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अलौकिक शिशु-गायक मास्टर मदन

alaukik shishu gayak mastar madan

महावीर प्रसाद द्विवेदी

महावीर प्रसाद द्विवेदी

अलौकिक शिशु-गायक मास्टर मदन

महावीर प्रसाद द्विवेदी

और अधिकमहावीर प्रसाद द्विवेदी

    रोचक तथ्य

    कहा जाता है कि 15 साल की उम्र में मास्टर मदन को किसी ने दूध में पारा खिला दिया जिससे उनकी मौत हो गई

    जो लोग जन्म-परंपरा को नहीं मानते—जो लोग इस बात पर विश्वास नहीं करते कि पूर्व-जन्म के संस्कार बीज रूप से बने रहते हैं और समुचित उत्तेजना पाते ही फूलने और फलने लगते हैं—उन्हें मास्टर मदन को देखना चाहिए, उसका गाना सुनना चाहिए और यह सोचना चाहिए कि इस शिशु में उत्पन्न हुई इस अलौकिक गान-शक्ति का कारण क्या है। तीन वर्ष के बालक अच्छी तरह बातचीत भी नहीं कर सकते। किसी अपरिचित आदमी को देखते ही भागकर माँ की गोद में छिपे रहते है, और पाँच वर्ष के होने पर भी क, ख, ग, तक का भी शुद्ध-शुद्ध उच्चारण नहीं कर सकते। पर मास्टर मदन को देखिए। यह शिशु इस समय केवल 5 वर्ष का है। पर गाने में यह इतना प्रवीण है कि यदि मियां तानसेन भी इसे गाते सुनते तो इसे गोद में उठा लेते और प्रसन्नता से पागल होकर नाचने भी लगते।

    मास्टर मदन का पूरा नाम मदनमोहन चटर्जी है। यह अद्भुत बालक कलकत्ते की एमहस्ड स्ट्रीट में रहने वाले बाबू वसंतकुमार चटर्जी का पुत्र है। वसंत बाबू को संगीत-विद्या से बड़ा प्रेम है। आप हारमोनियम बहुत अच्छा बजाते हैं। एक दिन की बात सुनिए। मदन उस समय केवल दो वर्ष नौ महीना का था। वसंत बाबू ने देखा कि मदन बड़े मज़े में गा रहा है। आवश्यकतानुसार कभी वह अपनी आवाज़ को धीमी कर देता है और कभी ख़ूब उच्च स्वर से गाने लगता है। उन्हें यह तमाशा देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। उसकी परीक्षा करने के लिए उन्होंने हारमोनियम बजाना शुरू किया और मदन से कहा, गाओ। मदन ने हारमोनियम पर गाया। ख़ूब अच्छा गाया। ताल-स्वर में उसने कहीं भी भूल की। वसंत बाबू अवाक् हो गए। उन्होंने समझा, यह शिशु उस जन्म का कोई प्रसिद्ध गायक है। संगीत-विद्या का बीज इसके हृदय में जो संस्कार-रूप से विद्यमान था वह मेरे हारमोनियम का सस्वर वादन सुनकर उग आया।

    1908 ईसवी की देवी-पूजा का उत्सव बाबू एच. सी. राय चौधरी के मकान पर हुआ। यह महाशय कलकत्ते की मल्लिक लेन में रहते हैं। उस समय मदन तीन वर्ष दो महीने का था। पिता के साथ मदन भी इस उत्सव में गया। सैकड़ों प्रतिष्ठित पुरुषों के सामने वहाँ उसका पहला सर्वसाधारण गाना हुआ। मदन ने कई एक ऐसे गाने गाए जिन्हें गाना बड़ा कठिन काम था, जिन्हें केवल अभ्यस्त और अच्छे गाने वाले ही गा सकते थे। इस तरह सबको प्रसन्न करके और सबका आशीर्वाद लेकर मास्टर मदन हँसता हुआ अपने घर आया। बस इसी समय से मास्टर मदन के इस अपूर्व करतब की प्रशंसा आरंभ हुई। उसकी प्रसिद्धि दिन-दिन बढ़ने लगी। बड़े-बड़े उत्सवों और हुआ समारोहों में उसे निमंत्रण दिया जाने लगा और वह श्रोताओं को अपने गान से मुग्ध करने लगा।

    1909 के अगस्त में अलीपुर जाइंट मैजिस्ट्रेट, मिस्टर डी. एल. राय के मकान पर मदन ने अपना सुरीला गाना सुनाया। उस समय मदन का वय केवल चार वर्ष का था। कलकत्ते के कितने ही सम्मान्य श्रोता उपस्थित थे। गायक था अकेला मदन पर उसने सबको अपने मनोहर और ताल-स्वर-विशुद्ध गान से प्रसन्न और पुलकित कर दिया। दस-दस पंद्रह-पंद्रह वर्ष तक अभ्यास करने वाले गायकों और गायिकाओं से जो बात नहीं हो सकती वह मास्टर मदन ने कर दिखाई।

