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स्त्री सेक्सुअलिटी के पहलू

यदि कोई स्त्री कहे कि उसे सेक्स की चाह है, उसकी कामभावनाएँ असंतुष्ट हैं तो इसे क्या कहा जाएगा?  हमारे समाज में समस्या यही है कि यह वाक्य सुनते ही सारा ध्यान इस वाक्य से हटकर इस वाक्य को कहने वाली पर चला जाएगा और तुरंत उस स्त्री के लिए निर्णय बना/बता दिया जाएगा कि वह चरित्रहीन है। और अगर यही वाक्य कोई पुरुष कहे तब? तब यह केवल हँसी का विषय रह जाएगा और मज़ाक़ में उस पुरुष को इस तरह के वाक्य कि ‘अरे तो जाओ किसी को पटा लो’ कहे जाएँगे। यानी दोनों ही स्थिति में गंभीरता कहीं नहीं है, हम सेक्स या यौन-भावना से जुड़ी हर बात को प्राय: मज़ाक़ में ही उड़ा देते हैं। ऐसे ही सामाजिक परिवेश में कृष्णा सोबती ‘मित्रो मरजानी’ (वर्ष : 1967) को लेकर आती हैं। 

मित्रो एक ऐसी स्त्री है जो विवाहित है और ‘सेक्सुअली’ असंतुष्ट है। वह स्वयं इस बात को खुलकर कहती है—“मित्रो झिझकी-हिचकिचाई नहीं। पड़े-पड़े कहा—सात नदियों की तारू, तवे-सी काली मेरी माँ, और मैं गोरी-चिट्टी उसकी कोख पड़ी। कहती है, इलाके के बड़भागी तहसीलदार की मुँहादरा है मित्रो। अब तुम्हीं बताओ, जिठानी, तुम-जैसा सत-बल कहाँ से पाऊँ-लाऊँ? देवर तुम्हारा मेरा रोग नहीं पहचानता।... बहुत हुआ हफ़्ते-पखवारे... और मेरी इस देह में इतनी प्यास है, इतनी प्यास कि मछली-सी तड़पती हूँ!”

हम जानते हैं कि सेक्स मनुष्य के मूल प्रवृत्तियों (‘बेसिक इंस्टिक्ट्स’) में से एक है। यदि इसकी पूर्ति नहीं होगी तो एक समय के बाद मनुष्य का व्यवहार सामाजिक नियमों के अनुसार भी नहीं हो पाएगा ठीक उसी तरह से जैसे ‘कफ़न’ में भूख (बेसिक इन्स्टिंक्ट्स में से एक) की अतृप्ति के कारण घीसू और माधव का व्यवहार वैसा नहीं रह जाता जैसे व्यवहार की अपेक्षा उनसे की जाती है। यही स्थिति हम मित्रो की देखते हैं। उसके यौनिक स्तर पर असंतुष्ट होने के कारण जो कुछ भी होता है उसे ख़राब माना जाता है। उन विभिन्न स्थितियों को लेखिका बारी-बारी से पाठकों के समक्ष रखती हैं। किताब में मित्रो का प्रथम आगमन ही होता है लड़ाई-झगड़े से। और वहीं पर संकेत में यह स्पष्ट कर देती हैं कि यह पति-पत्नी का झगड़ा आए दिन होता ही रहता है। मित्रो की सास कहती है—“फिर वही मार-पिटाई! इन दोनों के हाथों बड़ी दुखी हूँ। यह तो पुराना जूड़ी का ताप है। आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों। जैसा अभागा अपना सरदारी लाल, वैसी ही खपाने-कलपानेवाली बहूटी मिल गई!” संभव है कि यह झगड़े इसलिए होते हों क्योंकि मित्रो अपने पति से असंतुष्ट है, इस कारण उसके अन्य पुरुषों से संबंध हैं, (जिसका संकेत कई जगहों पर आता है) ऐसे में स्वाभाविक है कि कोई भी पुरुष इस बात को सहन नहीं कर सकेगा। यहाँ उसके अहम और अधिकार दोनों की बात आ जाएगी।  

