मुक्तिबोध का दुर्भाग्य
सुशील सुमन
11 सितम्बर 2025

आज 11 सितंबर है—मुक्तिबोध के निधन की तारीख़। इस अर्थ में यह एक त्रासद दिवस है। यह दिन याद दिलाता है कि आधुनिक हिंदी कविता की सबसे प्रखर मेधा की मृत्यु कितनी आसामयिक और दुखद परिस्थिति में हुई। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि मुक्तिबोध आख़िरी वर्षों में भीषण तनाव और लंबी बीमारी से जूझते रहे। उनकी ज़िंदगी में एक अदद स्थायी नौकरी और दुनियावी अर्थों में स्थायित्व की कमी तो आजीवन रही ही, लेकिन जिस एक घटना ने उनके मनोजगत पर सर्वाधिक प्रहार किया, वह थी उनकी किताब ‘भारत : इतिहास और संस्कृति’ पर बैन लगने की घटना।
19 सितंबर 1962 को राज्य-सरकार ने एक राज-पत्र जारी कर मुक्तिबोध के द्वारा लिखी गई इतिहास की किताब ‘भारत : इतिहास और संस्कृति’ पर बैन लगा दिया। यह एक लेखक पर फ़ाशिस्ट हमला था। मुक्तिबोध के मानसिक-शारीरिक स्वास्थ्य पर इसका बहुत बुरा असर पड़ा। वह बहुत गहरी पीड़ा और बेचैनी से भर उठे। रमेश मुक्तिबोध के इस एक कथन से मुक्तिबोध के दिल-दिमाग़ पर इस घटना के कारण पड़ने वाले दुष्प्रभाव का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। रमेश मुक्तिबोध लिखते हैं, ‘‘वैचारिक धरातल पर इतना मानसिक त्रास उन्हें कभी भोगते नहीं देखा।’’
हरिशंकर परसाई, जिनकी इन दिनों हम लोग जन्मशती मना रहे हैं, को मुक्तिबोध को बहुत निकट से देखने-जानने का अवसर मिला था। उन्होंने भी अपने संस्मरण ‘मुक्तिबोध : एक संस्मरण’ में इस घटना का विस्तार से उल्लेख किया है।
दरअस्ल, हरिशंकर परसाई का इस पुस्तक के संभव हो पाने में अहम योगदान रहा है। रमेश मुक्तिबोध ने किताब की भूमिका में इस बात का उल्लेख भी किया है। परसाई इस किताब के लिखे जाने से लेकर, बैन होने, न्यायालय के चक्करों से लेकर पुनर्प्रकाशन तक जुड़े थे। इसलिए उन्हें इस पूरे मसअले की बहुत ठीक से जानकारी थी। उनके संस्मरण को पढ़ते हुए शिद्दत से महसूस होता है कि उन दिनों मुक्तिबोध कितना भयानक तनाव से गुज़र रहे थे।
परसाई लिखते हैं, ‘‘मुक्तिबोध भयंकर तनाव में जीते थे। आर्थिक कष्ट उन्हें असीम थे। उन जैसे रचनाकार का तनाव साधारण से बहुत अधिक होगा भी। वह संत्रास में जीते थे। आजकल संत्रास का दावा बहुत किया जा रहा है। मगर मुक्तिबोध का एक-चौथाई तनाव भी कोई झेलता, तो उनसे आधी उम्र में मर जाता। मृत्यु से दो साल पहले वह जबलपुर आए थे। रात-भर वह बड़बड़ाते थे। एक रात चीख़कर खाट से फ़र्श पर गिर पड़े। सँभले, तब बताया कि एक बहुत बड़ी छिपकली सपने में सिर पर गिर रही थी।
