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रविवासरीय : 3.0 : वसंत उर्फ़ दाँत की दवा कान में डाली जाती है

• आगामी रविवार को वसंत पंचमी है। हिंदी में तीस-पैंतीस वर्ष की आयु के बीच जी रहे लेखकों के लिए एक विशेष दिन है। वे इस बार न चूकें। ऐसा मुझे स्वयं वसंत ने बताया है। 

• गए रविवार से लेकर इस रविवार के बीच—लखनऊ और कानपुर के सफ़र में मेरा रहना हुआ। इस सफ़र की वजहें साहित्यिक नहीं; मैत्रीगत थीं, लेकिन इस राह में कई परिचित-अपरिचित-अतिपरिचित-अतिअपरिचित साहित्यिक-असाहित्यिक-अतिसाहित्यिक-अतिअसाहित्यिक साथियों से मुलाक़ात हुई और हिंदी के दो प्रिय कथाकारों-संपादकों से भी और वसंत से भी।

• वसंत तीस-पैंतीस की वय के मध्य फँसा एक मध्यवर्गीय युवक है और लगभग दस-बारह वर्षों से हिंदी साहित्य में सक्रिय है; लेकिन वह जिस विशिष्ट पहचान का आकांक्षी-अधिकारी है, उससे अब तक वंचित है। 

• वसंत की वंचना पर सोचते हुए मैंने पाया कि ईमानदार व्यक्तियों और श्रेष्ठ लेखकों के विषय में कभी-कहीं भी अप्रिय व्यवहार या अपशब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। वसंत अपने आरंभिक समय से ही ये दोनों कार्य करता रहा है। इसलिए इतना सारा कथित कालजयी साहित्य और सिनेमा खपाने-पचाने के बावजूद वसंत के पास एक भी स्मरणीय स्वरचित पंक्ति नहीं, कोई लंबा छोड़िए लघु लेख तक नहीं, कोई बहुउद्धृत कविता नहीं, कोई अपूर्व अनुभव नहीं, कोई... 

वसंत ‘सदानीरा’ में बहुत बहा, लेकिन गति नहीं पा सका! 

इधर वसंत ने अपनी इस स्थिति पर विचार किया और तय किया कि इस बहार में वह अपनी ट्रोल-भूमिका से बाहर आएगा। वह इस बीच एक ज्योतिषी से मिला; जिसने उसे बताया कि उसकी साहित्यिक-अस्मिता शापग्रस्त है और यह शाप उन्हें ही लगता है, जो सही व्यक्तियों को ग़लत कहते हैं। उन्हें गालियाँ देते हैं। उनके बारे में झूठ बोलते-फैलाते हैं।

• लखनऊ में प्रतिष्ठित कथाकार और ‘तद्भव’ के संपादक अखिलेश जी से कुछ देर तक झूठ पर बात होती रही। उन्होंने कुछ पूर्वकालीन और समकालीन साहित्यकारों के उदाहरण देकर बताया कि वे नि:स्वार्थ भाव से झूठ बोलते थे/हैं। मैंने उनसे जानना चाहा कि क्या प्रेम इसकी वजह है? दरअस्ल, मेरा यों मानना रहा आया है कि प्रेम व्यक्ति को झूठ में सिद्धहस्त करता है। इस पर अखिलेश जी ने कहा कि हाँ एक समय में एक साथ एक से ज़्यादा प्रेम-संबंध रखने में झूठ अनिवार्य हो उठता है।

• सही और ग़लत का चुनाव सब बार सरल नहीं होता है। हम उलझ जाते हैं। इसका फ़ायदा वे व्यक्ति उठाते हैं, जिनका रचना से रत्ती भर भी सरोकार नहीं होता। वे इस सत्य को भी स्वीकार नहीं कर पाते कि साहित्य सबके लिए नहीं है। 

