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हिन्दी के वैभव की दास्तान वाया ‘हिन्दवी उत्सव’

‘हिन्दवी उत्सव’ का चौथा संस्करण, रविवार 28 जुलाई 2024 को त्रिवेणी कला संगम, मंडी हाउस, नई दिल्ली में सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। 

आइए जानते हैं ‘हिन्दवी उत्सव’ से लौटकर अतिथि-लेखकों ने आयोजन को लेकर क्या लिखा—

‘विमर्श सत्र : सहना और कहना’ में शामिल हुए वक्ता हरिराम मीणा

“रेख़्ता, हिन्दवी ने अपने चार साल पूरे कर लिए। इस अवसर पर रेख़्ता फ़ाउंडेशन द्वारा दिनांक 28 जुलाई, 2024 को दिल्ली के त्रिवेणी सभागार में एक दिवसीय हिन्दवी उत्सव का आयोजन किया गया। संस्कृत के प्रकांड मनीषी राधावल्लभ त्रिपाठी जी द्वारा उद्घाटन किया गया। 

प्रथम सत्र में मीडिया पर पैनल डिस्कशन हुआ, जिसमें सर्वश्री ओम थानवी व बद्रीनारायण और मनीषा पांडे जी ने भागीदारी की। विनीत जी ने मोडरेटर का दायित्व निभाया। 

दूसरे सत्र में अस्मितामूलक विमर्शों पर चर्चा हुई, जिसमें श्री रमाशंकर सिंह, प्रोफ़ेसर सुधा सिंह के साथ मुझे अवसर दिया गया। मोडरेटर का ज़िम्मा अणुशक्ति सिंह जी पर था। मैंने अपनी बात के केंद्र में आदिवासी वैचारिकी को निम्न बिंदुओं के सहारे रखने का प्रयास किया : 

आज भारत ही नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व के सामने मनुष्य की दृष्टि से विकास के लाभ के असमान वितरण और संपूर्ण पृथ्वी के लिहाज़ से पारिस्थितिकीय असंतुलन सबसे बड़े संकट हैं। उक्त संकटों का समाधान अथवा पृथ्वी के समक्ष बेहतर भविष्य का कोई आदर्श विकल्प है तो वह मुझे आदिवासीयत अर्थात Tribalism के रूप में सूझता है। 

आदिवासी कौन?

विश्व की संपूर्ण मानवता के आदि पूर्वज आदिवासी जीवन शैली को अपनाए हुए थे। 

अकादमिक क्षेत्र में जब आदिवासी की बात की जाती है, तो इसके दो मतलब होते हैं; एक—आदिवासी समाज का एक तबका। दूसरे—आदिवासी समाज की जीवन शैली, वैचारिकी, समझ, संस्कृति और दर्शन आदिवासी समाज के प्रति भ्रामक दृष्टिकोण; जंगली-बर्बर और रोमांटिक आदिवासीयत; भारतीयता।

ऋग्वेद का एक सूत्र हैं—‘ऋतस्य यथा प्रेत’ अर्थात् प्राकृत नियमों के अनुसार जीओ’। आदिवासी जीवन इसी दार्शनिक सूत्र पर आधारित है।

भगवान राम के जीवन में से यदि वनवास के चौदह बरस निकाल दिए जाएँ तो उनके जीवन में हमारे लिए प्रेरणादायक क्या बचेगा? इसी अवधि में उन्हें केवट, शबरी, हनुमान, सुग्रीव, अंगद, जामवंत, जटायु, नल व नील, विभीषण इत्यादि मिलते हैं, जिनके सहयोग से वे एक बड़ा पौराणिक युद्ध जीतते हैं। 

भगवान श्रीकृष्ण गौ-पालन की महिमा बताते हुए मानवेतर जीव-जगत के साथ सह-अस्तित्व का पाठ पढ़ाते हैं। आदिवासी समाज में पहले से ही सभी प्राणियों की उपयोगिता का सिद्धांत प्रचलित है। मनुष्य के इस दंभ का पूर्णत: निषेध है कि ‘चौरासी लाख योनियों में मनुष्य श्रेष्ठतम है’।

महात्मा बुद्ध संघ के माध्यम से सामूहिकता और भगवान महावीर अपरिग्रह के बहाने निजी पूँजी की भयावहता से बचने का संदेश देते हैं। आदिवासी समाज में निजी संपत्ति की अवधारणा का पहले से ही नकार है।

