लेखकों से प्रार्थना
lekhkon se pararthna
रोचक तथ्य
[मार्च, 1915 की 'सरस्वती में प्रकाशित]
'सरस्वती' किसी व्यक्ति-विशेष या किसी एक समुदाय को प्रसन्न करने के लिए नहीं। उसके जितने ग्राहक हैं, यथाशक्ति सबको प्रसन्न रखने और सबको लाभ पहुँचाने के लिए वह प्रकाशित होती है। जिस लेख या कविता से इस उद्देश्य की सिद्धि हो सकती है उसी को सरस्वती में स्थान मिल सकता है। जिससे न मनोरंजन ही हो सकता है, न ज्ञान-वृद्धि ही हो सकती है, न और ही किसी तरह का लाभ पहुँच सकता है, उसे न प्रकाशित करने के लिए हम विवश हैं। सरस्वती के इस उद्देश्य पर ध्यान न देकर अनेक लेखक लेख भेजा करते हैं और यदि वे नहीं स्वीकार किए जाते तो वे व्यर्थ ही शून्य होते हैं। कुछ तो क्रुद्ध भी हो जाते हैं और पत्र द्वारा अपना क्रोध असंयत भाषा में प्रकट करने लगते है। किसी की भाषा व्याकरण-विरुद्ध है तो किसी की इतनी क्लिष्ट है कि मतलब ही समझ में नहीं आता। किसी की भाषा यदि ठीक है, तो वक्तव्य में कुछ तत्त्व नहीं। कोई अपने किसी मित्र का सचित्र चरित छपाना चाहता है, तो कोई अपनी किसी कार्य सिद्धि के लिए अपने किसी अफ़सर का। ऐसे महाशयों को प्रसन्न रखना हमारे लिए सर्वथा असंभव है। उनसे हमारी प्रार्थना है कि वे हमें ‘सरस्वती’ के ग्राहक समुदाय का सेवक समझे। सेवक का धर्म है कि वह अपने स्वामी की सेवा निष्कपट होकर करे, ऐसा करने से यदि कुछ लोग उससे अप्रसन्न हो जाएँ तो इसमें उसका कुछ भी दोष नहीं। ‘सरस्वती’ के ग्राहकों में हिंदू, मुसलमान और ईसाई भी हैं—जैन, बौद्ध और पारसी भी हैं। अतएव यथा संभव, इन सभी को प्रसन्न रखना ‘सरस्वती’ का कर्त्तव्य है। सभी धर्मों के अनुयायी अनुकरणीय चरित पुरुषों के सचित्र वृतांत सरस्वती में प्रकाशित हो सकते हैं। परंतु जिन्हें कोई नहीं जानता और जिन्होंने संसार में कोई अनुकरणीय काम नहीं किया उनके चरित, किसी व्यक्ति-विशेष या समुदाय विशेष को प्रसन्न करने के लिए नहीं प्रकाशित हो सकते।
कुछ महाशय मनमाने लेख लिख भेजते हैं और कहते हैं कि हमारी भाषा का संशोधन करके उन्हें छाप दो। इस पर हमारा निवेदन है कि हम उनकी आज्ञा का पालन करने को सदा तैयार हैं। पर जिसे वे अच्छा और उपयोगी लेख समझते हैं उसे यदि हम अपने अनुभव और विचार से वैसा न समझें तो क्या किया जाए। अथवा यदि संशोधन-कार्य की मात्रा बहुत अधिक हो तो हम किस प्रकार उनकी आज्ञा का पालन करें। सामर्थ्य के बाहर की बात तो हो नहीं सकती। उनसे हमारा यह विनय है कि सरस्वती में प्रकाशन के लिए आए हुए लेखों में यदि यथेष्ट उपयोगिता या मनोरंजन की सामग्री होगी तो उन्हें हम अवश्य ही प्रकाशित कर देंगे और लेखकों के कृतज्ञ भी होंगे। लेख भेजने के लिए जब हम सुलेखकों से रोज़ ही प्रार्थना किया करते हैं तब बिना माँगे ही आए हुए लेख, यदि के उपयोगी हैं तो, हम क्यों न प्रकाशित करेंगे?