साहित्य लोकतंत्र नहीं है। 

बहरहाल, वसंत शापमुक्ति के लिए अब सरस्वती की शरण में है और सरस्वती की आराधना करने के लिए वसंत पंचमी से उपयुक्त-अनुकूल अन्य कोई दिन नहीं है।

• वसंत के अनुसार वह वसंत पंचमी की उषा में स्नानादि से मुक्त होकर पीले रंग के वस्त्र पहनेगा और सरस्वती-अर्चना का संकल्प धारण करेगा। वह अपने अध्ययन-कक्ष में माँ सरस्वती की प्रतिमा स्थापित करेगा और उसे गंगाजल से नहलाएगा। इसके बाद वह इस प्रतिमा को... क्षमा करें माँ सरस्वती को पीले वस्त्र पहनाएगा। वह उन्हें पीले फूल, अक्षत, पीले रंग की रोली, पीला गुलाल, धूप, दीप, गंध और पीत मिष्ठान अर्पित करेगा। माँ के गले में गेंदे की माला शोभा पाएगी...

या कुंदेंदु तुषारहार धवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा

शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्‌
हस्ते स्फाटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्‌
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्‌

• सरस्वती-साधना सरल नहीं है। हिंदी के एक अति उपेक्षित कवि-लेखक-अनुवादक-पत्रकार-संपादक नीलाभ ने अपने अंतिम साक्षात्कार में मुझे बताया था : 

‘‘मुझसे किसी ने एक दफ़ा पूछा कि भाई क्या करते हो? मैंने उससे कहा कि देखो भाई, मैं सत्रह साल की उम्र में एक औरत के भयंकर प्रेम में पड़ा। अज्ञेय से एक बार किसी ने पूछा था कि आप स्त्री में क्या देखते हैं? उन्होंने कहा था कि मैं उसे पीछे से देखता हूँ। उसकी गेट कैसी है, उसकी चाल कैसी है। ज़ाहिर है कि यह उसके नितंबों के बारे में है। …तो मैंने एक औरत को अपने पास से गुज़रते देखा—सफ़ेद साड़ी में। मुझे वह बहुत मोहक-आकर्षक लगी। मैं उसके पीछे हो लिया कि देखूँ उसका चेहरा कैसा है। मैं तेज़ हो जाऊँ तो वह और तेज़ हो जाए। मैं धीमा हो जाऊँ तो वह भी धीमी हो जाए। बहुत दिनों तक यह चलता रहा। मैं ऊबिया गया। मैंने कहा कि ऐसी की तैसी में जाओ। मैं दारू में चला गया। एक वक़्त बाद मैं लौटकर आया, तो देखा कि वह वहीं खड़ी है—पेड़ के पास! मैं फिर उसके पीछे हो लिया। वह फिर आगे बढ़ गई। यह खेल चलता रहा। वह शक्ल दिखाने को राज़ी नहीं! मैंने कहा कि यार ये तो मानती ही नहीं! इससे क्या प्रेम करना! अबकी बार मैंने कहा कि चलो कहीं और... लौंडियाबाज़ी-इश्क़बाज़ी करते हैं। उधर चले गए... लेकिन है वह बहुत ईर्ष्यालु, वह आपका इश्क़ कामयाब नहीं होने देती। फिर जब मैं उधर से घूम-फिरकर, तृप्त या अतृप्त जो कहो होकर आया... देखा फिर वह वहीं खड़ी है। मैं फिर उसके पीछे हो लिया। अगर मैं कहीं बैठ गया, तो वह भी बैठ गई। यह क्रम आज तक चल रहा है। वह मुड़कर देखती ही नहीं और हम कहते हैं कि बिना देखे तुम्हें, हम मानेंगे नहीं। इसलिए समझो कि यह उपेक्षा उसी की है।’’

मैंने नीलाभ जी से पूछा कि आप अब तक उसका चेहरा नहीं देख पाए? इस पर वह बोले : 