महावीर स्वामी के ‘अपरिग्रह’, भगवान बुद्ध का ‘संपत्तिविहीन भिक्षु’, कबीर की ‘माया महाठगिनी’ व महात्मा गांधी के ‘लालची मनुष्य की भर्त्सना’ में जो दर्शन निजी संपत्ति को सारे झगड़ों की जड़ बताता है, उसी समझ को लिए ‘आदिम साम्यवाद’ से अब तक आदिवासी समाज में चल रहा है।

कबीर कहते हैं—‘माया महाठगिनी हम जानी’ तो उनका स्पष्ट मत है कि माया अर्थात् निजी संपत्ति ही सारे झंझटों की जड़ है। आदिवासी समाज का ऐसा दृष्टिकोण पहले से ही चला आ रहा है।

महात्मा गाँधी कहते हैं कि ‘यह धरती अनंत काल तक सभी प्राणियों का पेट भरने की क्षमता रखती है, किंतु किसी एक भी लालची मनुष्य को संतुष्ट नहीं कर सकती।’ आदिवासी इसे पहले से ही मानता रहा है।

आदिवासीयत/विश्व दृष्टि; आदिवासीयत में पृथ्वी दर्शन भरा हुआ है।

आदिवासी विमर्श का मुद्दा समाज के किसी तबके के सुख-दुखों तक सीमित नहीं होकर संपूर्ण मानवता, अन्य जीव-जंतु, प्रकृति, पृथ्वी सहित अखिल सृष्टि की पक्षधरता है। इसके लिए हमें आदिवासीयत को समझना चाहिए।

आदिवासीयत अर्थात् प्रकृति-तत्वों एवं मानवेतर प्राणियों के साथ सह-अस्तित्व की भावना लिए जीवन को जीना।

पृथ्वी को ‘माँ’ तो सभी कहते हैं किंतु आदिवासी समाज उसे असल में ‘माँ’ मानते हुए विकास के नाम पर प्राकृतिक संपदा का अंधाधुंध दोहन का विरोध करता है।

संपूर्ण पृथ्वी के कुल जैवभार (Biomass) का 82% वनस्पतियाँ, 12.99% बेक्टीरिया एवं 5% अन्य है। मानव प्रजाति का बायोमास मात्र 0.01 फीसदी है, जबकि पृथ्वी को सबसे अधिक हानि यही मनुष्य पहुँचा रहा है।

भील समुदाय में ऐसे बुज़ुर्ग व्यक्ति आज भी मिल जायेंगे जो सुबह जागते ही धरती को छूकर यह प्रार्थना करते हैं कि ‘हे धरती माता, जीवनयापन की विवशता के कारण दिन भर मुझे तुम्हारी देह पर पाँव रखकर चलना पड़ेगा। इस पाप के लिए मुझे क्षमा करना।’

विभिन्न समुदायों के गणचिह्नों के माध्यम से आदिवासी समाज प्रकृति तत्वों व मानवेतर जीवजगत के प्रति आत्मीय व संरक्षणीय दृष्टिकोण अपनाता रहा है।

दिल्ली, पंजाब व हरियाणा जैसे समृद्ध व शिक्षित कहे जाने वाले क्षेत्रों में लिंगानुपात के असंतुलन की समस्या है। इसके ठीक उलट संतोषजनक लिंगानुपात हमें आदिवासी अंचलों में मिलता है। 

ग़ैर-आदिवासी शहरों अथवा देहातों के कुलीन तथा मध्य वर्गों के परिवारों में घरेलू हिंसा अधिक मात्र में मिलती है। यही स्थिति दुष्कर्म की घटनाओं की हैं। स्त्री के प्रति पुरुषवादी मानसिकता को दहेज़ हत्याओं, लड़का व लड़की के प्रति असमान व्यवहार, महिला उत्पीड़न, वेश्यावृत्ति, देह व्यापार, विज्ञापन आदि के लिहाज़ से भी देखा जा सकता है। कन्या भ्रूण हत्या व सती जैसी बर्बर प्रथाएँ उच्च वर्णों में प्रचलित रही हैं। आदिम समुदायों में यह स्थिति नहीं मिलेगी।

