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लैला-मजनूँ : मुहब्बत की वह मंज़िल जहाँ पहुँचना आसान नहीं

नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (National School of Drama) 23 अगस्त से 9 सितंबर 2024 के बीच हीरक जयंती नाट्य समारोह आयोजित कर रहा है। यह समारोह एनएसडी रंगमंडल की स्थापना के साठ वर्ष पूरे होने के अवसर पर किया जा रहा है। समारोह में 9 अलग–अलग नाटकों की कुल 22 प्रस्तुतियाँ होनी हैं। समारोह में 28 और 29 अगस्त को नाटक ‘लैला-मजनूँ’ खेला गया। यहाँ प्रस्तुत है नाटक की समीक्षा :

यह मुहब्बत की एक ऐसी शाइरी है, जिसमें लैला-मजनूँ के अफ़साने को फिर से एक रवायती शाइरी और ड्रामे के अंदाज़ में बयाँ किया जा रहा है। जिससे सातवीं सदी के शुरुआती सालों में मिडिल ईस्ट ख़ानाबदोश बानू अमीर क़ौम की आबो-हवा में पल रहे दो जवान बाशिंदों की ज़िंदगी का मुख़्तसर-सा पता चलता है।

नाटक की शुरुआत में औरतों का एक कोरस-दल इस अफ़साने को दर्शकों के सामने पेश करता है। वह इस दास्तान की सरसरी बीती कहानी बताता है। नाटक में आगे हम लैला के वालिदैन को यह बात करते हुए पाते हैं कि क़ैस और लैला के बीच पनप रही मुहब्बत ने उनके ख़ानदान को शर्म के अलावा और कुछ नहीं दिया, इसलिए लैला को अब घर पर ही नज़रबंद रखा जाना चाहिए और उसे एक बावक़ार ख़ानदान के किसी बावक़ार इंसान की बीवी बनाने की तैयारी की जानी चाहिए।

उधर क़ैस अपने वालिद सैय्यद को लैला के वालिदैन से बात कर लैला से उसकी शादी की पेशकश करने को मना लेता है। सैय्यद एक मालदार, ताक़तवर और इज़्ज़तदार आदमी है और कई सालों बाद कै़स की पैदाइश से उसकी एक औलाद की ख़्वाहिश पूरी हुई थी, इसीलिए वह उससे बेइंतहा प्यार करता है। अपने बेटे की ख़ातिर वह लैला के वालिद से बात करता है, लेकिन वह शादी की इस पेशकश को ठुकरा देता है।

मायूस हो क़ैस, लैला को देखने तक से परहेज़ करने लगता है और उदासी के दलदल में डूबने लगता है। उसके वालिद उसे इस दर्द से नजात दिलाने और अल्लाह की दुआ पाने के लिए ज़ियारत पर मक्का ले जाते हैं, लेकिन वह काबा में फूट-फूट कर रोने लगता है—

“कोई भी दिन मेरा इस दर्द से आज़ाद न होगा। मुझे प्यार करने दे अल्लाह, मुहब्बत के लिए मुहब्बत करने दें, और मेरी मुहब्बत को उससे सौ गुना महान बना दें जैसा वह था या है!” 

फिर वह लैला की ख़ूबसूरती और अपनी मुहब्बत की शाइरी गुनगुनाने लगता है। उसे सुनने लोग आने लगते हैं। वह भले-बुरे का भेद जाने बिना ही बेतरतीब दूर वीरानों में भटकने लगता है। उसे लोग मजनूँ कहने लगते हैं। पागल और न जाने भी क्या-क्या। उसका मज़ाक़ उड़ाते हैं। वह जंगल में घूमता, बचता, खोजता और उस खोज में और भी बड़ी मुहब्बत पा लेता है।

इसी तरह भटकते हुए एक दिन उसकी मुलाक़ात शहज़ादे नौफ़ील से होती है जो लैला को उसकी ज़िंदगी में वापस लाने में उसकी मदद करने का वादा करता है। अपने वादे के मुताबिक़ नौफ़ील तमाम कोशिश करता है, वह लैला के वालिद को पकड़ लेता है और उसकी फ़ौज को हरा देता है। लेकिन उसकी ताक़त एक वालिद के सामने टिक नहीं पाती और वह पीछे हट जाता है।

