भोजन के बाद सोफा पर बैठकर सिगरेट के कश खींचते हुए जैसे कोई ज़िंदादिल मज़ेदार अनुभवी व्यक्ति अपने मनोरंजक अनुभव सुना रहा हो—कुछ-कुछ इसी तरह का है सच्चे निबंध का वातावरण। इसीलिए निबंध को ‘किसी मज़ेदार और बहुश्रुत व्यक्ति के भोजनोत्तर एकांत संभाषण’ की संज्ञा दी गई है। यह सच है कि प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्तिगत बातें सुनना हमें अच्छा नहीं लगता—एक नीरस व्यक्ति हमारी इच्छा के विरुद्ध जो स्पष्ट शब्दों—में चाहे व्यक्त न हो रही हो किंतु जिसकी ध्वनि में संदेह की कहीं गुँजाइश नहीं, जब अपनी सर्वसामान्य रूखी-सूखी-थोथी बातें हम पर लादता चला जाता है उस समय ऐसी बेचैनी का अनुभव होता है जिसे भुक्तभोगी ही जानते हैं। उस समय इच्छा होती है कि किसी प्रकार यह अपना पचड़ा समाप्त करे और अपना रास्ता ले-हठात् हम मन ही मन कहने लगते हैं—भगवान् बचावे हमें ऐसे दोस्तों से! किंतु ठीक इसके विपरीत हमारी इच्छा होती है कि एक अनुभवी व्यक्ति हमें अपने दिलचस्प अनुभव सुनाता ही चला जाए—शर्त यह है कि सुनानेवाला व्यक्ति बहुश्रुत हो, उसके सुनाने का ढंग रोचक हो और वह व्यक्ति भी स्वयं मज़ेदार हो। ऐसा व्यक्ति हमें अपनी बातों से मुग्ध कर सकता है—हँसी-हँसी में वह इस प्रकार का ज्ञान और अनुभव बाँटता चलता है जिसको हम स्वीकारते चले जाते हैं। बात की बात में ही वह हमें जीवन की बड़ी-बड़ी सारगर्भित बातें सुना जाता है—न हमें इसका पता चलता है कि क्यों उसने ये बातें सुनाई, न हम यही जान पाते हैं कि क्यों हमने ये सब बातें सुनीं और क्या हमारे पल्ले पड़ा—ऐसी ही हवा को साथ लेकर सच्चे निबंध का सौरभ फैलता है। किसी ने निबंध को ‘हँसी हँसी में ज्ञान वितरण’ के नाम से जो अभिहित किया है वह यथार्थ ही जान पड़ता है।
डॉ. जानसन की दी हुई निबंध की परिभाषा तो प्रसिद्ध ही है अर्थात् निबंध मन की उस शैथिल्य भरी तरंग का नाम है जिसमें क्रम-बद्धता नहीं मिलती, जिसमें विचारों की परिपक्वता का भी अभाव दिखलाई पड़ता है। डॉ. जानसन स्वयं अपने ढंग के एक अच्छे निबंध-लेखक थे, और यह भी ध्यान में रखने की बात है कि निबंध-विषयक उनकी परिभाषा भी अत्यंत लोकप्रिय हुई किंतु फिर भी उनकी परिभाषा को हम निर्दोष नहीं मान सकते और सच तो यह है कि किसी भी परिभाषा के लिए निर्दोष बन सकना उतना सरल काम नहीं जितना आपातत: दिखलाई पड़ता है। निबंध मे क्रमबद्धता न हो यह तो माना जा सकता है किंतु यह कैसे स्वीकार किया जाय कि निबंध उस महाभाग की रचना है जिसे बुद्धि का अजीर्ण हो गया हो! कहाँ तो अजीर्ण बुद्धि का वमन और कहाँ हँसी-हँसी मे ज्ञान विज्ञान का वितरण—इन दोनों परिभाषाओं मे कितना अंतर, कितना वैपरीत्य है! संभव है इस प्रकार की असंबद्ध बुद्धि की अजीर्णता को भी निबंध की सज्ञा मिल गई हो किंतु जिन्होंने मानटेन, ऐडीसन, लैंब, काउले, वेकन, कार्लाइल तथा सरदार पूर्ण सिंह एवं आचार्य शुक्ल आदि के निबंधों को पढ़ा है उनको साक्षी देकर कहा जा सकता है कि ‘बुद्धि की अजीर्णता’ का प्रयोग करने के लिए उनके निबंध नहीं हैं।