आदिवासी भाषाओं के मौलिक स्वरूप में बलात्कार जैसा शब्द एवं स्त्री सूचक कोई गाली नहीं है।

अंडमान के आदिवासी पेट भरने के लिए उन जीवों का आखेट करते हैं, जो बहुतायत में हैं, और उनका संरक्षण करते हैं जो बिरले हैं।

अंडमान और सुनामी 

स्वायत्तता, समानता, सामूहिकता जैसे जिन नैतिक मूल्यों को दर्शनशास्त्र के ‘मूल्य मीमांसा’ विभाग में सम्मिलित किया जाता है वे सब आदिवासी जीवन का हिस्सा है।

किसी ने बस्तर के आदिवासी मुखिया को यह सलाह दी कि ‘आपके यहाँ जंगली भैंस काफ़ी हैं। इन्हें पालकर इनके दूध का व्यवसाय आपको करना चाहिए।’ मुखिया ने ज़वाब दिया ‘क्या बेतुकी बात करते हो, इन भैंसों के दूध पर इनकी संतानों का प्राकृतिक अधिकार है। हम उसे कैसे छीन सकते हैं?’

बैगा आदिवासियों का अभी भी यह विश्वास है कि ‘जंगल व जमीन जीवनयापन के लिए पर्याप्त हैं। पृथ्वी के साथ अन्य कोई छेड़खानी करना ईश्वर की इच्छा के विरूद्ध होगा।’

सच्चा लोकतंत्र बहुमत की जगह सर्वमत पर आधारित होता है। यह विशेषता आदिम गणतंत्रों से सीखी जा सकती है।

भारतीय संविधान का एक मात्र मंदिर छत्तीसगढ़ के एक आदिवासी गाँव में है। इसका सीधा-सा अर्थ है कि आदिवासी लोग संविधान में अटूट श्रृद्धा रखते हैं।

आदिवासी समाज की परंपरागत तकनीकी और औषध ज्ञान पद्यति हज़ारों सालों से प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण आदिवासी समाज ने ट्रस्टी अथवा कस्टोडियन की हैसियत से किया है।

आज विश्व भर में ‘भौतिक समृद्धि बनाम प्रसन्नता’ को लेकर बहस छिड़ी हुई है। आदिवासी भौतिक समृद्धि से पहले प्रसन्नता को प्राथमिकता देता है।   

अंतिम सत्र काव्य गोष्ठी का हुआ जिसमें सर्वश्री कृष्ण कल्पित, बाबुषा कोहली, पराग पावन, रामाज्ञा शशिधर और निर्मला पुतुल जी की भागीदारी रही। 

रेख़्ता का यह कार्यक्रम बहुत ही शालीन, भव्य, गंभीर और समय के अनुशासन की दृष्टि से बहुत ही सराहनीय रहा। सभागार खचाखच भरा रहा और काफ़ी श्रोताओं को बाहर प्रोजेक्टर डिस्प्ले से ही संतोष करना पड़ा। अतिथियों के आवास, भोजन, यात्रा, स्थानीय परिवहन और मानदेय इत्यादि की उत्तम व्यवस्था की गई। रेख़्ता से जुड़े साथियों में अनुराधा जी, देवीलाल जी, अभिमन्यु सिंह जी एवं अन्य सहयोगियों का आभार।

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‘कविता-पाठ : कविता-संध्या’ में शामिल हुए कवि रामाज्ञा शशिधर

“हिन्दवी का आयतन बड़ा है। यह भाषा और साहित्य के उत्सव में और बड़ा हुआ। इसकी लोकप्रियता का अंदाज़ इस बात से कीजिए कि मंडी हाउस का ‘त्रिवेणी संगम’ खचाखच भर जाने के बाद रसिक श्रोताओं की बड़ी संख्या बाहर रह गई।

मजबूरन बाहर के श्रोता स्क्रीन सुख लेते रहे। दिल्ली और बाहर से भी रसिक आए। युवा पीढ़ी में साहित्य अनुराग देखकर मुझे जामिया, जेएनयू, जलेस और समयांतर के सक्रिय युवा दिन याद हो आए। ऐसा कविता-पाठ कम ही दिखाई पड़ता है, जिसमें श्रोता संवेदना के तल पर सौ फीसदी जुड़ जाए।

