कुसुमपुर के एक बूढ़े आदमी की कथा
अमर मित्र 03 जनवरी 2025
कुसुमपुर के वृद्ध फ़क़ीरचंद जाएँगे बड़ाबाबू के पास। उनकी पीठ पर एक छड़ी है, जिसमें एक छोटी-सी पोटली लटकी हुई है। बूढ़ा आदमी थोड़ा झुक कर चलता है। अब प्रकाश होने का समय है, इस चैत माह की सुबह में पृथ्वी नर्म और ठंडी रहती है। हवा और मिट्टी आश्चर्यजनक रूप से प्रसन्न हैं। फ़क़ीरचंद अकेले ही बड़ाबाबू के पास जाएँगे। मुर्ग़ों की बाँग अभी बंद नहीं हुई है। बच्चे जल्दी-जल्दी घर से निकल गए हैं। एक-एक क़दम आगे बढ़ाते हुए, बूढ़ेबाबा ने हाथ जोड़े और नए सूरज को प्रणाम किया। हाँ, अब आँख भी अच्छी लग रही है और शरीर भी। हवा का हल्का झोंका बूढ़े की धुँधली आँख में कोमल हाथ के स्पर्श जैसा महसूस हो रहा है।
अब उनकी उम्र अवश्य ही साठ साल तक पहुँच गई होगी! लेकिन पता नहीं क्यों, अभी से ही इस उम्र में उन्हें दुनिया धुँधली दिख रही है। उनके हाथ-पैर काँपने लगते हैं। उनकी शरीर की त्वचा ढीली और झुर्रियों वाली हो गई है, आँखों और मुँह में कई सिलवटें दिखने लगी हैं। इस उम्र में अचानक ही बूढ़े की इच्छा हुई कि वह दस मील दूर दुर्गहुरी जंगल को पार करके पश्चिम दिशा में स्वर्ण-रेखा के किनारे कन्याडीहा गाँव में बड़े बाबू के पास जाए और अपने सारे दुख-दर्द दूर करे। मन बहुत बेचैन है। अनदेखे रास्ते से वह बड़े बाबू के पास जाएगा, लेकिन दुख-दर्द एक नहीं हैं... बहुत सारे हैं!
जैसे—ये आँखें। उस आदमी के पास ज़रूर ऐसा कोई डॉक्टर मिलेगा, जिसके पास खड़े होने से उसकी आँखें ठीक हो जाएँगी। मोतियाबिंद को काटने के बाद भी फिर से मोतियाबिंद लौट आता है। वह अभी दुनिया को जी भर कर नहीं देख पाया है और उसे विश्वास है कि उस बड़े आदमी के पास उसके लिए कोई-न-कोई दवाई ज़रूर होगी। उसके पास मौजूद अलग-अलग दवाइयों में कोई तो जंगल की जड़ी-बूटी होगी, जिससे उसका मोतियाबिंद ज़रूर ठीक हो जाएगा!
उनका इकलौता बेटा है, जो गाँव की एक लड़की को लेकर चाकुलिया शहर भाग गया था। उसने वहाँ जाकर कुछ काम-काज भी ढूँढ़ लिया था, लेकिन इस उम्र में बेटा पास नहीं होने का उन्हें बड़ा दुख है। बेटे का जन्म बुढ़ापे की ख़ुशी के लिए ही तो होता है। अपने बेटे को घर वापस लाने के लिए उन्होंने ऐसी अचूक योजना बनाई, जिससे वह लड़की को छोड़ कर घर वापस आ जाएगा।
और ज़मीन-जायदाद... अकेला आदमी फ़क़ीरचंद... पत्नी मर चुकी है। अब ज़मीन-जायदाद की सुरक्षा, ज़िम्मेदारी इस शरीर में भारी पड़ती है। गाँव के अच्छे भोले-भाले लोग इच्छानुसार फ़सल काट कर ले जाते हैं। उस फ़सल को बचाने के लिए बड़ेबाबू की सलाह ही काफ़ी होगी।
और पत्नी की मौत के बाद भी इन सत्तर सालों के शरीर का ख़ून ठंडा नहीं हुआ। अगर उसकी कोई ग़रीब लड़की की खोज पूरी हो जाए तो... बूढ़े की आँखें चमक उठती हैं। लार होंठों के कोनों तक आ जाती है। जवान लड़की देखते ही अभी भी उसका शरीर जाग उठता है! इस सबके चलते बूढ़ा फ़क़ीरचंद ज़रूर बड़ेबाबू के पास जाएगा। वह कन्याडीहा में रहते हैं। वह उसे सब कुछ बताएगा।
फ़क़ीरचंद ने कल रात अपनी मृत्यु का सपना देखा। गाँव के लोग उसकी मौत के लिए पूरी तरह तैयार हैं। जब वह मर जाएगा तो संपत्ति लूट ली जाएगी। नहीं, ऐसा नहीं होगा... नहीं हो सकता...
