दुखी दादीबा और भाग्य की विडंबना
अखिलेश सिंह
19 फरवरी 2025

यह पुस्तक पारसी समुदाय के वैभवशाली जीवन की कथा है और लेखक द्वारा इसके किसी सच्चे जीवन वृत्तांत पर आधृत होने का दावा भी जगह-जगह पर मिलता है। यह बहुत पुरानी रचना है, संभवतः 20वीं सदी के शुरुआत की। इसका गुजराती से अँग्रेज़ी में अनुवाद अबन मुखर्जी और तुलसी वत्सल ने अब इधर जाकर संभव किया है, जोकि बेहद पठनीय है।
यह एक सादा-सीधा उपन्यास है और इसकी आयोजना भी एपिसोड-दर-एपिसोड आगे बढ़ने की है। इसीलिए छोटे चुटीले एक सौ पाँच अध्यायों से गुज़रते हुए इसका उपसंहार किया गया है। छोटे-छोटे संवादों और मासूम स्थितियों से संभव होते दृश्य ही हरेक एपिसोड की ख़ूबी हैं। इसमें बहुत सारे चित्र भी बनाए गए हैं जोकि उस समय की पारसी वेशभूषा और बनाव-रचाव को दर्शाते हैं। विक्टोरियन शैली के चरित्रों और उनके जीवन के उद्घाटनों में इस उपन्यास की रोचकता है, इसका रचनाकाल देखते हुए यह स्वाभाविक भी है।
इस उपन्यास में दो प्रमुख घराने बहादुरशाह घराना और दराशाह घराना है और इसके तीन प्रमुख पात्र दादीबा, जहाँगीर बहादुरशाह और परीं (परीन) हैं। धन-वैभव के प्रति आकर्षण, ऊँचे स्टेट्स के साथ जुड़ने की आकांक्षा और विवाहों के द्वारा इसे अर्थ प्रदान करने के संघर्ष ही इस उपन्यास के कथानक के सूत्र हैं। उपन्यास के शुरू में ही बहादुरशाह अपने अंतिम समय में अपने रहस्य का पर्दाफ़ाश करता है और अपने पुत्र जहाँगीर को अपने पहले विवाह से जन्मे पुत्र रुस्तम को खोजने की ज़िम्मेदारी देकर संसार से विदा हो जाता है। यहाँ से जहाँगीर अपने परिवार को लेकर मुंबई जाता है और वह परीं से मिलता है जोकि दाराशाह डावर की बेटी है और अपने संगीत शिक्षक दादीबा से प्यार करती है। लेकिन दादीबा के ग़रीब होने के चलते डावर साहब परीं की शादी जहाँगीर से करवाने के सपने बुनते हैं। इसके लिए दादीबा को वह संगीत शिक्षक की नौकरी से निकाल देते हैं और नाटकीय आयोजनों के द्वारा परीं और जहाँगीर को मिलाते हैं। बहुत ही दुखी और यायावर दादीबा को अंततः मुन्चेरशाह—जोकि उसके पालक पिता थे—की विरासत मिल जाती है और फिर यह भी रहस्य खुलता है कि दादीबा ही रुस्तम बहादुरशाह है। इसके लिए कोर्ट में मुक़दमा चलता है और कोर्ट दादीबा को क़ानूनी वारिस घोषित करती है। जहाँगीर की मृत्यु हो जाती है और दादीबा यानी रुस्तम अपने पिता की सारी संपत्ति का वारिस हो जाता है।
इस उपन्यास में दैवी न्याय, रहस्योद्घाटन, अर्श से फ़र्श पर और फ़र्श से अर्श पर पहुँचने की गल्प-सुलभता, स्वप्नों की व्याख्या जैसी चीज़ें अक्सर ही आती हैं। यह उस समय के विक्टोरियाई शैली के साथ ही भारतीय कुटुंबों और समाजों में प्रचलित क़िस्सागोई के प्रभावों को भी समेटे हुए है। यहाँ दादीबा यानी रुस्तम बहुत ही उदार और पूर्ण मानवीय गुणों से भरा है, दाराशाह डावर लालची और ओहदाप्रेमी है जबकि जहाँगीर मिश्रित व्यक्तित्व का है। दादीबा की प्रेयसी यानी परीं को परिस्थितिजन्य आकर्षणों, दुखों, आकांक्षाओं से प्रभावित दिखाया गया है जबकि जहाँगीर की माँ को बेहद न्यायप्रिय और उदार महिला के रूप में दिखाया गया है। लेकिन कथा का स्वर दादीबा के पक्ष में और उसको दुःख देने वाले हर व्यक्ति के साथ नैसर्गिक न्याय करने वाला है।