यहाँ एक बात पर और ध्यान जाता है कि कभी भी माँओं को अपना बेटा ग़लत नहीं लगता, हमेशा बहू/स्त्री ही ग़लत लगती है। धनवंती के लिए भी उसका बेटा ‘अभागा’ है और बहू ‘खपाने-कलपानेवाली’। 

यौन-असंतुष्टि मनुष्य को चिड़चिड़ा, ग़ुस्सैल बना देती है। यह स्थिति मित्रो के साथ भी है। मित्रो का जेठ बनवारी लाल उसके पति सरदारी लाल से पूछता है, “बरख़ुरदार, मैंने भी एक नहीं, दो-दो ब्याही हैं; पर कभी ऐसी नौबत नहीं आई। तेरी ही घरवाली आए दिन क्यों बिफरती है?” हिंदी शब्दसागर के अनुसार बिफरना का अर्थ होता है—बाग़ी होना, विद्रोही होना, बिगड़ उठना, नाराज़ होना। मित्रो के व्यवहार में यह सब कुछ देखने को मिलता है। इसलिए स्त्री के लिए जो तय नियम हैं, उन सबका मित्रो विरोध करती नज़र आती है। यह उपन्यास की शुरुआत से अंत तक रहता है। इसके कई संदर्भ हम देख सकते हैं, मसलन, धनवंती के यह कहने पर कि “समित्रावंती, इसे ज़िद चढ़ी है तो तू ही आँख नीची कर ले। बेटी, मर्द मालिक का सामना हम बेचारियों को क्या सोहे?” मित्रो की यह प्रतिक्रिया देखिए—“बहू ने बिफरकर और सिर ऊँचा कर लिया और पहले की-सी ढिठाई से सामना किए रही।” 

बहुओं से यह अपेक्षा रहती है कि वे घर के बुज़ुर्गों के सामने ख़ासकर ससुर, जेठ के सामने घूँघट में रहें, शांत रहें लेकिन मित्रो इससे उलट है—“मँझली बहू नंगे सिर बैठी चारपाई पर हिन-हिन हँसती थी और बड़ा लड़का बनवारी छाती पर हाथ कसे खड़ा-खड़ा दाँत पीसता था।” 

जिस समाज में स्त्रियों को पुरुषों को अधीन रहना सिखाया जाता है, उस समाज में कुछ समय के लिए यह माना जा सकता है कि स्त्री अपनी यौनिक असंतुष्टि जाहिर कर सकती है; लेकिन वह यह नहीं प्रकट कर सकती कि उसका विवाहेतर संबंध है। मित्रो भी अपनी असंतुष्टि को तो ज़ाहिर कर रही है, लेकिन वह परिवार में चालाकी से अपने विवाहतेर संबंध को छुपा ले जाती है; क्योंकि वह जानती है कि उसे चरित्रहीनता का प्रमाणपत्र दे दिया जाएगा, इसकी परिणति घर से बेदख़ली होगी और जिस समाज में स्त्री के लिए घर ही, ख़ासकर उसकी ससुराल को ही सब कुछ बना दिया गया वह उससे निकल कर कहाँ जाएगी? लेकिन इन सबमें यह तो स्पष्ट है कि मित्रो को कितने स्तरों पर परेशानी का, दबाव-तनाव का सामना करना पड़ता है। 

अपनी यौनिक-असंतुष्टि के कारण मित्रो का मनोविज्ञान ऐसा बन गया है जिसके कारण हर वक़्त उसके दिमाग़ में इन्हीं सबसे जुड़ी बातें चलती रहती हैं और सबके सामने बात-बात में प्रकट भी होती रहती हैं। उदाहरणत:—“चाहो तो मेरी यह चिकनी-चुपड़ी सौत निगल लो, न हो तो मुझे ही चबा लो!”, “मौला जी, मैं नहीं तो यह आग-सिंकी सौतिया ही सही!”, “मैं किस्मत-जली क्या करूँ? मेरा ढोल तो मुझसे बेमुख!”, “मेरे बस में मेरा बाँका ढोल नहीं, और सब कुछ है!”

