Font by Mehr Nastaliq Web

सोडा, बन-मस्का और वाल्टर बेन्यामिन

सोडा और बन-मस्का 

पुणे के कैंप इलाक़े में साशापीर रोड पर एक कम प्रचलित शरबतवाला चौक है। शरबत अरबी शब्द है, शराब भी इसी से निकला है। शरबतवाला चौक पर 1884 में फ़्लेवर्ड सोडा कंपनी की शुरुआत हुई। पुणे के किसी भी ईरानी कैफ़े में यह सोडा काँच की बोतलों में उपलब्ध है और इसे आर्देशिर सोडा कहते हैं या कंपनी के नाम पर जाएँ तो Ardy's. सोडे का नाम संस्थापक आर्देशिर ख़ुदादाद ईरानी के नाम पर है। भारत की दूसरी बड़ी सोडा कंपनी ‘ड्यूक’ की शुरुआत भी पुणे में 1889 में हुई जिसे नवें दशक में पेप्सी ने ख़रीद लिया। 

शक्कर और सोडा आज जिस अर्थ में दुनिया भर में प्रचलित हैं, जिनके इर्द-गिर्द आहार की राजनीति है और पहली दुनिया के देश जिस तरह शक्कर और स्टार्च के आहार का निर्यात पूरी दुनिया में कर रहे हैं, उससे बिल्कुल अलग यह पुणे-मुंबई सोडा संस्कृति बहुत रोचक है जिसकी पूँजी, विश्वास और मुनाफ़े की जड़ें अतीत में हैं।

कैंप में ही सँकरी सड़कों पर पारसी बसाहटें हैं। कुछ बेकरी हैं जहाँ डिजिटल पेमेंट अभी तक नहीं पहुँचा है, लेकिन शाम होते-होते उनके मिल्क ब्रेड तथा श्रूसबरी बिस्किट ख़त्म हो जाते हैं।

केकी बयरामजी ग्रांट तमिलनाडु में पैदा हुए पारसी थे, जिन्होंने पुणे में रूबी हॉल क्लिनिक बनाया। रूबी हॉल क्लिनिक के बग़ल में पारसी वोहुमान कैफ़े है जिसके रिसेप्शन पर बड़े बर्तन में इतना मस्का रखा कि आप उसको कुछ समय देखें और फिर नज़रें हटाकर जो देखेंगे तो सब कुछ मस्का जैसा दिखेगा। एक आदमी सुबह से शाम तक बन (मीठा पाव) में चीरा लगाकर मस्का भरता है। टेबलों पर बैठे कोई तमिळ अख़बार पढ़ रहा है तो कोई गुजराती, लेकिन सब बन-मस्का खा रहे हैं। 

यह सुबह सात बजे का वक़्त है जब ताड़ीवाला रोड के घरों में अख़बार फेंके जा चुके हैं। दस्तूर साहब का मकान शांत है, लेकिन उसमें उदासी है जिसे कभी-कभी गेट पर बँधा कुत्ता तोड़ देता है। दस्तूर साहब का मकान ज़मीन के भीतर धँस रहा है। उसके यहाँ तारों पर टँगे तौलिये सूखकर कड़क हो चुके हैं और आँगन की घास अब झाड़ जैसी बढ़ गई है।

दस्तूर का मकान मनोज रूपड़ा की कहानी ‘टॉवर ऑफ़ साइलेंस’ से निकलकर आया है; जहाँ समय विरुद्ध एक लड़ाई चल रही है, लेकिन थकन पसर चुकी है।  

पुणे, मुंबई, हैदराबाद और चेन्नई में कई ऐसी बसाहटें हैं जिनके साथ स्थानवाचक पेठ/पेट प्रत्यय जुड़ा हुआ है। पुणे में ऐसे 17 पेठ हैं जिसमें सबसे पुराना क़स्बा पेठ है और सबसे नया नवीपेठ। क़स्बा पेठ नाम ऐसा है मानो नगरपुर। कुछेक पेठों में मराठी भद्रलोक रहता है जो अक्सर पुणे की पुराने मिसळ-पाव की दुकानों और रविवार की पुरानी सामूहिक बैठकों का ज़िक्र करते नहीं थकता। पेठ, ख़ासकर सदाशिव पेठ अपनी ‘पुणेरी पाटी’ के लिए भी प्रसिद्ध है जिससे मुराद घरों, दुकानों, संस्थानों, बैठकों के दरवाज़ों पर सूचना-पट्टियों/बोर्ड से है जहाँ कोई न कोई वक्रोक्ति लिखी मिल सकती है। मसलन—‘जीवन में रस नहीं, प्रेम में यश नहीं। जाना था अमेरिका लेकिन स्वारगेट से बस नहीं...’ स्वारगेट और म.न.पा. (Municipal Corporation Bus Stand) पुणे में वही हैसियत रखते हैं जो दिल्ली में अजमेरी गेट और कलकत्ता के पास हावड़ा। 