आख़िरकार लैला की शादी शहज़ादे इब्ने सालिम से हो जाती है, जो ख़ुद लैला से बेहद मुहब्बत करता है। बावजूद इसके कि उसने लैला के बारे में कई तरह की बातें सुनी हैं, वह उसे अपनी बीवी क़ुबूल कर लेता है।

इस बीच कोरस के साथ अफ़सानानिगारों की एक जोड़ी—आमिर और साबिर—नैरेटर के रूप में नमूदार होती है और ड्रामे में कई बार तमाशबीन बनकर मुहब्बत, दर्द और जुदाई की इस अविश्वसनीय कहानी के गवाह बनते हैं। यहाँ पर यह कहना ज़्यादा बेहतर होगा कि अपने हर वक़्फ़े को वह लैला और मजनूँ के साथ जीते हैं।

वक़्त बीतता है, इब्ने सालिम की मौत की ख़बर आती है। दो साल तक उसकी मौत का सोग मनाने के बाद लैला क़ैस को खोजने के लिए निकल पड़ती है। जब वह उसे खोज लेती है तो उसे महसूस होता है कि जिससे वह मुहब्बत करती थी, वह क़ैस कब का फ़ना हो गया है। और अब उसकी जगह एक नए क़ैस ने ले ली है। यह क़ैस अब लैला के उसी अक्स से मुहब्बत करता है जो उसके दिल में मौजूद है और हर हाल में अफ़ज़ल-तरीन है।

ग़मगीन लैला क़ैस को छोड़ देती है, क्योंकि वह इस दुनियावी ज़िंदगी के परे—मुहब्ब्त और रौशनी की ज़िंदगी में दाख़िल हो गया है। लैला मर जाती है, कोरस उसे उसके अंज़ाम तक पहुँचाता है। तमाम ख़ला ‘या हबीबी’ के नारों से गूँज उठती है जो इस गै़बी मिलन को बख़ूबी बयाँ करती है। दूर ग़ैब से एक दर्दनाक चीख़ सुनाई देती है जो ‘या हबीबी’ पुकारने के लिए भी तरसती है। वह किसकी रूह है?

निर्देशक राम गोपाल बजाज के निर्देशन में नाटक की शक्ल में एक सूफ़ी तराने की पेशकश हुई, जिसमें अभिनेता रूपी सूफ़ी संत लैला-मजनूँ की मुहब्बत के अफ़साने की आड़ में ख़ुदा तक पहुँचने का तरीक़ा बता रहे थे। नाटक में अभिनय कर रहा हर एक कलाकार अपने किरदार के अक्स के साथ मंच पर मौजूद था। इस नाटक के बारे में लिखते हुए, एक साथ कई विचार आ रहे हैं... जिसे लेकर मन दुविधा में है कि पहले किसके बारे में लिखूँ?

यह नाटक केवल लैला-मजनूँ के प्रेम और वियोग की कहानी नहीं है। नाटक एक तरफ़ औरतों के अथाह कष्ट से भरी हुई ज़िंदगी की बात करता है और ठीक एक ही समय में ‘बंदे का ख़ुदा’ हो जाने के सफ़र को दर्शकों के सामने रखती है। इस नाटक में दर्शन और हक़ीक़त का वह सम्मिश्रण है, जो एक साथ आपको अचंभित और भावुक करता है। 

आप विचारों के अथाह सागर में ग़ोते लगाते हुए सोचते हैं कि आख़िर इश्क़ में इतनी ज़िल्लत और इज़्ज़त कैसे है? जो इश्क़ हमारी आँखों को खटकता है। जिसे फ़ना करने के लिए पूरी दुनिया की असीम ताक़तों ने समय-समय पर अपना पूरा ज़ोर लगाया। उस इश्क़ का दामन थामकर कोई बंदा कैसे ख़ुदा हो सकता है? लेकिन यही तो इश्क़ है, जिसके बारे में दुनिया के तमाम सूफ़ी-संतों ने अपनी-अपनी ज़बान में कुछ न कुछ ज़रूर कहा है। जैसे ख़ुसरो कहते हैं : 

“ख़ुसरो दरिया प्रेम का सो उल्टी वाकी धार!
जो उतरा सो डूब गया; जो डूबा सो पार!”

