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शिमला डायरी : काई इस शहर की सबसे आदिम पहचान है

10 जुलाई 2024

सुशील जी का घर, मुखर्जी नगर। नेताजी एक्सप्रेस लेट है। उनके साथ खाना खाता हूँ। वह टिफ़िन बाँध देते हैं। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उमस। स्लीपर में बीच वाली सीट। ले गर्मी, दे गर्मी। ट्रेन खुलती है। जीआरपी का सिपाही आता है, लगभग मुनादी करता हुआ कि सभी लोग अपनी मोबाइल बचाकर रखें।

खिड़की के किनारे न बैठें। बैठें तो खिड़की बंद कर लें। वहीं से ‘वे’ मोबाइल छीन ले जा सकते हैं। खिड़की बंद करने पर गर्मी, खोलने पर इन भाई साहब लोगों का डर। बिना मोबाइल चलाए रहें तो कैसे रहें। ख़ैर रात ग्यारह बजे के आसपास नींद आ जाती है। ट्रेन दो घंटे से ज़्यादा की देरी से कालका पहुँचाती है। कालका, दिल्ली से अलग दुनिया है—शांत।

11 जुलाई 2024

सुबह सवा पाँच बजे, शिमला कालका में एक आरामदायक सीट। रोज़मर्रा का पहला काम यानी फ़ेसबुक देखता हूँ। फिर नींद आ जाती है। आठ बजे के पास हिमाचल प्रदेश के वातावारण का असर होने लगता है। अच्छा लगता है। कालका से शिमला जाते समय, दाएँ तरफ़ के जाने-पहचाने दृश्य। साढ़े दस बजे के आसपास समरहिल। ट्रेन रुकती है।

काई लगे बाँज, देवदार और बुरांश के पेड़ दिखते हैं। ऑलिव ग्रीन रंग की काई इस शहर की सबसे आदिम पहचान है। समरहिल से ऊपर की तरफ़ एडवांस स्टडी है। शिमले में केवल ‘एडवांस स्टडी’ ही नाम चलता है, पूरा नाम तो इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडी है।

जैसे घोड़े की नाल होती है—‘यू’ आकार की, उसी तरह के रस्ते से पैदल चलकर एडवांस स्टडी के मेन गेट पहुँचता हूँ। वहाँ खड़ा गार्ड पहचान लेता है। अभिवादन करता है। एक परिचित दुनिया में लौटने का एहसास।

वैसे तो चंडीगढ़ या कालका से टैक्सी करके शिमला तीन घंटे के अंदर पहुँचा जा सकता है, लेकिन जिस तरह से पहाड़ों को काटा गया है—उससे सड़कों पर लैंड स्लाइड का ख़तरा बहुत बढ़ गया है और मुझे अपने जीवन से प्यार है, इसलिए ट्रेन का रास्ता चुनता हूँ। अभी भी ट्रेन का रास्ता कहीं बेहतर है और मुझे कोई बहुत जल्दी भी नहीं थी। जल्दी पहुँचकर आख़िर क्या कर लेता?

‘सिद्धार्थ विहार’ में नहा-धोकर लाइब्रेरी। वहाँ सूरज मिलते हैं। बृहस्पतिवार है। इसलिए आज फ़ेलो’ज़ सेमिनार है। ख़ास बात है कि यह फ़र्स्ट हाफ़ में है। पहले, दूसरी मीटिंग में होता था। शाम को कोई और कार्यक्रम है। मैं भी जाकर सेमिनार रूम में बैठ जाता हूँ। कोई चाय का प्याला थमा जाता है।

और यह क्या? ठंडी लग रही है। शाम को बालूगंज। एक छोटी-सी ख़ूबसूरत जगह। यहाँ वह सब कुछ है, जो एक पहाड़ी बाज़ार में होना चाहिए—शराब की दुकान, मेडिकल स्टोर, डॉक्टर, फ़ायर स्टेशन, सब्ज़ी और फलों की दुकानें, नाई और दर्ज़ी की दुकान।

दर्ज़ी की दुकान वर्मा जी चलाते हैं। परिचित हैं। वहीं से एक इनर लेता हूँ। बारिश हो रही है। एक छाता भी ले लेता हूँ। संस्थान की हल्की-सी चढ़ाई चढ़ते समय बारिश तेज़ हो जाती है। मुझे अच्छा लग रहा है।