कई-कई वर्षों से उसने बड़ेबाबू के बारे में सुना था। उनके बारे में कितना कुछ सुनने को मिलता था। इस एरिया के ताज हैं वह। उनकी बातों से सब कुछ हो जाता था। उनके शब्दों सब कुछ बदल भी जाता था।
फ़क़ीरचंद पंद्रह साल पहले इस गाँव में आया था। उससे पहले, उसका घर परिहाटी गाँव में था। यहाँ आकर उसका घर हुआ, ज़मीन का एक छोटा-सा टुकड़ा हुआ। तब से ही वह बड़ेबाबू के बारे में सुनता आ रहा था, लेकिन वह कभी नहीं गया उनके पास, वह अब उनके पास जाएगा। उसे पहले इस बात पर विश्वास नहीं था, लेकिन अब यह सब फ़क़ीरचंद के दिमाग़ को चकरा देता है।
इस उम्र में मन के अंदर क्या कुछ नहीं होता है! पत्नी मर गई, बेटा लड़की लेकर भाग गया। वह अकेले ही इस महल की रक्षा के लिए रह गया। और बूढ़े फ़क़ीरचंद को घर के दरवाज़े पर यक्ष की तरह बैठे रहना पड़ता है। गाँव के दस लोग चाहते हैं कि वह मर जाए, लेकिन मरना इतना आसान नहीं। बूढ़े ने चलते हुए सोचा—अगर आँख बेहतर हो जाए तो वह दुनिया को एक बार फिर गर्म ख़ून के एहसास से देखेगा।
कुसुमपुर की झाड़ियाँ, जलविहीन तालाबों और पोखरों से होकर निकलती हुई एक खेत में मिलती हैं। यह मैदान, कुसुमपुर की विशाल देह पर हल्की-सी चढ़ाई, पथरीली गेरुआ भूमि और ऊपर तक फैले हुआ है। विशाल आकाश, क्षितिज में लुप्त होती रोशनी में गहरा होता जा रहा है। गहरी रोशनी में कई लोग अकेले जा रहे हैं; इस तरह समय चल रहा है, अब यही दृश्य है। अभी लंबा रास्ता तय करना है। खेत पार करने हैं, गाँव पार करना है, जंगल पार करना है, फिर और घना जंगल पार करना है। खेत, जंगल, गाँव और फिर इसी तरह यह रास्ता चलता जाएगा। बूढ़े को याद नहीं है कि वह कितने साल पहले इस गाँव में वहाँ आया था। उससे बहुत समय पहले वहाँ उस गाँव में एक विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। घड़-घड़ की आवाज़ पर उसने आकाश की ओर देखा। हेलीकॉप्टर कलाईकुंडा की ओर जा रहा है।
ऐसे ही चलते-चलते, सूरज पीतल के रंग का हो गया था। लाल चमकदार सूरज ने कब रंग बदला! वह ठंड में मैदान पार करता है। आकाश और भी दूर चला जाता है। यह जंगल में एक छोटा-सा रास्ता है। इस रास्ते पर चलते-चलते जब जंगल पार हो गया तो वह रुका और सामने एक नहर देखी। पानी कमर तक गहरा होगा। साल के बाक़ी समय में तो यह और भी ज़्यादा होगा। इस चैत्र में पानी घट गया है, बैसाख में और नीचे गिर जाएगा।
क्या इसके ऊपर एक छोटा-सा पुल नहीं था? कहाँ गया! आँख छोटी करके बूढ़ा चारों ओर देखता है। कहीं नहीं, कहीं नहीं। क्या उससे ग़लती हुई? यह तो बरगद का पेड़ है! बूढ़े ने अपनी धुँधली आँखें खोल कर अच्छे तरह से देखा। उसे याद आया कि नहर को पार करने वाली जगह पर ही तो यह बरगद पेड़ था। कितने कालों से यह यहाँ खड़ा है। महाकाल का बरगद। वह यहाँ है, लेकिन पुल नहीं है। पुल का चिह्न तक नहीं है।
बूढ़े आदमी ने नीचे देखा और देखा कि वहाँ काफ़ी पानी था। यह मरादही क्षेत्र में पानी का एकमात्र स्रोत है। दूसरी ओर; झाँकरा बरगद गर्व से खड़ा है, लेकिन पुल ग़ायब हो गया है। उसे ख़तरा महसूस होता है... समय का ख़तरा... जीवन का ख़तरा...
