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सपना टॉकीज में हाउसफ़ुल

उस आदमी की स्मृति में अभी बुर्राक सफ़ेद परदा टँगा हुआ है, जब वह चोरी-छिपे सपना टॉकीज में पिक्चर देखने जाया करता था और उनके नाम एक डायरी में लिख लेता था। उसकी स्मृति में सपना टॉकीज की टीन की छत के बीचोबीच में 200 वाट का एक बल्ब लटका है, जो इंटरवल में जलाया जाता है तो लोग एक-दूसरे का चेहरा पहचानते हैं। टॉर्च की तरह रोशनी फेंकने वाली मशीनों के लिए पीछे की दीवार में तीन छेद हैं, जिसमें एक छेद से कोई आदमी थोड़ी-थोड़ी देर बाद झाँकता रहता है। मशीन से किर्र-किर्र की आवाज़ आते ही परदे पर रंगीन आकृतियाँ उभरती हैं और चलने-फिरने लगती हैं। किर्र-किर्र बंद होती है तो परदे की सफ़ेदी उभर आती है और हम अगले दृश्य की प्रतीक्षा में उसे ताकने लगते हैं।
 
वर्षों बाद गाँव जाने के लिए वह क़स्बे से गुज़रता है तो उसे क़स्बा महानगर का छोटा संस्करण दिखता है। सब कुछ वैसा ही—बड़ी-बड़ी कंपनियों के रंगीन बोर्ड, पित्ज़ा की ब्रांडेड दुकानें, चाउमिन के ठेले, कपड़ों के शोरूम। सब कुछ एक जैसा। जैसे राजधानी का कोई मोहल्ला। थोड़ी हड़बड़ी से भरे लोग। उसे सपना टॉकीज की याद आती है, तो वह उसे देखने चला जाता है। टॉकीज के अवशेष बचे हैं—गिरी हुई दीवार से उसके अंदर परदे वाला हिस्सा दिख रहा है।
 
सपना टॉकीज का गेटकीपर अब और बूढ़ा हो गया है—कमर झुक गई है। पिक्चर शुरू होने के कुछ देर बाद वह मरी-सी रोशनी वाली टॉर्च लेकर आहिस्ते से अँधेरे हॉल में घुसता था। रोशनी सिर्फ़ इतनी मरियल होती थी कि उसकी उँगलियों में फँसे आधे फटे टिकट मुश्किल से दिखाई देते थे। थोड़ी-सी रोशनी उसकी मूँछों पर भी पड़ती थी, जिनमें कभी-कभी जलती हुई बीड़ी फँसी दिखाई देती थी। टिकट फाड़ते हुए जब वो परदे के पास वाली आखिरी पंक्ति के पास पहुँचता था तो उसकी आंशिक आकृति परदे पर उभर आती थी। ऐसे में वो सिनेमा का एक किरदार लगता था—अपनी भूमिका में बेहद सधा हुआ।
 
क़स्बे के दोनों सिनेमाघर बंद हो चुके थे और यह कोई अफ़सोस की बात नहीं थी। क़स्बे में किसी को याद नहीं था कि जब सपना टॉकीज बंद हुआ तो आख़िरी शो में कौन-सी पिक्चर चली थी—बूढ़े गेटकीपर को याद थी। आख़िरी शो शाम को ख़त्म हो गया था—‘नदिया के पार’। बस आठ-नौ दर्शक थे। उनके निकलने के बाद मूलचंद ने परदे को निहारा... कई कथानक ठहरे हुए थे। उसने मशीनमैन कमरुद्दीन को ऐसे आवाज़ दी, जैसे बहुत दूर जाना है। कमरुद्दीन तीसरे वाले छेद से ख़ाली परदे की ओर ताक रहे थे। मशीन पर रील चढ़ी हुई थी—तैयार। जैसे कल 12 बजे वाले शो में टिकट खिड़की पर लंबी लाइन लगेगी—धक्का मुक्की होगी। और दस मिनट में ही लाल स्याही से हाउसफ़ुल लिखी तख़्ती टिकट खिड़की के सामने टाँग दी जाएगी।
 
रोज़ाना रात 12 बजे आख़िरी शो ख़त्म करने के बाद मूलचंद और कमरुद्दीन एक ही साइकिल से निकलते थे। उस वक़्त के सन्नाटे में उन्हे कोई नहीं मिलता था, सिवाय शुक्ला चौराहे पर बैठे दो सिपाहियों के।
 
उस रोज़ शाम के क़रीब सात बजे मूलचंद को अकेले साइकिल से जाते हुए लोगों ने देखा। साइकिल के कैरियर में वहीं तख़्ती दबी हुई थी, जिस पर लिखा था—हाउसफ़ुल।

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