एक बात और है। जो महाशय यह चाहते हों कि लेख पसंद न आने पर उन्हें लौटा दिया जाए उनको चाहिए कि वे यह बात लिख दिया करें और लौटाने के लिए टिकट भी भेज दिया करें। ऐसा न करने और दो-दो तीन-तीन महीने बाद लेख वापस मँगाने पर हम उनकी आज्ञा का परिपालन न कर सकेंगे।
जिनके लेख ‘सरस्वती’ में छपने के लिए आते हैं और नहीं छपते हैं, आशा है, हमारी इस क़ैफ़ियत से असल बात समझ जाएँगे और अकारण ही कोप न करेंगे। धमकियाँ और कुत्सापूर्ण उलाहने भेजकर उन्हें अपना और हमारा भी समय व्यर्थ न खोना चाहिए। किसी किसी को शायद यह बवाल हो कि हमने यह नोट बिना यथेष्ट कारण ही लिखा है। उनके संतोष के लिए यहाँ पर हम एक प्रमाण देते हैं। किसी महाशय की कोई कविता हमने ‘सरस्वती’ में न प्रकाशित की। इस पर आपने एक और कविता भेजकर अपने मनोभाव व्यक्त किए हैं। यह कविता बनारस से आई है। पर कवि महाशय ने अपना नाम नहीं दिया। कविता ज्यों की त्यों नीचे प्रकाशित की जाती है—
श्रीमन्!
समस्तगुणमण्डित दिव्य-धाम
स्वीकारिए मम कृताञ्जलिक प्रणाम।
है आ रही यह समीप पवित्र होली
होली मनोमलिनता बस अन्त होली॥
यों आइए इधर भी कुछ दृष्टि कीजै
मैं हूँ 'वही कवि' मुझे पहचान लीजै।
क्यों रुष्ट आप मुझसे इतने हुए हैं
सद्भाव भी हृदय के कुम्हले हुए हैं॥
जो रोष का उचित कारण ज्ञात होता
तो भी मुझे हृदय में कुछ तोष होता।
जो है स्वभाव जिसका टलता नहीं है।
श्रीकण्ठ को विष कभी खलता नहीं है॥
होते प्रसन्न बुध काव्यकलाप से हैं
होते न रुष्ट हित सात्विक लाप से हैं।
जी श्रेष्ठ हैं सतत वे रखते दया हैं
मेरे समान शठ क्या रखते हया हैं॥
श्रीमान से प्रथम साहस माँगता हूँ
आगे किया कुछ निवेदन चाहता हूँ।
मेरा यहाँ पर सभी कुछ जान दोष
है आप को उचित ही करना न रोष॥
ये एक बात मम मानस में गड़ी है
चिन्ता सदैव जिसकी मुझको बड़ी है।
गम्भीर भाव अभिलेखन के चितेरे
छापे नहीं बहुत सुन्दर लेख मेरे॥
या तो किसी समय का बदला लिया हो
या लेशमात्र कुछ लाभ उठा लिया हो।
निष्पक्ष होकर यहाँ यदि न्याय कीजै
मैं क्या कहूँ; न स्वयमेव विचार लीजै॥
हाँ, दोष एक मुझ से यह हो गया है
जो आपके निकट लेख चला गया है।
जो जानता कि मुझ से इतनी रुखाई
तो मैं कभी न करता इतनी ढिठाई॥
क्या सत्य बात जग में छिपती कहीं है?
जो बात है, विदित क्या मुझ को नहीं है?
मेरी विचित्र कविता रसहीन जानी
सो आपने इसलिए 'वह' भी न मानी॥
जो व्यर्थ शुद्ध कृति में त्रुटियाँ बतावें
देखें न दोष अपना, अपनी लगावें।
हिन्दी धुरन्धर बनें समकाव्यधाम
मेरा उन्हें प्रथम ही त्रिविध प्रणाम॥
मेरी विचित्र कविता लहरी रसों की
शोभा प्रसाद-गुण संचित मानसों की।
कैसी निगूढ़ नवभाववती सती है
अन्तर्जला विमल शान्त सरस्वती है॥
मैं मन्दबुद्धि जब सोलह वर्ष का था
अच्छे प्रकार कविता करने लगा था।
सो आज मैं बरस तेइस एक का हूँ
उत्साहहीन अब हो सब छोड़ता हूँ॥
जो आप निश्चय इसे अब भी न छापें
जो आप बात मन की अब भी न भाँपें।
तो लेखनी अब नितांत विराम लेगी
श्रीमान का हर घड़ी फिर नाम लेगी॥
जो आपने न परवा इस बात की की
रक्खी उठा न कुछ और स्वकीय जी की।
तो आपको शपथ है मम लेखनी की
हिन्दी-सुभक्त-जनमानस मोहिनी की॥
दीजै इसे अब निकाल सरस्वती में
हो तो सही कुछ परितोष जी में।
हो जाइए अब कृपा कर आप तुष्ट
श्रीमान का चरणसेवक एक 'दुष्ट'॥
इस पर टीका करना व्यर्थ है। रुष्ट हुए हैं कविजी, अपराध रुष्ट होने का आपने लगाया है हम पर! अस्तु, आशा है, अब आपको 'परितोष' हो जाएगा और आप अपनी लेखनी को चुपचाप न बैठने देंगे।
- पुस्तक : महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड-5 (पृष्ठ 507)
- संपादक : भारत यायावर
- रचनाकार : महावीरप्रसाद द्विवेदी
- प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
- संस्करण : 2007
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