नहर के तल में कीचड़ है। वहाँ पानी और पानी का स्रोत भी है। बूढ़ा बरसात के मौसम में—नाकफूड़ी मछली (एक प्रकार की मछली) पकड़ने के लिए गया और वह पाँच मील दूर क़दमडीहा में मृत अवस्था में फँस गई थी। बूढ़े को डर महसूस हुआ। यदि यह पुल पार नहीं किया तो कैसे आगे बढ़ें? वह दाएँ-बाएँ देखने लगा। इस लड़खड़ाते शरीर के साथ, ऐसी धुँधली आँखों के साथ, वह पानी में नहीं उतर सकता। उसे नाकफूडी की याद आती है।
बूढ़ा फ़क़ीरचंद रुक गया और ख़तरे में खड़ा हो गया। सूरज अठखेलियाँ करने लगा। आसमान में सूरज काफ़ी चढ़ गया है। आस-पास सब सुनसान है।
ऐसे ही उसे दूर तक कोई बाँसुरी की आवाज़ सुनाई देती है। स्वर गहरा होता है। वह सुनने लगा। धूल से सनी आँखों से इधर-उधर देखते रहा। कहाँ? एक काला आदमी बाँसुरी बजाता हुआ, धूमकेतु की तरह आगे आया। फ़क़ीरचंद को कोई एक मनुष्य मिला...
“तुझे कहा जाना है, गाँवबूढ़ा?” उसने बाँसुरी बजाना बंद करके पूछा।
“बड़ेबाबू के पास...” फ़क़ीरचंद आगे आकर बोला।
“बड़ेबाबू! वह कौन है?” उसने आश्चर्यचकित होकर पूछा।
“तुम बड़ेबाबू के बारे में नहीं जानते?” बूढ़ा हँसा।
वह बड़ेबाबू के बारे में क्या कहेगा। इस संसार के बारे में क्या सब कुछ कहा जा सकता है?
बूढ़ा आदमी अचानक एक गीत गाने लगा—
फूल खिलता है तो सुगंध कौन फैलाता है?
वर्षा में बादलों में पानी कौन भरता है?
जब फूल खिलता है तो
उसमें सुगंध डालता है वह
बादलों को पानी से भर देता है वह...
काले आदमी की आँखें चौड़ी हो गईं। बूढ़े फ़क़ीरचंद ने उससे बड़ेबाबू के बारे में बहुत बातें कीं।
“क्या तू सच कह रहा है, बूढ़े?”
“हाँ। मैं झूठ नहीं बोलता हूँ। तुम मेरा दुख नहीं जानते हो; मेरा जवान बेटा भाग गया है, पत्नी मर गई है। मेरे घर पर लोग नहीं हैं। आँखो में ठीक से दृष्टि नहीं हैं। बड़ेबाबू सब ठीक कर देंगे।
बाप रे! भगवान की तरह! नए बादल की भाँति शरीर में उमड़ आती है विस्मय की लहर।
“तब तू जा, बड़ेबाबू के पास जा।” यह बोल कर वह आदमी वापस जाना चाहता है।
बूढ़ा उसके हाथ पकड़ कर बोलता है—“कैसे पार करूँगा यह पुल?”
“मुझे कैसे पता?” वह हाथ छुड़ाना चाहता है।
“तू मुझे पार करा दे” बूढ़े ने करुण कंठ से कहा।
“तब मुझे क्या मिलेगा?”
“मैं तुझे सब दिला दूँगा। बड़ेबाबू के पास जाकर सब कहूँगा... तेरे पास भी तो दुख होंगे न!”
“हाँ!”
“मैं तेरा दुख दूर कर दूँगा, बड़ेबाबू को कह कर।”
“सच?”
“हाँ, मुझ पर विश्वास रख... बड़ेबाबू के नाम पर झूठ नहीं बोलूँगा।”
वह काला आदमी बूढ़े फ़क़ीरचंद के हल्के शरीर को अपने कंधों पर लेकर नहर में उतर गया। पानी को धकेलते हुए और दुख के बारे में बात करते हुए बोला, “मैंने तुम्हें नदी पार कराई है, बड़ेबाबू को मेरे बारे में ज़रूर बताना।”
इस छोटी-सी सोनेमंडी के अंदर वह बंकिम हाँसदार की लड़की से प्रेम करता है। वह लड़की भी इस काले आदमी को प्यार करती है। लेकिन आगे क्या होगा? लड़की का पिता उसकी शादी बिल्कुल नहीं कराएगा।
शादी की बात सुन कर बूढ़े का शरीर ख़ुशी से भर गया। क्यों नहीं कराएगा शादी?