‘ऐसे’ शब्द की उद्भावना फास के मानटेन द्वारा हुई जो निबंध का जनक समझा जाता है। उसका कहना था कि मेरी इस प्रकार की रचना साहित्य की एक विशिष्ट नूतन पद्धति के संबंध मे प्रयास मात्र है—ऐसा निर्लिप्त प्रयास जिसमें एक पक्ष के ग्रहण और दूसरे के त्याग का आग्रह नहीं। दुनिया जैसी है वैसी ही रहे, चरम सत्य का जो बहुमुखी रूप है वह भी ज्यों का त्यों धरा रहे किंतु सच्चा निबंध लेखक अपनी आँखों से दुनिया को जिस रूप में देखता है, सत्य के अनंतमुखी देव के जितने मुख उसने देखे हैं, उनका वह उद्घाटन करता चलता है। वस्तुतः देखा जाए तो वह दुनिया का उतना दर्शन नहीं कराता जितना अपनी ही मूर्ति का दर्शन दुनिया को कराता है।
पहले यह समझा जाता था कि लेखक को निबंध में अपना व्यक्तित्व प्रदर्शित नहीं करना चाहिये। यही कारण है कि निबन्धों में उत्तम पुरुष सर्वनाम का प्रयोग भी वर्जित कर दिया गया। हास्य को भी तब कोई विशेष महत्व प्राप्त न था। किंतु इस प्रकार की स्थिति बहुत समय तक न रही। स्वाभाविकता से अपने भावों को प्रकट कर देना ही जिसमें दर्पण के प्रतिबिंब की तरह लेखक का व्यक्तित्व झलक उठे सच्चे निबंध का लक्षण समझा गया। जिस निबंध में वर्ण्य-विषय तो हो किंतु व्यक्ति नदारद हो वह सच्चे अर्थ में निबंध ही नहीं। तथा निबंध-लेखक वर्ण्य-विषय का उतना प्रस्फुटन नहीं करता जितना वह अपने व्यक्तित्व को प्रस्फुटित करता है। कभी-कभी विषय भी रुचिकर हो सकता है किंतु निबंध में सभी दिलचस्पी इसी कारण पैदा होती है कि कहनेवाला एक व्यक्ति है। लेखक का व्यक्तित्व जितना ही आकर्षक होगा, उतना ही वह हमें अधिकाधिक प्रभावित करेगा। यदि दो लेखक एक ही ढंग से किसी विषय का वर्णन करें तो इसका मतलब तो यह हुआ कि उस विषय ने ही लेखकों पर अपना अधिकार जमा लिया है, लेखकों का उस पर कोई अधिकार नहीं। मानटेन जैसा निबंध लेखक वर्ण्य-विषय के साथ स्वच्छंद विहार करता है। उसकी पुस्तक का जो स्पर्श करता है, वह वस्तुत: मानटेन के व्यक्तित्व का ही स्पर्श करता है। इस प्रकार का निबंध-लेखक उन असंख्य छोटी-छोटी वस्तुओं में भी ऐसे-ऐसे तत्त्व ढूँढ़ निकालता है जिनकी पाठकों ने स्वप्न में भी कल्पना न की होगी। उसके विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सृष्टि की कोई भी वस्तु तुच्छ व नगण्य नहीं है। लेखक के व्यक्तित्व से स्पंदित होकर वह महत्त्वपूर्ण हो उठती है। आकर्षण की वस्तु वास्तव में विषय नहीं, लेखक का व्यक्तित्व ही आकर्षित करनेवाला होता है।
किसी भी प्रकार के नियम को मानकर चलना ऐसे निबंध-लेखक की प्रकृति के प्रतिकूल है किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि इस प्रकार के लेखक की कृति छिन्न-भिन्न निरर्थक वस्तु होती है। मानटेन अपने निबंधों में विषयांतर करता-सा जान पड़ता है किंतु अंत में वह सूत्र को इस प्रकार घुमाता है कि विषयांतर नहीं रह जाता, उसमें भी एक प्रकार की कलात्मक संपूर्णता आ जाती है। मानटेन के ढंग के सच्चे निबंध तभी लिखे जा सकते हैं जब—
1 — लेखक का व्यक्तित्व आकर्षक हो।
2 — उसका हृदय संवेदनशील हो।
3 — सूक्ष्म निरीक्षण की उसमें असाधारण शक्ति हो।
4 — जीवन की विशद अनुभूति हो।
5— मनुष्यों तथा समाज के रीति-रिवाजों से उसका सजीव परिचय हो।
