इसी बात में कि वह कुछ हल नहीं कर सकती कि आज क्या है, कल क्या होगा और इसी को इस संसार इंजिन का बड़ा इंजीनियर अपने हाथ में रखे हुए है। यह इस कालचक्र के चक्कर ही का प्रभाव है कि रोम, इंद्रप्रस्थ, अयोध्या, पाटलिपुत्र, कन्नौज आदि बड़ी-बड़ी राजधानियाँ जो किसी समय आदमियों का जंगल थीं, जिनकी लंबाई-चौड़ाई योजन और कोसों के हिसाब से थी और जहाँ की मनुष्य-संख्या 40 लाख, 20 लाख, 10 लाख की गिनती की थी, वह इस समय बहुधा तो उजाड़ घुग्घुओं के घोंसलों के लिए उपयुक्त है, कोई-कोई नाम मात्र को अब तक विद्यमान है। लंदन, पेरिस, कलकत्ता, बॉम्बे, जो एक समय बहुधा तो उजाड़ जंगल तथा जलमग्न अनूप थे, वहाँ अब आकाश से बात करते हुए गगन-संपृक्त प्रासाद, स्वर्णमंडित मंदिर खड़े हुए हैं; जहाँ चंचला लक्ष्मी अपनी चंचलता से मुँह मोड़ चिरस्थायिनी हो समुद्र की तरंग-सी हिलकोरें मार रही है, इत्यादि। इस कालचक्र की महिमा का पार कौन पा सकता है, तब हमारी क्षुद्र लेखनी किस बूते पर इस चक्कर में पड़ने का अधिक साहस करे? पढ़ने-वालों के चित्त-विनोदार्थ इतना ही सही।
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