“मेरे पास न घर है, न ज़मीन”
“तो क्या हुआ” बूढ़ा खिल कर ख़ूब हँसा।
तब तक दोनों नदी के दूसरी तरफ़ पहुँच चुके थे।
“ओ बूढ़े आदमी सुन! मैं उससे प्यार करता हूँ। बहुत प्यार। यह बड़ेबाबू से कहना।”
गाँवबूढ़ा, तू कहना; नए बादल जैसा युवक एक स्त्री से प्यार करता है, जिसका नाम विष्णुप्रिया है। गाँव का नाम आसनबनी है। अगर तुम बड़ेबाबू से मिल सकते हो तो मिल लो।
उसने कहा कि वह अभी नहीं जा सकता, अभी कलाईकुंडा जाएगा। वह मज़दूर का काम करता है वहाँ।
वह कल शाम को यहीं इंतिज़ार करेगा। बूढ़े को फिर नदी पार कर देगा।
उसने तेज़ धूप में जाते-जाते बाँसुरी बजाई। बाँसुरी की आवाज़ हवा में उड़ती हुई दूर तक गई। बूढ़े को नदी पार करा कर, वह फिर से ग़ायब हो गया। फ़क़ीरचंद उदासीन भाव से चलता रहा। सूरज और अधिक कठोर होता गया।
“ओह! बेचारा बहुत दुखी है; जिस लड़की से प्यार करता है, उसके साथ शादी नहीं हो सकने की वजह से बहुत दुखी है... मुझे बड़ेबाबू को सब कहना होगा।”
गाँवबूढ़ा चलता रहता है। ऊबड़-खाबड़ मिट्टी का गेरुआ रास्ता। एक तरफ़ जंगल और दूसरी तरफ़ ढलानदार खेत। घना जंगल, पेड़ों से ढका पहाड़। चैत माह का अंतिम दिन। बहुत सारे फूलों की महक हवा में तैर रही है। सालफूल, महुआ फूल...
बीस-तीस साल पहले यह शरीर भैंस जैसा था। सब मिट जाने की बाद भी आख़िर निशान कुछ बाक़ी है। नहीं तो, गर्मी के दिन में इस शिथिल शरीर में इतना चलना कैसे संभव है? वह अपने लड़खड़ाते शरीर और धुँधली आँखों के साथ लड़खड़ा कर चल रहा था।
अब धूप चाँदी के रंग की हो गई है। सीधे शरीर पर गिर रही है। मानो हवा में आग चल रही हो। ऐसी धूप में चलते-चलते फ़क़ीरचंद का गला सूख गया। जीभ पर कड़वा स्वाद आने लगा। देह सूख कर जली हुई लकड़ी में बदल गई। बूढ़ा फ़क़ीरचंद सारी अव्यवस्था को धुँधली आँख से देखता है। जंगल के दूसरी ओर कठिन चढ़ाई है। उसे ख़तरा महसूस होता है; लेकिन बड़ेबाबू के पास जाना है, अभी बहुत दूर जाना है।
उसकी गति धीमी हो जाती है। वह हाँफ़ता रहता है। तभी कहीं से गाना सुनाई देता है। इस भरी धूप में कौन गाना गा रहा है? गाँवबूढ़ा ने आवाज़ के तरफ़ चलना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे गाने की पुकार स्पष्ट हो जाती है। उजला जंगल—मैदान के एक टुकड़े में बदल गया। वहाँ बहुत सारे पुरुष और स्त्रियाँ एकत्रित हैं। संथाल अपनी भाषा में गाना गाने लगे। वहाँ बूढ़ा धीरे-धीरे, धीमे-धीमे चल कर आ गया। सिर घूम रहा है, आँखों के सामने अँधेरा छा रहा है।
“यहाँ क्या हो रहा है?” फ़क़ीरचंद ने हाँफते हुए पूछा।
यहाँ हर कोई नशे में है। वे बूढ़े आदमी को देख कर ख़ुश हो जाते हैं।
“अरे वाह! यह किस गाँव से यहाँ आया है?”
“इसे भी दे दो यह चावल का पकवान!”
धूप में तो इसका सिर फटने वाला है। वह एक छोटे से नीम के पेड़ की छाया में बैठ जाता है।
“शालुई पूजा हो रही है बूढ़ा बाबा।”—एक ने कहा।
“कोई मुझे पानी पिलाओ। मैं मर रहा हूँ।”
एक चमचमाते बर्तन में पानी आता है। बूढ़ा अपने सिर में पानी डालता है। गले से नीचे पानी डालते ही वह होश में आता है। धीमे-धीमे दृष्टि फिर से वापस आ रही है। नीम की छाया में वह गहरी साँस लेता है।
“यहाँ पूजा क्यों कर रहे हो?”