पिछले तीन दशकों में पुणे की बनावट और बसाहट दोनों में बहुत बड़े बदलाव आए हैं। यह बदलाव भारत के कई शहरों में आ रहे हैं और इन बदलावों को समझने तथा झेलने की तैयारी इतनी ही है कि हम शहरों का नाम बदलते रहें या काशी को टोक्यो में बदलने जैसी फूहड़ योजनाएँ बनाते रहें।

गुडलक कैफ़े वाला चौराहा कोई भी नाम कमा ले, वह गुडलक चौराहा ही है। डेक्कन से खुलती सड़कों की एक बाँह फ़र्ग्यूसन कॉलेज जाती है और दूसरी जंगली महाराज रोड। नए-पुरानों का स्वागत करती इन सड़कों को पुणे का भद्रलोक कहा जा सकता है। यहाँ सायादार दरख़्त सड़कों को बारिशों में घना स्याह कर देते हैं। सड़कों के इस मँझे प्लान में कोई यूकेलिप्टिस आड़े नहीं आता। इसी सड़क पर रेस्टोरेंट के नाम पर लोग वैशाली-रूपाली-आम्रपाली पुकारते नहीं थकते। बारहा ऊपीड, कॉफ़ी और इडली की मिसाल देते हैं। लेकिन अब सारे फ़ुटपाथों को आवाजाही की भीड़ निगल रही है। वडगाँव शेरी में वड (बरगद) कहाँ है? और हवेली तालुका की हवेली कहीं नहीं मिलती। चिंचवड से चिंच (इमली) ऐसे ही ग़ायब है, जैसे गुड़गाँव से गुड़।

‘फ़र्ग्यूसन में डीडी कोसांबी पढ़ाया करते थे, अगरकर भी...’—कहता हूँ मैं।

‘और सावरकर भी...’—एक पुणेकर मुझे टोकती है।

गुलज़ार ने जिस मुंबई के बारे में कहा था कि यह ‘समंदर में उतरती है न समंदर को छोड़ती है’—उसके फ़ोर्ट इलाक़े की इमारतों में कबूतर सदियों से बैठ-उड़ रहे हैं। कोलाबा के लिओपॉल्ड कैफ़े ने मुंबई हमले में क्षतिग्रस्त खिड़की के काँचों को ज्यूँ का त्यूँ रखा हुआ है। लगभग हर सिग्नल के नुक्कड़ पर एक आदमी भारत का सबसे पुराना गुजराती अख़बार ‘मुंबई समाचार’ पढ़ रहा है। 

डेविड ससून एक बग़दादी यहूदी थे जिन्होंने कई इमारतें खड़ी कीं और मुंबई में ससून डॉक 1875 में बनवाया। उन्होंने पुणे में हॉस्पिटल बनवाया और 1867 में पुणे में ही एक सिनागॉग भी जिसे मराठी में लाल देऊळ या लाल मंदिर कहते हैं। यहीं डेविड ससून की क़ब्र भी है।

पुणे और ख़ासकर मुंबई में घूमते हुए मुझे अमिताव घोष की अफ़ीम-त्रयी (Ibis Triology) याद आती है, जहाँ मुंबई-कलकत्ता जैसे शहरों और भारतीय पूँजीवाद की स्थापना का एक ‘अफ़ीमज़दा’ इतिहास है।

लेकिन यह शहर खींचने से नहीं रुकते। मेरे मित्रों को मुंबई का यज़दानी कैफ़े कई वजहों से नहीं पसंद, लेकिन वह उस सँभल-सँभल के गिरती हुई इमारत के सामने फ़ोटो लेने से नहीं रुक सकते। ऐसी इमारतों की पुणे और मुंबई में भरमार है। ये इमारतें ज़्यादातर दफ़्तर हैं या संस्थान। उनके नज़दीक से गुज़रते हुए आप महसूस कर सकते हैं कि यह शहर आपकी समझ, परिचय और हदों से परे भी बहुत कुछ है।

वाल्टर बेन्यामिन

शहरों के प्रति उदासीनता तथा खिन्नता लंबे समय तक लेखन का नमक और बारूद था। ज्ञानरंजन, इलाहाबाद या शहर पर बात करते हुए कई लेखकों एवं कलाकारों पर नाराज़ होते हैं जिनके भीतर शहर के प्रति नाशुक्राना है जो अपनी स्थानिक सीमाओं और वर्ग में ही ‘कुलबुलाते’ हैं।

एक फ़्रेंच शब्द है;  फ़्लानर (Flaneur)। जिसका चलन और चर्चा तो काफ़ी पहले से रहा, लेकिन महाकवि बॉदलेयर ने अपने एक लेख में इससे ख़ास मुराद एक ऐसे व्यक्ति से की जो गलियों, नुक्कड़, इलाक़ों और शहर में बेमक़सद फिरता हो। वाल्टर बेन्यामिन लिखते हैं कि फ़्लानर अब मर चुका है। उसका स्वरूप और अभिलाषाएँ बदल चुकी हैं। यह चरित्र जो पहले अवलोकन और अलगाव से जुड़ा हुआ था। अलगाव में जीने के बजाय वो उत्पादन और व्यापार में सक्रिय रूप से लग चुका है। फ़्लानर की हत्या उपभोक्तावाद ने की।