कृष्ण कल्पित, निर्मला पुतुल, बाबुषा कोहली और पराग पावन की कविताओं में भाषा और रूप के अनेक स्तर थे, जिस कारण ग्रहणकर्ता एकरसता से मुक्त रहे। ये कवि हिंदी कविता की विरल शक्ति हैं।

मैंने हिंदी के सबसे प्राचीन जातीय छंद और फ़ेसबुक के नवीन छंद दोहे से बनारस और किसान का दृश्य अदृश्य परोसा। विदर्भ, खेत, नग्नता, बुनकर, बुरे समय में नींद, निर्गुनिया, सुगीत आदि कविताओं का पाठ किया। ‘छठ का पूआ’ को फ़रमाइश पर सुनाया। 

दो बातों ने मुझे गहराई तक छू लिया। एक तो प्रिय मित्र शायक आलोक से लंबे वक्त बाद मिलना, अपनी कच्ची मिट्टी को स्पर्श करना था। कमाल का आदमी है। वर्षों पहले की मेरी कविताएँ उनकी स्मृति और ज़बान पर हैं। 21वीं सदी में जब कवि अपनी रचना याद नहीं रख पाता हो, एक अग्रज कवि की रचना अनुज कवि की याद में होना भविष्य के लिए बहुत बड़ा भरोसा है।

दूसरी चीज़, सभागार के बाहर हिन्दवी के द्वारा प्रस्तुत कवियों की चुनी कविताओं का बोर्ड। कविता के लोकवृत्त और कवियों के सम्मान का यह अनूठा तरीका अनुकरणीय है। प्रवेश द्वार पर किसान को समर्पित मेरी कविता ‘खेत’ को देखकर आश्वस्ति हुई कि दिल्ली का विचार किसान प्रतिरोध, मुक्ति और स्वप्न के साथ खड़ा है।

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‘कविता-पाठ : कविता-संध्या’ में शामिल हुईं कवि बाबुषा कोहली 

“इतवार की शाम पूरा हॉल कविता प्रेमियों से भरा हो, लोग सीढ़ियों पर भी बैठे हों, हॉल के बाहर इतने लोग हों कि स्क्रीन पर सीधा प्रसारण चल रहा हो, स्क्रीन से आवाज़ न आ रही हो और फिर भी लोग डटे हुए हों तो इसका मतलब यह है कि इस रीलवादी, मीमवादी और वन लाइनरवादी युग के आँधी-तूफ़ान के बीच कविता का हरा बिरवा बेख़ौफ़ फलता-फूलता रह सकता है। 

इन वक़्तों की तेज़ रफ़्तार रचनात्मकता से कविता को कोई ख़तरा नहीं है, उल्टे यह बीमारी के लिए टीके की तरह है। ऐसा नहीं कि जो लोग कविता कह-सुन रहे हैं, वे रील-मीम के विस्फोट की चपेट में न होंगे, मगर इतनी समझ तो वे रखते ही हैं कि कविता प्राणवायु है। इसीलिए वे सीढ़ी पर बैठ कर भी कविता सुन सकते हैं, हॉल के बाहर स्क्रीन पर भी। 

कल कार्यक्रम के बाद किसी ने कहा, भीड़ बहुत थी। हमने कहा, यह भीड़ नहीं, कविता-बल है।

अगर एक साल को एक क़दम मानें तो हिन्दवी ने महज़ चार क़दमों में ग़ौर करने लायक़ दूरी तय कर ली है। यह कोई काव्यात्मक बिम्ब नहीं, बल्कि तथ्यपूर्ण वाक्य है। आत्मीय मेज़बानी और व्यवस्थित कार्यक्रम के पीछे एक युवा टीम की सोच, मन और समय लगा हुआ था। अनुराधा, अविनाश, अंजुम, शायक, देवी, अभिमन्यु, गार्गी सब बढ़िया काम करने वाले लोग हैं। रचित मंच को जीवंत रखने वाला लड़का है। उसके संचालन के ढंग में चुटीलापन है।

कविता पाठ के बाद कल युवतर कविता प्रेमियों (और कुछ बुज़ुर्गवारों) ने बड़ा स्नेहिल घेराव कर दिया। सेल्फ़ीबाज़ी का दौर चला, किताबों में दस्तख़त होते रहे। यह मुझे अच्छा लगा। इसलिए नहीं कि मुझसे मिलने जो युवा मित्र आए थे, उनके हाथों में मेरी किताब थी; अच्छा इसलिए लगा कि कविता ने उन्हें छुआ है, उन्होंने कविता को अपनाया है और अब, यह उनकी किताब है।

एक व्यस्त महानगर में रहने वाली जिगरी दोस्त जब अपनी व्यस्ततम दिनचर्या से एक पूरा दिन चुरा कर अपने हाथों से लंच बना लाए, तब पेट नहीं भरता; आत्मा तृप्त होती है और एहसास होता है—पानी भले न बरसा हो, बारिश का मौसम दिल्ली में भी मनहर हो सकता है!