bhojanke baad sophapar baithkar sigretke kash khinchte hue jaise koi zindadil mazedar anubhvi vyakti apne manoranjak anubhav suna raha ho—kuchh kuch isi tarah ka hai sachche nibandh ka vatavarga. isiliye nibandh ko ‘kisi mazedar aur bahushrut vyakti ke bhojanottar ekaant sambhashan’ ki sangya di gai hai. ye sach hai ki pratyek vyaktiki vyaktigat baten sunna hamein achchha nahin lagta—ek niras vyakti hamari ichchha ke viruddh jo aspasht shabdon—men chahe vyakt na ho rahi ho kintu jiski dhvanime sandehki kahin gunjaish nahin, jab apni sarvsamanya rukhi sukhi thothi baten hampar ladta chala jata hai us samay aisi bechaini ka anubhav hota hai jise bhuktabhogi hi jante hain. us samay ichchha hoti hai ki kisi prakar ye apna pachDa samapt kare aur apna rasta le hathat hum man hi man kahne lagte hain—bhagvan bachave hamein aise doston se! kintu theek iske viprit hamari ichchha hoti hai ki ek anubhvi vyakti hamein apne dilchasp anubhav sunata hi chala jaye—shart ye hai ki sunanevala vyakti bahushrut ho, uske sunaneka Dhang rochak ho aur wo vyakti bhi svayan majedar ho. aisa vyakti hame apni batose mugdh kar sakta hai—hansi hansi mein wo is prkarka gyaan aur anubhav bantta chalta hai jisko hum svikarte chale jate hain. batki batmen hi wo hame jivanki baDi baDi saragarbhit baten suna jata hai—na hamein iska pata chalta hai ki kyon usne ye baten sunai, na hum yahi jaan pate hain ki kyon hamne ye sab baten sunin aur kya hamare palle paDa—aisi hi hava ko saath lekar sachche nibandh ka saurabh phailta hai. kisine nibandhko ‘hansi hansi mein gyaan vitran’ ke namse jo abhihit kiya hai wo yatharth hi jaan paDta hai.
Daa० janasanki di hui nibandhki paribhasha to prasiddh hi hai arthat nibandh manki us shaithilya bhari tarangka naam hai jisme kram vaddhta nahin milti, jismen vicharonki paripakvtaka bhi abhav dikhlai paDta hai. Daa० jansan svayan apne Dhang ke ek achchhe nibandh lekhak the, aur ye bhi dhyaan mein rakhne ki baat hai ki nibandh vishayak unki paribhasha bhi atyant lokapriy hui kintu phir bhi unki paribhasha ko hum nirdosh nahin maan sakte aur sach to ye hai ki kisi bhi paribhasha ke liye nirdosh ban sakna utna saral kaam nahin jitna apattah dikhlai paDta hai. nibandh mae krambaddhta na ho ye to mana ja sakta hai kintu ye kaise svikar kiya jaay ki nibandh us mahabhagki rachna hai jise buddhi ka ajirn ho gaya ho! kahan to ajirn buddhi ka vaman aur kahan hansi hansi mae gyaan vigyan ka vitran—in donon paribhashaon mae kitna antar, kitna vaiparitya hai! sambhav hai is prakar ki asambaddh buddhi ki ajirnta ko bhi nibandh ki sagya mil gai ho kintu jinhonne manten, aiDisan, laimb, kaule, vekan, karlail tatha sardar poorn sinh evan acharya shukl aadi ke nibandhon ko paDha hai unko sakshi dekar kaha ja sakta hai ki ‘buddhiki ajirn taa’ ka prayog karneke liye unke nibandh nahin hain.