“क्यों? जाहेरा थान, शालुई पूजा होगी। फिर जंगल जाएँगे सब।” एक आदमी बोलता है, उसकी बातें उलझी हुई और असंगत हैं।
उधर लड़कियाँ फिर गाने लगीं। बूढ़ा अपनी डबडबाती आँख पर दबाव डालता है। डाँट कर गाने को रोकने को कहता है।
“परदेसी आदमी बात कर रहा है, अब गाना नहीं...”
संथाल मुखिया पूछता है, “हाँ बूढ़े आदमी, ‘जाबू काई?’ कहाँ जाना है?”
“कनियाडीही”
“घर कहाँ है?”
“कुसुमपुर।”
“कुसुमपुर! हाय बाबा! जाना है कनियाडीही, यह है कहाँ? कितना दूर है? किस लिए जाना है?”
बूढ़ा अब स्थिर है। सबके चेहरे की तरफ़ देखता है। सबकी आँखें लाल हैं और सब नशे में काँप रहे हैं।
“बड़ेबाबू के पास जाना है।”
“वह कोई आदमी है या फ़ॉरेस्टर?”
“अरे भाग! क्या तुम बड़ेबाबू के बारे में नहीं जानते हो?”
बूढ़ा आश्चर्यचकित हो गया।
फूल खिलता है तो सुगंध कौन फैलाता है?
वर्षा में बादलों में पानी कौन भरता है?
जब फूल खिलता है तो
उसमें सुगंध डालता है वह
बादलों को पानी से भर देता है वह...
वह बड़ेबाबू की महिमा का बखान करने लगा।
“हमें कोई बड़ेबाबू के ज़रूरत नहीं है, हम सब ठीक हैं। अच्छे हैं...”
“चुप रहो। कोई तेज़ आवाज़ में डाँटता है।”
फ़क़ीरचंद तिरछी नज़र से युवतियों को देखता है और अलग मन से उनसे कहता है, “बता दे तेरा जो दुख है। सब मिट जाएगा।”
“हाँ कहूँगा... अभी तुम को हड़िया पीना है?” उसने बूढ़े का हाथ पकड़ लिया और पूछा।
“नहीं, बड़ेबाबू के पास जाना है।”
“आह! तब पहले हमारी दुख की कहानी सुनो।”
हम लोगों का बहुत बड़ा दुख है, बूढ़ा बाबा। हम शालुई पूजा अच्छे से नहीं कर पाते हैं, क्योंकि साल के पेड़ पर्याप्त नहीं मिलते। पेड़ को फ़ॉरेस्टर खड़गपुर भेज देते हैं। लकड़ी नहीं मिलती, साल के पत्ते नहीं मिलते, शिकार नहीं मिलता है... सब खड़गपुर भेज दिया जाता है। बराह नहीं जुटता है। मरांग बुरु संतुष्ट नहीं होते हैं। पूजा में सुअर की बलि देना हमारे लिए कठिन हो गया है। हमारी बेटियाँ विदेशियों के साथ भाग जाती हैं। अगर हम नशा करते हैं तो पुलिस आकर हमें पकड़ लेती है। सभी को झाड़ग्राम भेज दिया जाता है।
उस आदमी ने अपना सिर घुटनों के बीच दबा लिया और रोने लगा। पड़ोसी भी रोने लगे।
“बूढ़ा तू बरम ठाकुर है; हम लोगों का दर्द सुनने आया है, तू हड़िया खा, भात खा। अगर तुझे भात-चावल नहीं खाना है, तो पानी पी ले...”
उन्होंने बूढ़े को पकड़ कर चावल खिला दिया। ज़ोर-जबरदस्ती। मुँह को नहीं चाहिए; शरीर को अच्छा नहीं लगता, लेकिन फिर भी पेट को तो कुछ मिला। फिर बूढ़े को उठना पड़ा। संथाल पुजारी पीछे-पीछे आते हैं और कहते हैं, “ओ बूढ़े, तू बता देना उन्हें; बता देना कितना दुख है हमारा... दर्द दूर करने लिए, हम तुझे बहुत प्यार करेंगे...”