यौनिकता से ही मातृत्व-भावना जुड़ी हुई है। शुरुआत में ही यह बात आती है कि मित्रो का उसके पति के साथ संबंध बनता तो है, लेकिन उसकी कमी बनी रहती है। जब आगे सुहागवंती के गर्भवती होने का पता चलता है तभी एक और बात की ओर लेखिका ने संकेत कर दिया है कि मित्रो के अब तक माँ न बन पाने के पीछे उसके पति की अक्षमता है। और यह मित्रो के लिए और भी दुख की बात है क्योंकि एक तो वह यौनिक स्तर पर असंतुष्ट है ही, साथ ही मातृत्व जिसे स्त्री-जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष माना गया है, वह उससे भी वंचित है। यह दुख ग़ुस्से और झल्लाहट के रूप में प्रकट होता है। धनवंती के यह कहने पर कि “मालिक करे, तेरी गोद भी बाल-बच्चे पड़ें तो आप ही गबरू ढंग पर आ जाएगा।” इसके प्रत्युत्तर में मित्रो का यह स्वरूप उसकी झल्लाहट को प्रकट करता है—“मित्रो ने सास की ओर देखा तो देखते ही चली। आँखों में मानो कोई आग लपलपाती हो और कंठ ऐसा कि तेज धारवाली दराँती हो—सुरखरू हो बैठो, अम्मा! तुम्हारे इस बेटे के यहाँ कुछ होगा तो मित्रो चूहड़ी के पैरों का धोवन पी अपना जन्म सुफल कर लेगी!”

मित्रो हर क़दम पर, जहाँ अनिवार्य लगता है; वहाँ वह विद्रोह करती है। विभिन्न शास्त्रों—काव्यशास्त्र, कामशास्त्र में नायिकाओं के जो तीन प्रमुख भेद बताए गए हैं उनमें से सबसे अच्छी है स्वकीया, जो पातिव्रत्य का पालन करने वाली है, दूसरी है परकीया जो अपने पति के अलावा पर-पुरुष (?) से प्रेम करती है तथा तीसरी है गणिका जो विभिन्न पुरुषों से पैसे के लिए संबंध बनाती है। मित्रो के एक वाक्य से पितृसत्ता का यह स्वरूप जैसे चूर-चूर हो जाता है—“ज़िंद-जान का यह कैसा व्यापार? अपने लड़के बीज डालें तो पुण्य, दूजे डालें तो कुकर्म!” यह एक वाक्य मर्यादा, अधिकार, संपत्ति सब पर सवाल करने के लिए काफ़ी है। 

नाट्यशास्त्र के ज़रिए भरत कहते हैं—

                                   “भूयिष्ठमेव   लोकोऽयं सुखमिच्छति  सर्वदा। 
                                  सुखस्य हि स्त्रियो मूलं नानाशीलाश्च ता पुनः।।”

(नाट्यशास्त्र, भाग 3,  भरतमुनि, सं. एवं व्याख्याकार : बाबूलाल शुक्ल शास्त्री, चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, पृ. 202, श्लोक सं. 98) 