इस दरिया में क़ैस कब उतरा? कब डूबा? और कब पार हो गया? यह क़ैस के अलावा बस ख़ुदा जानता है।

इश्क़ के सात मुक़ाम होते हैं—दिलकशी, उन्स, मुहब्बत, अक़ीदत, इबादत, जुनून और इसके बाद आती है मौत। 

नाटक में पाँच औरतें दास्तान सुना रही हैं। वे पाँचों औरतें निर्देशक और रचनाकार की रूह है। जो पंच तत्त्व की तरह है। दुनिया में बीत चुकी, बीत रही और बीतने वाली घटनाओं की प्रकृति ही एकमात्र गवाह है, जिसका अभिनय क्रमशः पूनम दहिया, रीता देवी, शिवानी, शिल्पा भारती और पॉली कर रही थीं। वह कहानी शुरू और ख़त्म करती हैं। किरदार आते हैं और अपने हिस्से की कहानी कह कर चले जाते हैं, लेकिन उन किरदारों की कहानी केवल उनकी कहानी नहीं है।

लैला एक अल्हड़-सी लड़की, जो हवाओं के संग भागती-दौड़ती है। जिसे पंछियों संग गुनगुनना, गिलहरियों संग नाचना सुकून देता है। इज़्ज़त, मान-मर्यादा की दुहाई देकर उसके पंख कुतर दिए जाते हैं। लैला बनी अभिनेत्री मधुरिमा तरफदार की रूह में लैला समाई थी।

उसके पिता बने ताबिश ख़ान जब उसकी माँ से एक ख़ानदानी घर के आबरू की बात करते हैं, तो आप सोचते हैं कि यह कैसी आबरू है? जिसकी नीव मुहब्बत के जनाज़े पर बनी है। उसके बाद कहानी लैला की माँ की कहानी है, जो दुनिया की तमाम औरतों की कहानी है। 

एक अच्छी औरत कैसी होती है? इसका बयाँ जब आप सुनेंगे तो एक-एक संवाद आपको भीतर तक चोट पहुँचाएगा। आप सोचेंगे कि अच्छी औरतों के इन तौर-तरीक़ों में भला क्या अच्छा है? अपना पूरा जीवन किसी एक मर्द की सुनते-सुनते उसके पीछे नज़रे झुकाए चलते हुए बिता देना। अच्छा है? तो फिर बुरा क्या है? अपनी तमाम ख़्वाहिशों को मारकर अपने शौहर की ख़ुशी में हँसी तलाशना आज़ादी का कौन-सा रूप है? पूजा गुप्ता ने अपने दमदार अभिनय से दर्शकों के सामने मजबूत तरीक़े से हर औरत की कहानी को पेश किया है।

एक ओर ये सारी चीज़ें हो रही हैं। दूसरी तरफ़ क़ैस दिलकशी से उन्स और मुहब्बत तक का सफ़र तय कर लैला के लिए बेचैन मारा-मारा फिर रहा है। क़ैस बने अभिनेता अनंत शर्मा ने क़ैस को आत्मसात् कर उसे मंच पर ला खड़ा किया है। दर्शकों के लिए अनंत ही क़ैस था। उसके पिता बने सुमन कुमार ने बाप होने के दुःख और ज़िम्मेदारियों को अपने महीन अभिनय से दर्शकों को महसूस कराया है। 

कहानी आगे बढ़ती है। क़िस्सागो आते हैं। अलग-अलग किरदारों के बहाने एक ही कहानी सुनाते हैं, जिसकी कहानी के हर किरदारों का दुःख एक-सा है। आमिर और साबिर बने अभिनेता शिव प्रसाद और सत्येंद्र मलिक दर्शकों के लिए जले हुए जिस्म पर मरहम की तरह आते हैं, और ज़रा-सी राहत देकर अगले ज़ख्म के लिए छोड़कर चले जाते हैं। 