इस उपन्यास में बहुत-सी दिलचस्प बातें ध्यान देने योग्य हैं। इसके एक अध्याय में दादीबा जोकि एक पारसी है और बेहद दुखी है और उसका दोस्त मोहब्बत ख़ान जोकि मुस्लिम है—दोनों कवि तुलसीदास की पंक्तियों से जीवन के मर्म सुलझाते हैं, जबकि यह 20वीं सदी के शुरुआत की एक गुजराती रचना है। यहाँ कुंडलियों के मास्टर कवि गिरधर की शिक्षाओं को भी उद्धृत किया गया है। ग़ौरतलब है कि ये दोनों कवि अवधी भाषा के थे। यहाँ ‘महाभारत’ से भी दृष्टांत उठाए गए हैं। इसके अलावा इस उपन्यास में पत्र-व्यवहार भी बहुत सारे मिलते हैं। कुछ पत्र जो भविष्य को लिखे गए हैं, कुछ जो वर्तमान में किसी उद्देश्य से परिचितों को लिखे जा रहे हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो अनाम लोगों द्वारा रहस्यपूर्ण ढंग से लिखे गए हैं। इसके अलावा मुन्चेरशाह की विरासत भी बेहद दिलचस्प शैली में लिखी गई है। यहाँ एक ख़ास तरह की ट्रेजेडी के साथ उपन्यास का अंत होता है, जहाँ दादीबा, आईमाई (जहाँगीर की बहन) और विधवा परीं एकाकी जीवन जीने के साथ कटिबद्ध हैं और सबके अपने-अपने दुःख भरे नैतिक कारण हैं। लेखक समय-समय पर ख़ुद भी पृष्ठभूमि की आवाज़ बनकर आता है और तमाम मार्मिकताओं को उजागर करता है। ऐसे ही एक अवसर पर लेखक कहता है : “पाठको! जो यह मानते हैं कि सुख का आधार सौंदर्य है, उन्हें बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है और यही सत्य धन के साथ भी लागू होता है।” कमोबेश इस उपन्यास में यही स्थापित करने की कोशिश भी गई है।
अंततः यह बात और विस्मय में डालती है कि उस समय भी गुजराती के साहित्यिक लेखन में आधुनिक उपन्यासों का मामला इतना आगे बढ़ चुका था। क्योंकि इसमें पात्रों की योजना, परिस्थिति की नाटकीयता और कथानक संबंधी अन्य गुणधर्म ठीक-ठाक परिपक्व अवस्था में हैं।
'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए
कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें
आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद
हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे
बेला पॉपुलर
सबसे ज़्यादा पढ़े और पसंद किए गए पोस्ट
07 अगस्त 2025
अंतिम शय्या पर रवींद्रनाथ
श्रावण-मास! बारिश की झरझर में मानो मन का रुदन मिला हो। शाल-पत्तों के बीच से टपक रही हैं—आकाश-अश्रुओं की बूँदें। उनका मन उदास है। शरीर धीरे-धीरे कमज़ोर होता जा रहा है। शांतिनिकेतन का शांत वातावरण अशांत
10 अगस्त 2025
क़ाहिरा का शहरज़ाद : नजीब महफ़ूज़
Husayn remarked ironically, “A nation whose most notable manifestations are tombs and corpses!” Pointing to one of the pyramids, he continued: “Look at all that wasted effort.” Kamal replied enthusi
08 अगस्त 2025
धड़क 2 : ‘यह पुराना कंटेंट है... अब ऐसा कहाँ होता है?’
यह वाक्य महज़ धड़क 2 के बारे में नहीं कहा जा रहा है। यह ज्योतिबा फुले, भीमराव आम्बेडकर, प्रेमचंद और ज़िंदगी के बारे में भी कहा जा रहा है। कितनी ही बार स्कूलों में, युवाओं के बीच में या फिर कह लें कि तथा
17 अगस्त 2025
बिंदुघाटी : ‘सून मंदिर मोर...’ यह टीस अर्थ-बाधा से ही निकलती है
• विद्यापति तमाम अलंकरणों से विभूषित होने के साथ ही, तमाम विवादों का विषय भी रहे हैं। उनका प्रभाव और प्रसार है ही इतना बड़ा कि अपने समय से लेकर आज तक वे कई कला-विधाओं के माध्यम से जनमानस के बीच रहे है
22 अगस्त 2025
वॉन गॉग ने कहा था : जानवरों का जीवन ही मेरा जीवन है
प्रिय भाई, मुझे एहसास है कि माता-पिता स्वाभाविक रूप से (सोच-समझकर न सही) मेरे बारे में क्या सोचते हैं। वे मुझे घर में रखने से भी झिझकते हैं, जैसे कि मैं कोई बेढब कुत्ता हूँ; जो उनके घर में गंदे पं