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क्यों मिथिला की आत्मनिर्भर संस्कृति हो रही है छिन्न-भिन्न!

कहा जाता है ‘हमर मिथिला महान’ मतलब हमारा मिथिला महान! मिथिला का इतिहास काफ़ी समृद्ध रहा है। ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से यह बेहद महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है। इसका इतिहास वैदिक काल (1500-500 ई. पू.) से प्रारंभ है। हमें यह भी ज्ञात है कि भारत के सोलह महाजनपदों में मिथिला भी एक महाजनपद था। 

मिथिला पर विदेह जनक वंश का शासन था। यहाँ के राजा जनक को—जिनका वास्तविक नाम सीरध्वज है—राजश्री की उपाधि दी गई थी। राजा जनक अपने दरबार में कई विधाओं के लिए विख्यात थे। जिनमें परिचर्चाओं के लिए वह अधिक प्रसिद्ध थे। महाकाव्यों-पुराणों और कई अन्य स्रोतों के अनुसार मिथिला में अनुमानतः पचपन राजाओं ने शासन किया। ‘बृहद विष्णु पुराण’ में मिथिला के बारह नामों का उल्लेख है। जिनमें ‘मिथिला’, ‘विदेह’ और ‘तिरहुत’ अथवा ‘तिरभुक्ति’ विशेष प्रसिद्ध हैं। 

मिथिला के उत्तरी सीमा में हिमालय, दक्षिण में गंगा नदी, पूरब में महानंदा नदी और पश्चिम में गंडक नदी को माना जाता है। नदियों पर स्थित होने के कारण ही यह पूरा क्षेत्र ‘तीरभुक्ति’ नाम से प्रसिद्ध हुआ था। मिथिला विश्वव्यापी पर्यटन स्थल के रूप में भी प्रसिद्ध है। जनक नंदनी माँ जानकी का जन्मस्थल है मिथिला! 

मिथिला की मुख्य भाषा मैथिली है। मैथिली भारोपीय भाषा परिवार से संबंधित है। वर्तमान में मैथिली भारतीय संविधान के आठवीं अनुसूची में अपना स्थान पा चुकी है। 

मैथिली की एक समृद्ध साहित्यिक परंपरा रही है। इस भाषा के महान् कवि महाकवि विद्यापति (1350-1448 ई.) को माना जाता है। यह आदि कवि के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। इनके द्वारा इस भाषा में प्रेम और भक्ति के प्रसिद्ध गीत लिखे गए हैं।

किसी भी संस्कृति का मुख्यवाहक उसकी अपनी भाषा होती है। वैसा भूभाग जिसके अपने लोग हो, अपनी भाषा हो, अपना क्षेत्र हो और यूँ कहें कि अपनी संस्कृति हो। मैथिली के पास अपना सब कुछ है। आज दुनिया के तक़रीबन आठ करोड़ लोग मैथिली भाषा बोलते हैं, जो सुखद है। बेहद सुखद है और मैथिली के उज्जवल भविष्य का द्योतक है। 

भारत में मुख्य रूप से दरभंगा, मधुबनी, सीतामढ़ी, समस्तीपुर, मुंगेर, मुजफ़्फ़रपुर, बेगूसराय, पूर्णिया, कटिहार, किशनगंज, शिवहर, भागलपुर, मधेपुरा, अररिया, सुपौल, वैशाली, सहरसा, राँची, जमशेदपुर और धनबाद आदि जिलों में मैथिली बोली जाती है। इसके अतिरिक्त नेपाल के कुछ जिले में भी जैसे—धनुषा, सिरहा, सुनसरी, सप्तरी, मोहतरी, मोरंग और रौतहट में भी मैथिली बोली जाती है।
 