12 जुलाई 2024

सुबह के छह बजे हैं। क्या करना है—इसका हिसाब-किताब बैठाता हूँ। सिद्धार्थ विहार से नीचे वाली सड़क पर कोई झाड़ू लगा रहा है। इतनी ज़्यादा शांति है कि झाड़ू के एक-एक सींक की आवाज़ आ रही है।

आठ बजने को है, लेकिन मैस नहीं गया। वर्मा जी के ढाबे जैसी चाय की दुकान पर पराठा और दही। वर्मा जी प्रतापगढ़ के हैं। कई पीढ़ी पहले आए हैं इधर। बालूगंज से लेकर कुफ़री तक और जहाँ-जहाँ आप जाएँगे, यूपी-बिहार के लोग वहाँ मिल जाएँगे—हर मोटा-महीन काम करते। वर्मा जी त्रिदिप सुहृद की बात छेड़ते हैं और कई अन्य पुराने लोगों की।

लाइब्रेरी में अपने लिए एक जगह का चुनाव करता हूँ। क्ले-संस्कृत लाइब्रेरी की महाभारत के कई खंड लाता हूँ। पढ़ता एक भी नहीं। कुंतला लाहिड़ी-दत्त की किताब ‘डांसिंग विद अ रिवर’ (Dancing with the River—People and Life on the Chars of South Asia) पढ़ता हूँ।

शाम को लाइब्रेरियन प्रेमचंद जी से मुलाक़ात। काफ़ी फ़िट और हैंडसम आदमी हैं। वह तगादा करते हैं कि आपने अभी संपादित वॉल्यूम दिया नहीं। मैं उन्हें कहता हूँ कि वही पूरा करने आया हूँ। कोशिश रहेगी कि सौंपकर जाऊँ। शाम को पाँच बजे एडवांस्ड स्टडी से मॉल रोड, पैदल ही।

एशिया बुक हाउस और मिनर्वा गया। एक नोटबुक ली और दो पेन ख़रीदे। कॉफ़ी हाउस में एक ब्रेड टोस्ट और कॉफ़ी। फिर राइड विद प्राइड से चौड़ा मैदान। बीस रुपए में संस्थान वापस। पहले यानी 2018 में ऐसा न था। तब मैं ओला की फ़िराक़ में रहता था, नहीं तो संस्थान से गाड़ी बुक करवा लेता था। लेकिन इधर मेरी पैदल चलने की क्षमता बढ़ी है।

13 जुलाई 2024

लाइब्रेरी के अंदर घूमा। कई नई किताबें दिखीं। उनको उसी रैक में रहने दिया। लाइब्रेरी में अपनी किताब देखी। वही बालसुलभ जिज्ञासा कि देखूँ तो किसी ने इश्यू भी करवाई हैं कि बस ऐसे ही लिख मारा था। मन प्रसन्न होता है कि दो लोगों ने उसे इश्यू कराया था।

शाम को पैदल फिर से मॉल रोड। एस. आर. हरनोट—शिमला के प्रतिष्ठित साहित्यकार—से मुलाक़ात। वह और लोगों का हालचाल पूछते हैं। गेयटी थिएटर में थोड़ी देर की बैठकी। फिर वह कॉफ़ी पिलाते हैं। मॉल रोड से नीचे लोअर मार्केट। फल और चाक़ू लेता हूँ।

14 जुलाई 2024

रविवार होने की वजह से संस्थान बंद है। लाइब्रेरी खुली है। पर्यटकों के लिए भी संस्थान का वह हिस्सा खुला है जो हमेशा खुला रहता है। यानी भवन के अंदर के दो कमरे, सीढ़ियों के पास भव्य लिविंग एरिया और भवन के बाहर गार्डेन। पिछले वर्ष अगस्त में संस्थान के दाहिने तरफ़ एक भीषण लैंड स्लाइड हुई थी, इसलिए अब उधर यानी टेनिस कोर्ट की तरफ़ पर्यटकों को जाने की मनाही है।

सवा नौ बजे के आसपास लाइब्रेरी की तरफ़। फ़ायर स्टेशन कैफ़े से आगे दाहिने हाथ पर मज़दूर काम कर रहे हैं। वे ‘डंगा’ बना रहे हैं। वे किसी ठेकेदार के अधीन काम करते हैं। ठेकेदार सीपीडब्ल्यूडी का होगा। वे संभवत: झारखंड या बिहार के थे।