फ़क़ीरचंद का दिल पिघल जाता है। बोला, “कल तू यहीं रुकना, लौटते समय तुझे सब बता दूँगा।”
गाँवबूढ़ा रास्ते पर बढ़ चलता है। कुछ क़दम चलने के बाद वह हँसता है और फिर उदासीन हो जाता है। कितने लोग पीड़ित हैं! कितना दुख हैं! बड़ाबाबू को सब कुछ बताना होगा। ऐसे चलते-चलते सूरज सिर के ऊपर गिर पड़ता है। आसमान से तेज़ आवाज आ रही है। बादल! नहीं, यह बादलों की आवाज़ नहीं है। कलाईकुंडा में बम की आवाज़। रिहर्सल चल रही है।
दुर्गाहुरी वन आ गया। देर हो रही है। इस जंगल को पार करते हुए दो गाँव, खेत फिर सुवर्णरेखा नदी। कन्याडीहा उसी नदी के तट पर है। बड़ेबाबू उस नदी के पास रहते हैं। दीर्घ उन्नत, विकसित शरीर। भव्य रंग। सिर के बाल अब तक सफ़ेद हो गए होंगे। फ़क़ीरचंद ने बड़ेबाबू को तो नहीं देखा, उसके बारे में सुना है सिर्फ़। उसने आँखों से नहीं देखा, लेकिन कानों से सुना है।
बड़ेबाबू को सोनामंडी के बारे में बताना पड़ेगा। उस गाँव के संथालों के बारे में बताना होगा। उसे अपने लिए भी बोलना होगा। वह यक्ष की तरह पहरा दे-देकर जीवित नहीं रह सकता है, या तो मुझे पत्नी चाहिए या लड़का घर वापस आ जाए।
गाँवबूढ़ा काँपता हुआ रास्ते पर चलता है और ऐसे ही चलते-चलते बूढ़े को पता ही नहीं चलता कि कब आसमान पेड़ों के पीछे खो गया। अब वह गहरे जंगल में है। कहीं सूरज दो टुकड़ों में दिख रहा है, नहीं तो सब छाया। जंगल पहले बहुत डरावना था, अब कम है। यह कितनी आश्चर्य की बात है।
बरम ठाकुर इस जंगल में किसी जानवर की पीठ पर बैठ कर घूमते फिरते हैं। उस साल वृक्ष के नीचे मिट्टी के ढेर में, मिट्टी के हाथी-घोड़ों के साथ उनके स्थान है। वह राक्षसी रुक्मिणी देवी का स्थान है। बूढ़ा रास्ते पर चलने लगा। फिर अचानक वह एक समय ख़तरे में पड़ जाता है...
तीन दिशाओं में तीन सड़कें हैं। जाएगा कहाँ? धुँधली आँखों से इधर-उधर देखा, फिर अचानक ताड़ के पेड़ के नीचे कुछ हलचल देखी, कोई आदमी है क्या?
वह काँपती आवाज़ में चिल्लाया, “कौन है, इस तरफ़ आओ!”
उस आदमी ने हाथ से पुकारा। बूढ़े की धुँधली आँखें साफ़ देखती हैं। सीना ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा है। वह बहुत डर गया है। यह दुष्ट आत्मा है क्या? जो चलते-फिरते आदमी की तरह दिख रहा है। किसी भी हालत में, दिशाहीन बूढ़े को अब वहाँ जाना ही होगा। वह आगे बढ़ता है...
धुँधली आँख है, लेकिन उसे सब कुछ साफ़ दिखता है। वह काँप उठा। यह कौन है! यह मानव है! गहरा लाल चेहरा। वह छिन्न होकर जंगल में पड़ा हुआ है।
“आप कहाँ से हैं?” बूढ़ा उसकी तरफ़ पैसे फेंक देता है। लेकिन वह उसे छूता भी नहीं, समाज ने जिसे अछूत मान रखा है, वह पैसा लेकर क्या करेगा...
फ़क़ीरचंद स्तब्ध होकर रह गया। यह आदमी क्या कह रहा है?
“मौत ने मुझे को पकड़ लिया है... मुझे छोड़ो...”
“बूढ़े आदमी, कहाँ जाना है तुझे? कौन-सा गाँव?”
“कनियाडीही, बड़ेबाबू के पास।”
वह आदमी शांत बैठा रहा। निर्विकार।
“कोई बड़ी बीमारी है क्या तुम्हें, कितने दिन हुए?”