मैथिली भाषा को वर्ष 1965 में साहित्य अकादेमी ने मान्यता दी। 1965 से प्राय: प्रत्येक वर्ष श्रेष्ठ मैथिली रचनाकार को इस पुरस्कार से सम्मानित किया जाता रहा है। आज के समय में मैथिली साहित्य हर विधा में ख़ुद को संपुष्ट कर रही है। जहाँ तक कि इसकी सांस्कृतिक धरोहर ‘मिथिला पेंटिंग’ अथवा ‘मधुबनी पेंटिंग’ भी अपनी अनूठी शैली के लिए काफ़ी प्रसिद्ध है। जो चमकीले मिट्टी के प्राकृतिक रंगों तथा ज्यामितीय पैटर्न का उपयोग कर के बनाई जाती है। 

मिथिला पेंटिंग में विशेषकर हिंदू पौराणिक कथाओं को दर्शाया जाता है, जो बेहद ख़ूबसूरत दिखता है। वर्तमान में तो यह सब काफ़ी गतिशील दिख रहा है। मिथिला पेंटिंग में अब सामाजिक घटनाओं के विभिन्न दृश्यों को भी जगह दी जाने लगी है, जो सराहनीय है। और इस पेंटिंग के जरिए लोग हर दिन कुछ नया करने की कोशिश कर रहे हैं। यह अनोखा प्रयास आज हम सब के बीच आय का स्रोत भी बन रहा है। लोगों के लिए मिथिला पेंटिंग अथवा मधुबनी पेंटिंग से रोज़गार उत्पन्न हो रहा है। 

इंस्टाग्राम, फ़ेसबुक और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से इन चीज़ों का प्रचार-प्रसार भी आसानी से हो जा रहा है, जिस कारण इन व्यवसाययों को बहुत कम लागत से भी बहुत अच्छे से चलाया जा रहा है।

मिथिला की पैंसठ प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर आधारित है। यहाँ की अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का सबसे बड़ा योगदान है। हालाँकि पिछले कुछ वर्षों में कास्तकारों का एक विस्तृत भाग कृषक मज़दूर में तब्दील हो गया है। ग्रामीण क्षेत्रों में सीमांत और उपसीमांत किसानों की संख्या ही है। कारण बहुत साफ़ है—इस क्षेत्र में रोज़गार के अवसरों का अभाव, वर्तमान में जिस तरह की सुख-सुविधाएँ लोगों को चाहिए, उसका अभाव। 

यहाँ के किसानों को अब कृषि क्षेत्र में कोई आशा नहीं दिखती है, वह निराश हो चुके हैं। छोटे-छोटे किसान तो अपनी ज़मीन को बेचकर यहाँ से पलायन कर रहें हैं और इसके कारण—अर्थात् मिथिला से कृषक के पलायन से—यहाँ के कृषि-क्षेत्र की स्थिति दिन-ब-दिन बाद से बदत्तर होती जा रही है। 

मिथिलांचल के इस पलायन पर गंभीर रूप से विचार करने की ज़रूरत है, साथ ही कोई समय सापेक्ष निर्णय लेने की भी आवश्यकता है। धीरे-धीरे लोग गाँव को छोड़ रहे हैं। अपनी संस्कृति को छोड़ रहे हैं। फलत: मिथिला की आत्मनिर्भर संस्कृति छिन्न-भिन्न होती नज़र आ रही है। कई जगह आधुनिक परिवेश में छूटना जायज़ हो गया है, तो बहुत जगहों पर एकदम सँभलकर अपने संस्कृति को बचाकर रखने की आवश्यकता भी है ही, पर यह नहीं हो पा रहा है। 

कभी-कभी ऐसा लगता कि अब यह नष्ट होने के कगार पर है और यह बिलकुल ही ग़लत संकेत है। जबकि मिथिला में, यहाँ के इंफ़्रास्ट्रक्चर के हिसाब से, निवेश की प्रवल संभावनाएँ हैं। समग्र विकास के लिए एक स्पष्ट और तार्किक नीति की आवश्यकता है, जो समय सापेक्ष हो। चूँकि समाज ही अगर रसातल में होगा तो साहित्य भी बहुत विकसित हो, यह मात्र कल्पना बन कर रह जाएगा। और जहाँ पर साहित्य ही न हो, वहाँ नई पीढ़ी के लिए धरोहर क्या होगा?

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