वहीं एक बच्चा अपनी माँ से दूध पीने की ज़िद कर रहा है। माँ सर पर गिट्टी और सीमेंट से भरा तसला उठाए जा रही है। पिता झुँझलाकर उसे चाँटा मारता है। बच्चा रोता है। सिर पर तसला लिए हुए माँ कुछ नहीं बोलती। तसले का मसाला वह मिक्सर में गिराकर आती है। बच्चे को चुप कराने के बजाय वह बैठ जाती है। बच्चे के मुँह में अपना स्तन दे देती है। मेरे ख़यालों में अपनी माँ की तस्वीर चमकती है, फिर ख़ुशबू और अपने बेटे की।

लाइब्रेरी में मुस्लिमों पर लिखी गई किताबों के सेक्शन में जाता हूँ। मोहम्मद सज्जाद की किताब लाता हूँ। डेस्क पर रख देता हूँ। द हिंदू पढ़ता हूँ। उसके रविवार वाले सप्लीमेंट में एस्थर डफ्लो (Esther Duflo) की एक किताब ‘पुअर इकोनॉमिक्स फ़ॉर किड्स’ (Poor Economics for Kids) पर एक फ़ीचर छपा है। उसे पढ़ता हूँ तो एक घंटे पहले देखा हुआ दृश्य याद आता है।

लाइब्रेरी से बाहर आकर कॉफ़ी पीता हूँ। यहाँ पूर्व-फ़ेलो को अधिकांश सुविधाएँ मिल जाती हैं, जो उसे पहले मिला करती थीं; सिवाय स्टडी और कॉटेज। यही इस संस्थान की ख़ूबसूरती है।

शाम को पाँच बजे गेस्ट हॉउस। बाहर बादल गरज रहे हैं। शायद अभी बारिश होगी। आठ बजे गेस्ट हॉउस से मैस गया। वहाँ अकेला मैं। खाकर चला आया। रास्ते में विजय कुमार मिले। संस्थान में गार्ड हैं। एक एजेंसी के थ्रू काम करते हैं। उनका घर सोलन में पड़ता है। उधर, उनके घर की तरफ़ पंद्रह दिन से बारिश नहीं हो रही है। वह बता रहें कि उनका मक्के का खेत सूख रहा है।

15 जुलाई 2024

बरसों बाद रत्नाकर त्रिपाठी से मुलाक़ात हुई। वह शिमला के उपनगरीय इलाक़े में रहते हैं। उन्हें पहाड़ों की चढ़ाई-उतराई पसंद है। तो इधर ही रहने लगे। शिमला आकर बहुतों को लगता है कि इधर ही बस जाएँ। हिम्मत कोई-कोई कर पाता है।

वैसे कभी-कभी मेरा भी मन करता है कि उत्तर प्रदेश में फ़ील्डवर्क करूँ और यहाँ आकर लिखूँ; लेकिन अभी यह बहुत दूर की कल्पना है और कल्पना करने में क्या ही जाता है? कुछ नहीं जाता!

क्ले संस्कृत लाइब्रेरी की महभारत पढ़ी। बुक ग्यारह—द विमेन। फिर होश आया कि काम दूसरा करने आया हूँ, वही करूँ। मेरे साथ दिक़्क़त यही है कि हरि को भजने की जगह हमेशा कपास ओटने लगता हूँ।

बाहर कोई लॉन की घास मशीन से काट रहा है। उसकी आवाज़ सुनाई दे रही है। आज दोपहर को हल्की-सी बारिश हुई है, लेकिन शिमला के आकाश पर बादल लदे-फंदे हैं, अब बरसे कि तब बरसे। मैं छाता लाया हूँ।

16 जुलाई 2024

एक मन करता है कि अभी दो-चार दिन और रुक जाऊँ। एक मन कहता है कि चलो। मैस जाकर बिल चुकाता हूँ। लाइब्रेरी में कुछ फ़ोटोस्टेट लेता हूँ। लाइब्रेरी का हिस्ट्री वाला सेक्शन देखता हूँ। वापस गेस्ट हाउस। शाम को वहाँ से पैदल ही शिमला रेलवे स्टेशन। ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म पर लग रही है...

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