“इस जेठ में पाँच साल होंगे।”
बूढ़ा फ़क़ीरचंद सामने खड़े होने से भी डर रहा है।
“बीमारी की वजह से मैं तुम्हारा चेहरा भी देख नहीं पा रहा हूँ... मुझसे सहन नहीं हो पा रहा।”
“कनियाडीही जानेवाला रास्ता कौन-सा है?” लेकिन बूढ़े को जवाब नहीं मिलता।
“तुम बड़ेबाबू के पास जाओगे तो वह तुम्हें दवाई देंगे...” बूढ़ा फिर कहता है।
“वह कौन है?” जंगल की शांति में कुष्ठ रोगी की आवाज़ का गूँजने लगती है।
बूढ़े का शरीर ठंडा होने लगता है। काँपती आवाज़ में वह उसे कन्याडीहा के महापुरुष के बारे में बताता है। उस बीमारी से आदमी के आँखें सूज जाती हैं, वह आगे बढ़ता है और बूढ़े को पकड़ लेना चाहता है। बूढ़ा डर के दूर चला जाता है।
“मैं रास्ता दिखा रहा हूँ। तुम तुम्हारे बड़ेबाबू से कहना, बीमारी ठीक हो गई तो एक बार घूमना चाहता हूँ गाँव में।”
बीमार आदमी की आवाज़ भारी हो जाती है।
अंत में, वह आदमी बूढ़े को रास्ता दिखा देता है। बूढ़ा फ़क़ीरचंद दवा लेकर लौटने का वादा करता है।
“अगर बड़ेबाबू, एक बार उसे छू भी दें तो उसकी बीमारी ठीक हो जाएगी।”
अब फ़क़ीरचंद ज़ोर-ज़ोर से चलने लगता है। उसका सीना भारी होने लगा है।
ऐसा शरीर, कुष्ट रोग ने इतनी कम उम्र में उसे ऐसा कर दिया! वह यह सब कहेगा, बड़ेबाबू को। सबके बारे में बात करेगा। सब कुछ बताएगा। इन लोगों के बिना वह कैसे बड़ेबाबू तक पहुँच पाता? इसलिए वह पहले सबके लिए बात करेगा।
सूर्य अब पश्चिम की ओर, नदी की तरफ़ चला गया है। बूढ़ा व्यक्ति उदासीनता से चलता जा रहा है। यही संभवतः कन्याडीहा है, स्वर्णरेखा भी दिख रही है। सफ़ेद रेतीलातट। वहाँ ही बड़ेबाबू का घर होगा! बूढ़ा ज़ोर-ज़ोर से चलने लगा।
लोग कितने दुखी हैं! कितना दर्द है! दुख है! सबके दुख दूर हो जाते तो कितना अच्छा होता! सोचते-सोचते बूढ़ा मुस्कुराया। लोग दुख को नहीं समझेंगे तो सुख को कैसे समझ पाएँगे? इस उम्मीद से वह इतना दूर आया है।
दुपहर में दुनिया ग़मगीन हो गई। उसकी छाती उत्साह से फूल रही है। पतला शिथिल शरीर, झुर्रियों वाली त्वचा, धुँधली आँखें—वह काफ़ी तनावग्रस्त है। हाँफ़ते हुए उसने जीभ बाहर निकाल ली है। शरीर बार-बार झुक रहा है। अब काश उसे कहीं शांति मिल पाती। थोड़ा-सा विश्राम! और अगर उस घर में उसकी मरी हुई पत्नी जीवित होती, लड़का घर छोड़ कर न जाता, तो इतनी मुश्किल न होती।
शिथिल शरीर के साथ, उसने धुँधली आँखों से दुनिया को देखा। मोतियाबिंद ख़त्म हो जाता। फिर एक दिन वह अपने बेटे का हाथ पकड़ कर यहाँ आता। बेटा उन्हें कंधे पर उठा कर ले जाता। कन्याडीहा के बड़ेबाबू उसकी आँखों का इलाज करके ठीक कर देते! वह दुनिया को फिर से स्पष्ट देख पाते।
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, इसलिए इस चैत के दिन में और जीवन के इस भोर में वह अदृश्य महापुरुष के पास आया है।
वह सीना तान कर चला। छाया लंबी हो गई है। सूरज छुपता गया। फ़क़ीरचंद उदास महसूस कर रहा है। दिन के अंत में, चाँद के हाट जैसा संसार याद आता है। गाँवबूढ़ा सुवर्णरेखा के तट पर पहुँचा है। इस जगह का नाम कन्याडीहा है! एक उदास हवा ने उसे चारों ओर से घेर लिया है। तेज़ हवा चल रही है। इसी गाँव में रहते हैं बड़ाबाबू!
नदी ने गाँव का सब कुछ निगल लिया है। यहाँ-वहाँ वास्तु के निशान बिखरे हुए हैं। ताड़ के पेड़ों, बबूल और कई अन्य पौधों की झाड़ियों से अँधेरा और गहरा लग रहा है और आश्चर्य की बात है कि कहीं भी एक व्यक्ति नहीं है। बूढ़े की आँखें धुँधली होती जाती हैं। धुँधली दृष्टि। वह अस्पष्ट आँखों से ही लोगों की तलाश करता है। कुछ लोग तो होंगे ही होंगे! यहीं तो बड़ेबाबू के गाँव के बाद नदी ने ख़तरनाक मोड़ लिया था... तब... और कहाँ है गाँव?