‘‘हाँ! समझो कि कौन है वह—दुर्गा और लक्ष्मी से ज़्यादा हठी। वह पूरा आदमी चाहती है। उसकी माँगें बहुत सख़्त हैं। उसकी चिंता से ऊपर आपने कोई और चिंता रखी तो वह बर्दाश्त नहीं करती है। वह चाहती है कि आप बस उसी के होकर रहें। फिर कहाँ जा सकता है भला आदमी, मर गया वह! बाक़ी स्साली ये कवि-संसार की उपेक्षा से मुझे क्या मतलब! तुम समझ गए न, मैं किसकी बात कर रहा हूँ?’’

मैंने कहा कि आपने उसे दुर्गा-लक्ष्मी से ज़्यादा हठी बताया है, इससे सब समझ जाएँगे कि वह कौन है।

• कानपुर में प्रतिष्ठित कथाकार और ‘अकार’ के संपादक प्रियंवद जी से कुछ देर तक नई पीढ़ी पर बात होती रही। वह चार चीज़ें एक नए लेखक के लिए बहुत नुक़सानदायक मानते आए हैं : पहली प्रसिद्धि, दूसरी आत्मसंतुष्टि, तीसरी ईर्ष्या और चौथी महत्त्वाकांक्षा।

प्रियंवद कहते हैं : ‘‘महत्त्वाकांक्षा की बात अजीब लगेगी, पर यह वास्तव में एक सीमा के बाद घातक हो जाती है। शेक्सपियर ने महत्त्वाकांक्षा को मनुष्य के सबसे बड़े दुर्गुणों में माना है। उसके कई पात्र इस महत्त्वाकांक्षा के कारण नष्ट हो जाते हैं। प्रसिद्धि, आत्मसंतुष्टि, ईर्ष्या और महत्त्वाकांक्षा... ये चारों चीज़ें रचनात्मकता को धीरे-धीरे कुतरती हैं और इस तरह नष्ट होना समझ में नहीं आता! अगर कोई भी लेखक स्वयं को इनके प्रभाव से बचा ले जाता है, तब वह अवश्य ही बड़ी रचनाएँ संभव कर पाएगा। यह मेरी सलाह नहीं, मेरा अनुभव है।’’

वसंत में प्रसिद्धि नहीं है, शेष तीनों बहुत हैं!

• कानपुर में ही रामस्वरूप जी के ठेले पर भी जाना हुआ। वह सत्तर साल से संसार को चाट खिला रहे हैं। उनकी प्रसिद्धि ने उनकी रचनात्मकता को अब तक कुतरा नहीं है; क्योंकि उनमें आत्मसंतुष्टि, ईर्ष्या और महत्त्वाकांक्षा नहीं है। रामस्वरूप जी वैविध्य को बहुत महत्त्वपूर्ण मानते हैं। वह कहते हैं कि आधिक्य-अति से बचिए और थोड़ा-थोड़ा ही सही—सब कुछ चखिए, सब कुछ से गुज़रिए, फिर सब कुछ से बचिए भी... आलू धनिया, पापड़ी, पालक-पकौड़ी, टिक्की, दही बड़ा, गोलगप्पे—हींग और जलजीरे आदि से युक्त विभिन्न प्रकार के पानियों से भरे।

• मैं अगला रविवार देखता हूँ—वसंत पंचमी की उषा! वसंत सरस्वती-कवच का पाठ कर रहा है। हवन-सामग्री तैयार है। वह ‘ॐ ऐं सरस्वत्यै नमः स्वाहा...’ करते हुए हवन कर रहा है। वह अंत में खड़े होकर माँ सरस्वती की आरती कर रहा है। माँ उस पर कुछ-कुछ प्रसन्न हो रही हैं। वह शाप से धीमे-धीमे मुक्त हो रहा है। हो रहा है न...

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अन्य रविवासरीय : 3.0गद्यरक्षाविषयक | पुष्पाविषयक 

 

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