    मार्च 1910 में कलकत्ते के राय सिताबचंद बहादुर ने अपने स्थान पर सायंकाल एक भोज दिया। महाराजा कासिम बाज़ार, महाराजा निशिपुरी, माननीय बाबू राधाचरणपाल आदि अनेक बहुत बड़े-बड़े सज्जन निमंत्रित हुए। इन सबका मनोरंजन करने के लिए आहूत हुआ मास्टर मदन। इस चार वर्ष के बालक को पिता वसंत बाबू गोद में लेकर यहाँ पहुँचे। उसे देखकर उपस्थित सज्जनों को उसके गायक होने में संदेह होने लगा। चार वर्ष का बालक कहीं गाता है! यह उम्र खेलने-कूदने, रोने और शोरगुल मचाने की है, गाने की नहीं। बहुतेरे सज्जनों ने यहाँ तक विकल्प किया कि इतनी बड़ी सभा को देखकर यह बालक गाने के बदले ज़रूर रोने लगेगा। पर इस तरह के सारे संकल्प-विकल्पों को मदन ने भ्रमात्मक सिद्ध कर दिया। डरना और रोना तो दूर रहा, उसने उस उतने बड़े समाज को बड़ी बेपरवाही से देखा। हारमोनियम बजने लगा। बालक मदन ने भी आलाप आरंभ किया। सामाजिकों का आश्चर्य उत्थित होकर बढ़ने लगा। मदन भी गान का आरंभ करके सबको मुग्ध करने लगा। उसकी स्पष्ट, मधुर और सुरीली आवाज़ को सुनकर श्रोता जन अलौकिक आनंद-सागर में निमग्न होने लगे। मदन का निर्दोष, स्वर-ताल पूर्ण और शास्त्र सम्मत गाना सुनकर सब लोग बड़े ही प्रसन्न हुए। सबके हृदय में यही भावना उद्भूत हुई कि इतनी थोड़ी उम्र में इतना अच्छा गाना ईश्वर की कृपा और पूर्वजन्म के संचित संस्कार के बिना शक्य नहीं।

    सितंबर 1910 में मास्टर मदन की पाँचवीं वर्षगाँठ थी। इस उपलक्ष्य में मदन के पिता ने एक उत्सव किया। कलकते के बड़े-बड़े धनी-मानी उपाधि-धारी प्रतिष्ठित पुरुष वसंत बाबू की 'बाड़ी' से पधारे। मदन का सुर श्रोतृ सुखद है और रूप नेत्र सुखद। गौर वर्ण मदन रेशमी कोट, मख़मली टोपी पहनकर और कई एक सोने के पदक छाती पर लटकाकर सबके सामने उपस्थित हुआ। सर गुरुदास बैनर्जी के चरणों पर गिरकर उसने उन्हें माला पहनाई। उन्होंने आशीर्वाद दिया जिस तरह तुम इन इतने सज्जनों को प्रसन्न कर रहे हो उसी तरह परमेश्वर प्रसन्न करेगा। मदन की समर्पित माला को सर गुरुदास चलते समय उसी को प्रसादस्वरूप पहना गए। इस अवसर पर मदन की तबीयत अच्छी थी। वह बहुत अशक्त था। बीमारी से हाल ही में उठा था। तथापि उसने कई चीज़ें गाई। सुनकर सब लोग प्रेमानंद से पुलकित हो उठे। उसके छोटे-छोटे हाथों का यथासमय उठना और उसका सशास्त्र और सस्वर गाना एक अद्भुत दृश्य था। जिन्होंने मदन को गाते देखा है वे कहते हैं कि उस श्रवण और दर्शन का आनंद वर्णन की वस्तु नहीं। उसका अनुभव देखकर ही हो सकता है। उसे सुनने ही से यह जाना जा सकता है कि उसमें क्या जादू है—उससे कितना और किस तरह का आनंद प्राप्त हो सकता है।

    मदन एक अलौकिक बालक है। संगीत-विद्या में मदन की बराबरी करने वाला अन्य बालक संसार में आज तक और कहीं उत्पन्न नहीं हुआ। नामी-नामी गवैयों की यही राय है। योरप और अमेरिका तक अख़बारों में मदन की प्रशंसा से पूर्ण लेख मिलते हैं। उनके लेखक भी यही बात कहते हैं। उनका भी यही मत है कि मदन अपना सानी नहीं रखता। वह भारत का भूषण है। मदन ने यद्यपि अभी तक वर्णमाला अच्छी तरह नहीं सीखी तथापि उसे कोई एक सौ गीत कंठाग्र हैं और उन सबको वह विशुद्धता-पूर्वक गाता है। इस समय तक उसे एक चाँदी का ओर पंद्रह सोने के पदक मिल चुके है। मदन-चिरंजीव।

    [अप्रैल, 1911 की 'सरस्वती' में प्रकाशित]

    स्रोत :
    • पुस्तक : महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड-5 (पृष्ठ 315)
    • संपादक : भारत यायावर
    • रचनाकार : महावीरप्रसाद द्विवेदी
    • प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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