इस सुंदर आयोजन में बुलौव्वा देने के लिए शुक्रिया, हिन्दवी।

कविता ज़िन्दाबाद!”

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‘कविता-पाठ : कविता-संध्या’ में शामिल हुए कवि पराग पावन

वह एक औसत फ़िल्म का सुंदर दृश्य था। नायिका एक नर्तकी थी। उसका पैर साथी नर्तक ने ही नृत्य के दौरान साज़िशन तोड़ दिया था। एक दूसरा चरित्र नायिका से उसकी पहली नृत्य-प्रस्तुति के बारे में पूछता है। नायिका कहती है—“मुझे लगा कि मेरा नृत्य एक रंग है। मैं अपने हाथों से वह रंग एक-एक दर्शक के चेहरे पर पोत रही हूँ।”

‘हिन्दवी उत्सव’ में कविता-पाठ था। वहाँ यह फ़िल्म-दृश्य चमका था। सबकी चेतना एकधार होकर कविता की ओर बह रही थी। मुझे लगा शब्द गुब्बारे हैं। उन्हें छुआ जा सकता है और उनकी दिशा बदली जा सकती है। बीच-बीच में उनके फूटने की आवाज़ का वैभव हम सबके चेहरे पर बिखर रहा था। ऐसा राग। ऐसा धैर्य। ऐसा दायित्व। ऐसा विवेक। ऐसे लोग। सबकुछ ज़रा-ज़रा-सा जादुई।

मैं मंच पर था और आत्मीय उपस्थितियों की छाया मुझपर गिर रही थी। मंच से उतरा। भाषा ने कंधे पर भार महसूस किया।

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‘विमर्श सत्र : जो आदमी हम बना रहे हैं’ के संचालक विनीत कुमार

“मंच पर एक बार भी आयोजक की दख़ल नहीं, कभी भी फ्रेम में आने की कोशिश नहीं, पीछे से पर्ची पकड़ाने या खुसुर-फुसुर करने जैसी हरकत नहीं। एक बार मंच लेखक-कवि-पत्रकार-विमर्शकार को सौंप दिया तो आख़िर-आख़िर तक उन पर भरोसा किया। पूरे कार्यक्रम में वक्ता-कवि और उन्हें सुननेवाले-चाहनेवाले का असर रहा। यह हिन्दवी के कार्यक्रम का सबसे सुंदर पक्ष रहा। नहीं तो आमतौर पर ऐसे कार्यक्रम में कई लेखक-पत्रकार-बुद्धिजीवी के आने के बावज़ूद मंच उनका नहीं हो पाता।

कोई पुष्प-गुच्छ, माल्यार्पण, अंग-वस्त्र, स्मृति-चिह्न देकर अतिथियों का स्वागत नहीं। कोई अलग से पसरा हुआ स्वागत वक्तव्य नहीं। कोई ये तो मेरे बड़े भाई समान है, मैं तो इनका पुत्र जैसा रहा हूँ, मेरा तो इनकी आंचल में बचपन गुज़रा है, मेरी माँ ने तो मुझे इनके यहाँ से डायपर माँगकर पहनाया है टाइप का आपसी परिचय और संबोधन नहीं।

सत्र में कोई मुख्य वक्ता, अतिथि वक्ता, विशिष्ट वक्ता नहीं। जो मंच पर हैं, सब वक्ता। सूत्रधार का काम उनसे सवाल करने और बातचीत करने का है। सूत्रधार का काम कवि को कविता पाठ के लिए बुलाना और कुछ अपनी और श्रोता की पसंद की कविता की बात बता देना है, बस।