बाज़ार मानव-इतिहास में हमेशा थे, लेकिन अब सड़कों के दोनों तरफ़ बाज़ार हैं; सड़कों के नीचे बाज़ार हैं। शहरों की तुलना उनके बाज़ारों की तुलना है। यह केवल घिस-थक चुका संदर्भ नहीं है। अब फ़्लानर एक दुकान से निकलकर दूसरी दुकान में ठिठक जाता है।  

शहरों की कहानी दिलचस्प है। बनारस का साथ मदुरई दे सकता है। कानपुर का साथ लुधियाना दे सकता है, लेकिन लखनऊ का साथ कौन देगा? अमृतसर का साथ नांदेड़ या पटना नहीं दे सकते, लेकिन आगरा दे सकता है। दिल्ली का कोई साथी नहीं, उसके पास साम्राज्यों का इतिहास और वैभव है; लेकिन नम्रता नहीं। उपनिवेशवाद के समय बसाए और बनाए शहरों की संस्कृति और स्थापत्य अंदरूनी भारत से अलग था। इसीलिए बनारस का बाशिंदा बरेली या लखनऊ में इतना अजनबी नहीं है जितना मुंबई में। कटनी से जबलपुर गए आदमी की अजनबियत जबलपुर से मुंबई गए आदमी की अजनबियत से भिन्न है। इसी तरह पलायन का भी अर्थशास्त्र है। मधुबनी से मुंबई आना, मुंबई से मैड्रिड जाना अलग-अलग है। बग़दाद से मुंबई और गुजरात आना अलग है। लेकिन अलेप्पो, दमिश्क, काबुल और ग़ज़ा छोड़ना अलग।

ओरहान पामुक के उदास इस्तांबुल में बिल्लियाँ बेफ़िक्र घूमती हैं। काफ़्का और दोस्तोयेवस्की का नायक उलझन और गर्मी में शहर में दरबदर घूमता है। नजीब महफ़ूज़ क़ाहिरा में रहकर क़ाहिरा को दोहराते रहे। केकी एन दारूवाला अपनी कविता में जेरुशलम को सलाम भेजते हैं। आलोकधन्वा की साँस लाहौर और कराची और सिंध तक उलझती है।    

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

06 अक्तूबर 2024

'बाद मरने के मेरे घर से यह सामाँ निकला...'

06 अक्तूबर 2024

'बाद मरने के मेरे घर से यह सामाँ निकला...'

यह दो अक्टूबर की एक ठीक-ठाक गर्मी वाली दोपहर है। दफ़्तर का अवकाश है। नायकों का होना अभी इतना बचा हुआ है कि पूँजी के चंगुल में फँसा यह महादेश छुट्टी घोषित करता रहता है, इसलिए आज मेरी भी छुट्टी है। मेर

24 अक्तूबर 2024

एक स्त्री बनने और हर संकट से पार पाने के बारे में...

24 अक्तूबर 2024

एक स्त्री बनने और हर संकट से पार पाने के बारे में...

हान कांग (जन्म : 1970) दक्षिण कोरियाई लेखिका हैं। वर्ष 2024 में, वह साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित होने वाली पहली दक्षिण कोरियाई लेखक और पहली एशियाई लेखिका बनीं। नोबेल से पूर्व उन्हें उनके उपन

21 अक्तूबर 2024

आद्या प्रसाद ‘उन्मत्त’ :  हमरेउ करम क कबहूँ कौनौ हिसाब होई

21 अक्तूबर 2024

आद्या प्रसाद ‘उन्मत्त’ : हमरेउ करम क कबहूँ कौनौ हिसाब होई

आद्या प्रसाद ‘उन्मत्त’ अवधी में बलभद्र प्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’ की नई लीक पर चलने वाले कवि हैं। वह वंशीधर शुक्ल, रमई काका, मृगेश, लक्ष्मण प्रसाद ‘मित्र’, माता प्रसाद ‘मितई’, विकल गोंडवी, बेकल उत्साही, ज

02 जुलाई 2024

काम को खेल में बदलने का रहस्य

02 जुलाई 2024

काम को खेल में बदलने का रहस्य

...मैं इससे सहमत नहीं। यह संभव है कि काम का ख़ात्मा किया जा सकता है। काम की जगह ढेर सारी नई तरह की गतिविधियाँ ले सकती हैं, अगर वे उपयोगी हों तो।  काम के ख़ात्मे के लिए हमें दो तरफ़ से क़दम बढ़ाने

13 अक्तूबर 2024

‘कई चाँद थे सरे-आसमाँ’ को फिर से पढ़ते हुए

13 अक्तूबर 2024

‘कई चाँद थे सरे-आसमाँ’ को फिर से पढ़ते हुए

शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के उपन्यास 'कई चाँद थे सरे-आसमाँ' को पहली बार 2019 में पढ़ा। इसके हिंदी तथा अँग्रेज़ी, क्रमशः रूपांतरित तथा अनूदित संस्करणों के पाठ 2024 की तीसरी तिमाही में समाप्त किए। तब से अब

बेला लेटेस्ट

जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली

टिकट ख़रीदिए