नौफ़ील का ज़िक्र किए बिना आगे बढ़ना बेईमानी होगी। जो क़ैस की रूखी ज़िंदगी में दूर्वा की तरह आया। जिसने क़ैस और लैला को मिलाने के लिए अपनी पूरी ताक़त झोंक दी। लेकिन तलवारों से दिल जीते जाते तो तोपों पर मुहब्बत ना लिखी होती। अभिनेता मुजिबुर रहमान अपने किरदार में जम रहे थे।

लैला के दीवानों की फ़ेहरिस्त लंबी है। इब्ने सालिम भी उनमें से एक है, जिसका अभिनय विक्रम कर रहे थे। बात अब यहाँ तक आ गई है कि लैला का निकाह कर उसे किसी इज़्ज़तदार घर की ज़ीनत बना दिया जाए। इब्ने सालिम के हाथ लैला सौंप दी जाती है और कहानी रुख़ अख़्तियार करती है क़ैस की तरफ़...

क़ैस अब अक़ीदत, इबादत की हद को पार कर जुनून के रास्ते पर है। सहराओं में, जंगलों में तन्हा लैला-लैला पुकारता हुआ भटक रहा है। क़ैस की मुहब्बत लैला के लिए कुछ इस क़दर थी कि लैला कब ला-इलाह हो गई, उसे ख़बर भी नहीं हुई। जब सैयद उसे मक्का ले जाता है तो वह वहाँ कुछ और माँगने की जगह लैला से मुहब्बत की दुआएँ माँगता है। उसके लिए ख़ुदा की शक्ल लैला-सी दिखती है। 

“तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना खो चुका हूँ मैं 
कि तू मिल भी अगर जाए तो अब मिलने का ग़म होगा”

वसीम बरेलवी

वसीम साहब की ये पंक्तियाँ उस वक़्त याद आई, जब लैला अपने जीवन के तमाम झंझावातों से पीछा छुड़ाकर क़ैस के पास पहुँचती है। और उसकी बाहों में चंद लम्हें आराम करना चाहती है, लेकिन तब तक क़ैस इश्क़ के आख़िरी मुक़ाम के मुहाने पर झुका हुआ होता है। वह लैला को पहचानने से साफ़ इंकार करते हुए कहता है, “लैला मेरी रूह में है, लैला मेरे दिल में है, लैला ज़र्रे-ज़र्रे में है, तुम अपने को लैला कहकर उसकी तौहीन ना करो। ए शहज़ादी तुम लौट जाओ।”

क़ैस मुहब्बत की उस ऊँचाई को छू गया। जहाँ पहुँच पाना अब शायद किसी आशिक़ के बस की बात नहीं है। जो मुहब्बत के सागर में जितने गहरे ग़ोते लगाएगा, उसके हाथ उतने ही बेशक़ीमती मोती हाथ आएँगे। क़ैस सागर के तल तक पहुँचा और उसने ख़ुदा को पा लिया। लैला का दम क़ैस को याद करते हुए सजदे में ही टूट गया। वह ज़रूर सितारों की पार वाली दुनिया में क़ैस की हमराही बन गई होगी।

नाटक का संवाद, प्रकाश, ध्वनि, सेट और अभिनय को एक सूत्र में निर्देशक ने जिस सूफ़ियाना तरीक़े से बाँधा है वह कमाल है। राम गोपाल बजाज के निर्देशन की एक अद्भुत बात यह है कि वह हर महीन से महीन दृश्य का पूरा ध्यान रखते हैं। यह नाटक के दृश्य और संगीत में भी साफ़ झलक रहा था।  इस नाटक का मेरे अंतर्मन पर कहीं गहरे प्रभाव पड़ा है। शायद इसलिए ही इतना सब कुछ कहने के बाद भी लग रहा है कि अभी तक मैंने बात ही शुरू नहीं की है। 

‘लैला-मजनूँ’ नाटक के हर दृश्य और हर एक किरदार पर लंबी बातचीत और उनके जीवन पर गहन चिंतन हो सकता है। जिस चिंतन की वर्तमान समय में बेहद ज़रूरत है, लेकिन अंत तक पहुँचना मेरी मजबूरी थी और नियति भी है।

क़ैस वह शख्स है, जिसे मुहब्बत में, मुहब्बत से ख़ुदा मिल गया।

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