शरीर थकने लगा है। यह कन्याडीहा नहीं हो सकता! रास्ता ग़लत हो गया है! या आस-पास ही और कहीं है गाँव! कहीं और! कहीं और! धीरे-धीरे अँधेरा फैल गया है।
हवा नदी पार करके बूढ़े आदमी के पास से गुज़री रही है। अँधेरा और भी गहरा हो जाता है। फ़क़ीरचंद परेशान होकर इधर-उधर लोगों की तलाश कर रहा है। तभी अचानक एक आदमी, जिसके एक हाथ में लालटेन लटकी हुई थी, फ़क़ीरचंद के पास से गुज़रा।
थका हुआ बूढ़ा और चिल्लाया, “वह आदमी कौन है, रोसो?” वह आदमी रुक गया।
“बड़ेबाबू का घर किस गाँव में है?”
“बड़ेबाबू!”
उसने अँधेरे में आश्चर्य से बूढ़े आदमी की ओर देखा और देखता रहा।
गाँवबूढ़ा काँपती आवाज़ में बड़ेबाबू की महानता का बखान करने लगा। वह थके हुए लोगों को विश्राम देते हैं। अनंत जीवन की बात करते हैं। सहज ढंग से कितनी ही कठिन समस्या का समाधान कर देते हैं! वह एक बड़े आदमी हैं। वह बहुत बड़े आदमी हैं। वह रोग और शोक का आश्रय है!
वह पथिक ज़ोर से हँसा, “हा...हा, तुम सपना देख रहे हो। ऐसा आदमी कहाँ है? कहीं नहीं! आजकल ऐसे लोग कहीं नहीं हैं!” पथिक सिर हिलाते हुए आगे बढ़ जाता है।
फ़क़ीरचंद फिर अकेला हो जाता है।
तभी चंद्रमा गेरुए रंग का अंडा बन कर अँधेरी दुनिया में तैरने लगता है। उसके सामने दूर तक कोई नहीं है। विशाल बड़ाबाबू भी नहीं! सिर्फ़ विशाल रेत वाली यही एक नदी है! यह सब कितना रहस्यमय है। बूढ़े का सिर ठीक नहीं हो पा रहा है। सब कुछ ग़लत लग रहा है! यदि बड़ाबाबू हैं नहीं, तो अब हम जैसे लोगों का कोई नहीं हैं। अगर वह नहीं होंगे तो हमारा दर्द, सोनामुंडी का दर्द, बीमार लोगों का जीवन और उस संथाल गाँव का दर्द कैसे दूर होगा?
वह रेत पर जा गिरा। रेत के चौड़े टीले पर। धीमे प्रकाश में रेत चमक रही थी। विशाल रेत पर उतर कर और उदार आकाश के नीचे खड़े होकर वह चिल्लाने लगा, “यक्ष जैसा सँभल कर कितने दिन जीवित रहूँ! कितने दिन ऐसे अँधेरी आँखों में बिताऊँ!
“यह नदी तो है, लेकिन वह आदमी नहीं रहा। बड़ेबाबू चुपचाप कब चले गए, हमारे दिल में दुख, दर्द और विश्वास छोड़ कर चले गए। और अगर चले गए तो सारे दुख क्यों नहीं लेकर गए?” बूढ़ा आदमी नदी की ओर देख कर कहता है।
दूर कहीं सरसराहट की आवाज़ आ रही है!
गाँवबूढ़ा तेज़ी से भागा और रेत पर औंधे मुँह गिर पड़ा। आकाश के नीचे पृथ्वी पर गिरा ज़ोर से गिरा। सब मौन-नि:शब्द में डूब जाता है। तभी एक समय हरी बत्ती जला कर एक विमान नि:शब्द को तोड़ कर उड़ गया।
वापसी में—उस जंगल में, उस मैदान में, उस नहर-नदी के सामने, ऐसे ही इंतज़ार करते रहते हैं सारे लोग। गाँवबूढ़ा कल वापस नहीं आया, वह आज वापस नहीं आया, लेकिन वह निश्चित रूप से वापस आएगा एक दिन।
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यह कहानी मूल बांग्ला में वर्ष 1977 में पहली बार ‘अमृत’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। 2022 में इस कहानी को ‘O Henry’ पुरस्कार प्राप्त हुआ।
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