इसके अनुसार मानें तो यह सामने आता है कि इस भूलोक में सभी लोग सुख के आकांक्षी हैं, तथा इसके मूल में स्त्रियाँ हैं, जिनकी विभिन्न प्रकृति होती है। इस श्लोक के आधार पर यह प्रतीत होता है कि सुख पाने के केंद्र में पुरुष वर्ग है जिनके मूल में स्त्रियाँ हैं, यानी पुरुषों के सुख के लिए ही स्त्रियों का अस्तित्व है। ऐसा मानने वालों के लिए कृष्णा सोबती का यह उपन्यास एक क़रारा जवाब है कि हाँ इस भूलोक में स्त्रियाँ भी सुख की आकांक्षी हैं, क्योंकि वे मनुष्य ही हैं और उनके सुख के मूल में केवल पुरुष ही नहीं है, बल्कि यौनिकता है जो स्त्री या पुरुष; किसी से भी संतुष्ट हो सकती है। क्योंकि एक जगह पर ऐसा भी लगता है कि लेखिका समलैंगिकता की ओर इशारा कर रही  हैं, जहाँ मित्रो की चाहत है; लेकिन उसकी जिठानी, सुहागवंती, वह समाज के बने-बनाए नियमों में चलने वाली स्त्री है—‘स्वकीया’ नायिका।  

तमाम तरह के तनाव में रहने के बावजूद मित्रो का व्यक्तित्व नकारात्मक नहीं बन पाता है, वह सबके साथ हँसी-मज़ाक़ का, सहयोगी के रूप में ही व्यवहार करती है। हाँ, लेकिन जिस चीज़ की उसे कमी है, यौन-संबंध की, उससे उसका व्यक्तित्व ऐसा बन गया है कि वह हर वक़्त उसी के बारे में सोचती रहती है और इसलिए वह शायद ताने में ही अधिकांश समय बात करती है। एक बात और जो सबसे अधिक सुकूनदायक लगती है वह यह कि इस असंतुष्टि के बावजूद मित्रो अपना विवेक नहीं खोती। उपन्यास तब दिलचस्प तरीक़े से अंत को पहुँचता है जब मित्रो कुछ दिनों के लिए अपने मायके जाती है और भीतर ही भीतर ख़ुश होती है कि वहाँ उसके कई पुराने चाहने वाले हैं। उसकी माँ वेश्यावृति करती है, पर उम्र ढलने के साथ वह जानती है कि अब ज़्यादा दिन वह इससे पैसे नहीं कमा पाएगी इसलिए मित्रो को भी वह इसी पेशे में लाना चाहती है। मित्रो को जैसे ही यह समझ आता है, वैसे ही वह वापस अपने पति के पास कमरे में चली जाती है।

इस तरह से देखा जाए तो यह उपन्यास शास्त्रों के मुताबिक परिभाषित तीनों प्रकार की नायिकाओं का उदाहरण प्रस्तुत करता है। पहली, स्वकीया नायिका—सुहागवंती, जिसका नाम भी बहुत सटीक रखा गया है; आख़िर स्वकीया का संबंध सुहाग से ही तो माना गया है। दूसरी, परकीया नायिका—मित्रो और तीसरी गणिका नायिका—बालो, मित्रो की माँ। इन तीनों में अपनी यौनिकता अभिव्यक्त करती परकीया और गणिका आई है और स्वकीया पतिव्रता की तरह, जिसके व्यवहार/व्यक्तित्व में यौनिक-अभिव्यक्ति शामिल नहीं होती है; क्योंकि तुरंत उसे उस ढाँचे से अलग कर दिया जाएगा जिसका मतलब है समाज की नज़र में बुरी बनना। इस तरह यह उपन्यास पितृसत्ता को चुनौती देने वाला एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास के रूप में आता है, उसमें भी आज से लगभग 60 वर्ष पहले, जबकि आज भी कोई स्त्री अपनी यौनिकता अभिव्यक्त करे तो उसे ख़राब माना जाता है। हालाँकि यह उपन्यास सिर्फ यौनिकता को ही केंद्र में नहीं लाता, बल्कि स्त्री-जीवन के विभिन्न स्वरूपों पर विचार करने की राह दिखाता है; विशेषत: गृहस्थ जीवन में किन-किन रूपों में स्त्रियाँ शामिल हैं—इसके अध्ययन के लिए भी यह किताब एक माध्यम हो सकती है।

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