‘aise’ shabd ki udbhavana phaas ke manten dvara hui jo nibandh ka janak samjha jata hai. uska kahna tha ki mero is prakar ki rachna sahitya ki ek vishisht nutan paddhati ke sambandh mae prayas maatr hai—aisa nirlipt prayas jis mae ek paksh ke grhan aur dusre ke tyagka agrah nahin. duniya jaisi hai baisi hi rahe, charam satyka jo bahumukhi roop hai wo bhi jyonka tyon dhara rahe kintu sachcha nibandh lekhak apni ankhon se duniya ko jis roop mein dekhta hai, satyke yanantamukhi dev ke jitne mukh usne dekhe hain, unka wo udghatan karta chalta hai. vastut dekha jaye no wo duniyaka utna darshan nahin karata jitna apni hi murtika darshan duniya ko karata hai.
pahle ye samjha jata tha ki lekhak ko nibandh mein apna vyaktitv prarshit nahin karna chahiye. yahi karan hai ki nivandhonme uttam purup sarv namka prayog bhi varjit kar diya gaya. hasya ko bhi tab koi vishesh mahatv praapt na tha. kintu is prkarki sthiti bahut samay tak na rahi. svabhavikta se apne bhavon ko prakat kar dena hi jismen darpan ke prativimvki tarah lekhak ka vyaktitv jhalak uthe sachche nibandh ka lakshya samjha gaya. jis nibandh mein varnya vishay to ho kintu vyakti nadarad ho wo sachche arthaman nibandh hi nahin. satha nibandh lekhak vanyan vishay ka utna prasphutan nahi karta jitna wo apne vyaktitvko prasphutit karna hai. kabhi kabhi vipay bhi ruchi kar ho sakta hai kintu nibandh mein sabhi dilchaspi isi karan paida hoti hai ki kahnevala ek vyakti hai. lekhak ka vyaktitv jitna hi akarshak hoga, utna hi wo hamein adhikadhik prabhavit karega. yadi do lekhak ek hi Dhang se kisi vishayka varnan karen to iska matlab to ye hua ki us vipayne hi lekhkon par apna adhikar jama liya hai, lekhkon ka us par koi adhikar nahin. manten jaisa nibandh lekhak varnya vishay ke saath svachchhand vihar karta hai. uski pustak ka jo sparsh karta hai, wo vastutah manten ke vyaktitv ka hi sparsh karta hai. is prakar ka nibandh lekhak un asankhya chhoti chhoti vastuon mein bhi aise aise tattv DhoonDh nikalta hai jinki paath ko ne svapn mein bhi kalpana na ki hogi. uske vivechan se ye aspasht ho jata hai ki srishti ki koi bhi vastu tuchchh va naganya nahin hai. lekhak ke vyaktitv se spandit hokar wo mahatvpun ho uthti hai. akarshan ki vastu vastav mae vishay nahin, lekhak ka vyaktitv hi akarshit karnevala hota hai.
kisi bhi prakar ke niyam ko mankar chalna aise nibandh lekhak ki prakritike pratikul hai kintu iska ye arth nahin ki is prkarke lekhakki kriti chhinn bhinn nirarthak vastu hoti hai. manten apne nibandhon mein vishyantar karta sa jaan paDta hai kintu ant mein wo sootr ko is prakar ghumata hai ki vishyantar nahin rah jata, usme bhi ek prakar ki kalatmak sampurnta aa jati hai. manten ke Dhang ke sachche nibandh tabhi likhe ja sakte hain jab—
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हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।