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आईआईसी से आयुष्मान

बीते हफ़्तों में जितनी बार इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (IIC) जाना हो गया, उतना तो पहले कुल मिलाकर नहीं गया था। सोचा दोस्तों को बता दूँ कि अगर मैं यूनिवर्सिटी में न मिलूँ तो मुझे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में खोजें।

गए गुरुवार को रामविलास शर्मा की जयंती के अवसर पर इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में राजकमल प्रकाशन द्वारा एक गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस मौक़े पर उनकी भाषा-संबंधी किताबों की रचनावली का लोकार्पण भी हुआ। दरअस्ल, रामविलास जी के पूरे साहित्य को 50 खंडों में राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किए जाने की परियोजना है। 

10 अक्टूबर की सुबह से ही बदलते हुए मौसम की वजह से बहुत थकान थी। कोई और कार्यक्रम होता तो शायद जाना टाल देता, पर प्रोफ़ेसर वीरभारत तलवार को सुनने का मोह वहाँ तक खींच ले गया। जब तलवार जी ने अस्वस्थ होने के बावजूद अपना आना न टाला तो हमें तो पहुँचना ही था। 

किसी गोष्ठी में जो संचालक होता है, वह उस कार्यक्रम का सूत्रधार होता है। यह कोई नई बात नहीं है, लेकिन मैं बस ऐसे ही बता रहा हूँ कि संचालक कार्यक्रम की दशा-दिशा तय करता है। इस कार्यक्रम का संचालन मृत्युंजय कर रहे थे। बहस की नींव मृत्युंजय ने रखी। रामविलास शर्मा सामंतवाद में आर्थिक पक्ष तो खोजते हैं, लेकिन उसकी सामाजिकी क्या है? यह इस गोष्ठी का प्रस्थान-बिंदु था। 

पहले वक्ता के तौर पर कवितेंद्र इंदु ने अपनी बात रखी। बात रखने के क्रम में उन्होंने उस परंपरा का बिल्कुल ख़याल नहीं किया जो आमतौर पर हिंदी वाले करते हैं, यानी जिस पर कार्यक्रम हो रहा है; उसका महिमामंडन करना। कवितेंद्र इंदु ने कुछ सूत्रों में अपनी बात रखी और फिर उसकी व्याख्या की। उन्होंने कहा कि रामविलास जी के पास निष्कर्ष पहले से मौजूद होते हैं। वह भी पद्धति बदलते हैं। संदर्भ-बिंदु बदलते हैं, लेकिन उनके निष्कर्ष में कोई बदलाव नहीं आता है। ये निष्कर्ष अमूमन संस्कारों के चलते हैं। दूसरी बात जो उन्होंने कही वह यह कि रामविलास जी आमतौर पर रचना की व्याख्या करने के लिए रचनाकार के जीवन में झाँकते हैं। निराला की सरोज-स्मृति की व्याख्या इसका उदाहरण है। मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे’ में की व्याख्या के लिए उन्होंने सिज़ोफ़्रेनिया तक का ज़िक्र कर दिया। यह इस पद्धति की इंतिहा थी। 

दूसरी वक्ता के रूप में गरिमा श्रीवास्तव को बुलाने से पहले मृत्युंजय ने रामविलास शर्मा की भाषा-संबंधी स्थापना को रखा। भाषाओं की  हेज़ेमनी पर रामविलासजी ने चोट की। उनके अनुसार न कोई जननी भाषा है और न कोई पुत्री भाषा। गरिमा जी ने बहस के इस सिरे को नहीं पकड़ा। उन्होंने रामविलास जी के साथ अपने संस्मरण बताए। उन्होंने कहा कि रामविलास जी ने कहा कि हिंदी में कुछ करना चाहती हो तो जितनी जल्दी हो सके दिल्ली छोड़ दो। अब जिस दिल्ली ने मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ाँ ‘ग़ालिब’ को मक़बूल न होने दिया, वहाँ रामविलास जी क्या होते! 

गरिमा जी ने कहा कि रामविलास जी सत्य को दो सिरों से पकड़ते हैं। एक सिरा परंपरा का है, दूसरा मार्क्सवाद का। 

इसी चक्कर में शायद कई बार सत्य फिसलता भी है। कहते हैं कि आख़िरी दिनों में रामविलास जी का इंटरव्यू ‘पाञ्चजन्य’ में छपा था। 

अब जिन्हें सुनने के लिए ज़्यादातर लोग आए थे, उनकी बारी थी—प्रोफ़ेसर वीरभारत तलवार। उन्होंने पहले तो रामविलास जी से अपने आत्मीय संबंध बताए। फिर कहा कि उनकी कई विषयों पर रामविलास जी से काफ़ी देर तक बातें हुई हैं। 

तलवार जी ने कहा कि रामविलास जी के यहाँ भाषा-विज्ञान ऐसा क्षेत्र है; जहाँ समाज, इतिहास और आलोचना एक साथ समाहित हो गए हैं। हिंदी-उर्दू की बहस ने उनको भाषा-विज्ञान की तरफ़ मोड़ा। 

हालाँकि मैं उम्मीद कर रहा था तलवार जी नवजागरण वाली बहसों को उठाएँगे, लेकिन उन्होंने भाषा का क्षेत्र चुना। उन्होंने कहा कि बहुत सारे लोग रामविलास जी से टकराए। ऐसा नहीं है कि टकराने वाले ग़लत बात कह रहे थे। वे ठीक बात कर रहे थे, जबकि रामविलास जी उस समय संकीर्ण मानसिकता के शिकार थे। फिर भी रामविलास जी सबसे सम्मानित आलोचक हैं। आलोचक सिर्फ़ आलोचना के टूल से बड़ा नहीं बनता है, उसकी नैतिक स्थिति क्या है; यह बात उसे महान् बनाती है। रामविलास शर्मा के पास बड़ा विजन था। हिंदी में वह अकेले हैं, जिन्होंने जातीयता के प्रश्न को इस तरह उठाया। 

काफ़ी दिनों बाद कोई विचारोत्तेजक वक्तव्य सुना। ख़ासतौर पर कवितेंद्र इंदु ने प्रभावित किया। पुष्प-माला की बजाय आगे बहस के लिए रास्ता दिखा—सत्यानंद निरुपम ने धन्यवाद-ज्ञापन में जिस बात को कहा। 

इंडिया इंटरनेशनल सेंटर से निकल गया हूँ। शायद जल्दी ही फिर से लौट आने के लिए।

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