संभवतः यही कारण रहा कि मैं आख़िर-आख़िर तक कार्यक्रम में बना रहा, सबको सुनता रहा और इस सिरे से सोचते हुए गदगद होकर लौटा कि हिन्दी की दुनिया कितनी बड़ी है और इससे प्रेम करनेवाले अठारह-बीस-बाईस साल की उम्र के कितने युवा हैं और उनसे पूरा त्रिवेणी सभागार खचाखच भर जाता है। कुछ बाहर खड़े होकर स्क्रीन पर कार्यक्रम देखते-सुनते हैं। यही कारण है कि आयोजक की टीम भी दीवार से टिककर कार्यक्रम देख-सुन पाते हैं। यही कारण है कि सुनने आए लोग अपने लेखक-कवि के साथ का सीधा नाता होने का दावा कर पाते हैं। उनसे सवाल कर पाते हैं या अपने पसंद की कविता सुनाने की बात कर पाते हैं।

...और संभवतः यही कारण है कि अंड-बंड की औपचारिकता में पैसे फँसाने के बजाय हम वक्ता को बोलने का मानदेय मिल पाता है।

घोर औरचारिकताओं में फँसे संस्थान, परिचर्चा को एकल व्याख्यान और प्रवचन में बदल देनेवाले, औपचारिक और विमर्श की दुनिया को हींहीं-फीफी में बदल देनेवाले संस्थानों और आयोजनों से जुड़े लोग वहाँ मौज़ूद होंगे इस बात को बेहतर महसूस कर पा रहे होंगे कि इससे माहौल कितना ख़ुशनुमा और हल्का हो जाता है। कुछ बातें निकलकर आ पाती है और कार्यक्रम का रस, सुनने आए लोगों को मिल पाता है और सबकुछ समय से संपन्न हो पाता है।

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‘विमर्श सत्र : सहना और कहना’ की संचालक अणुशक्ति सिंह

आदि कुछ यूँ कि एक ऊर्जस्वित आबोहवा में कुल तीन सत्र और केवल एक अभिभाषण। उसमें कहीं भी आयोजकीय उत्कंठा मंच ग्रहण करने की नज़र नहीं आई। राधावल्लभ त्रिपाठी जी का संक्षिप्त पर बेहद प्रभावी वक्तव्य कि भाषा और साहित्य के विद्यार्थियों को नोट करने हेतु कई तत्व मिल जाएँ!

पहले सत्र में तीन कुशल वक्ता ओम थानवी जी, मनीषा पांडे (न्यूज़लॉन्ड्री) और बद्री नारायण जी के संग संचालन विनीत का। पूरे सत्र में कहीं भी बोरियत नहीं। कहीं भी विषय में भटकाव नहीं। वैचारिकी के तमाम बिंदुओं के मध्य वर्तमान के कई ज़रूरी मुद्दों की पड़ताल। 

इसी के तुरंत बाद ‘सहना और कहना’ सत्र की शुरुआत! अपने विषयों के तीन विशेषज्ञों सुधा सिंह, हरिराम मीणा और रमाशंकर सिंह जी द्वारा क्रमशः स्त्री, आदिवासी-दलित समाज और घुमंतू समुदाय के ज़रिये कहने और सहने पर गहन दृष्टिपात। 

बतौर संचालक मेरा विषय को अपने वक्ताओं के माध्यम से बेहतर समझ पाना, मुदित होना! 

आख़िरी सत्र काव्य पाठ। सभी अच्छे कवि। पराग पावन और निर्मला पुतुल जी की कविताओं में समय और समाज की ध्वनि…

आयोजकों का ख़ूब प्रेम से मानदेयी लिफ़ाफ़ा पकड़ा देना। 

रविवार की पूरी शाम हिन्दी का उत्सव मनाते बीती। उस पूरी शाम में वह सब था, जिसके न होने की शिकायत अक्सर हिन्दी से की जाती है। हॉल से बाहर तक पसरे हुए उत्सुक श्रोता! बेहद गहन विषयों पर उतनी ही संयत चर्चा और लोगों की सजग भागीदारी। गंभीर कविता पाठ और उसके सैकड़ों रसिक…
यहाँ मंच अवश्य था, पर ‘मंचीय’ कुछ भी नहीं था, फिर भी लोगों की बड़ी उपस्थिति थी। सुनने की चाहना थी।

(यह हिन्दवी का उत्सव था।)

(मंचीय शब्द को उसके वर्तमान में प्रचलित अभिप्राय में ही लें)

         

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