उन दिनों उनकी पुस्तक ‘भारत : इतिहास और संस्कृति’ पर प्रतिबंध लग चुका था। वह पुस्तक कोर्स में लग चुकी थी। उसके ख़िलाफ़ आंदोलन कराने वाले मुख्यतः दूसरे प्रकाशक थे। आंदोलन में जनसंघ प्रमुख था। इसके साथ ही ग़ैर सांप्रदायिक पत्रों के भी बिके हुए संपादक थे। जनसंघ उनके पीछे पड़ गया था। राजनाँदगाँव में उसके स्वयंसेवक उन्हें परेशान करते थे। उस वक़्त विद्वान लेकिन अधिकारहीन राज्यपाल था और भ्रष्ट तथा मूर्ख मुख्यमंत्री। राज्यपाल ने डेढ़ घंटे बात की, बात मानी भी, पर कहा—मैं क्या कर सकता हूँ! मुख्यमंत्री के पोर्टिको के पास मुक्तिबोध घंटे भर खड़े रहे। वह बँगले से निकला, तो ये बात करने बढ़े। बात शुरू ही की थी कि बोला—उसमें अब कुछ नहीं हो सकता। इन्होंने कहा—पर आप मेरी बात को सुन लीजिए! वह बोला—मेरे पास इतना वक़्त नहीं है। मुझे ज़रूरी काम है।
जबलपुर लौटे, तो बहुत टूटे हुए और बहुत क्रोधित। वह आदमी चट्टान जैसा था। लेकिन इस घटना ने उनके भीतर भय और असुरक्षा की भावना पैदा कर दी थी। वह बेहद उत्तेजित थे। इस प्रतिबंध से उनकी अपार क्षति हुई। यदि पुस्तक चलती, तो उन्हें इतनी रॉयल्टी मिलती कि सारा संकट ख़त्म हो जाता। व्यक्तिगत क्षति का आघात तो था ही। पर इस पूरे कांड को व्यापक राजनीतिक संदर्भ में देखकर वह बहुत त्रस्त थे। कहते थे—यह नंगा फ़ाशिज़्म है। लेखक को लोग घेरें, शारीरिक क्षति की धमकी दें, इधर सरकार सुनने तक को तैयार नहीं। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता जा रही है। गला दबाकर आवाज़ घोंटी जा रही है।’’
अँग्रेज़ों के हाथ में जब भारत की सत्ता थी, उस ज़माने में तो ऐसी बहुत सारी घटनाएँ घटीं, जब लेखकों की किताबों को बैन किया गया, प्रतियाँ ज़ब्त की गईं, लेकिन मेरे ख़याल से आज़ाद भारत की यह पहली घटना थी, जब एक लोकतांत्रिक ढंग से चुनी सरकार ने हिंदी के किसी लेखक की पुस्तक पर बैन लगाया। भारतीय इतिहास और संस्कृति पर लिखी गई उस किताब पर, जो विद्यार्थियों को सरलता के साथ भारतीय इतिहास और संस्कृति के प्रमुख पहलुओं से परिचय कराने के लिए लिखी गई थी।
रमेश मुक्तिबोध ने इस किताब के लिए ‘दो शब्द’ लिखते हुए इस बात का ज़िक्र किया है कि मुक्तिबोध इस संदर्भ में कहा करते थे कि ‘‘मेरी किसी मौलिक रचना को आपत्तिजनक मानकर सरकार पाबंदी लगाती तो कोई बात भी बनती। किंतु वस्तुतः जो सर्वथा मेरी मौलिक रचना नहीं है, वह किस प्रकार आपत्तिजनक घोषित हुई, यह कोई मुझे समझा दे।’’
विगत वर्षों में हमने अनेक घटनाओं के माध्यम से देखा है कि लेखकों-कलाकारों पर दमन का यह सिलसिला बढ़ता गया है। फ़ाशिस्ट सत्ता और उससे जुड़े दल-बल ने विविध तौर-तरीक़ों से कलाकारों-बुद्धिजीवियों की अभिव्यक्ति का किस क़दर गला घोंटने का काम किया है, इसके अनगिनत उदाहरण हमारे सामने हैं। अनेक पत्रकार, लेखक, कवि और बुद्धिजीवी जेलों में बंद हैं। कई लोगों की नौकरियाँ गई हैं। कुछ ही वर्ष बीते हैं जब गौरी लंकेश, गोविंद पंसारे, एम.एम. कलबुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर जैसे लेखकों, चिंतकों, पत्रकारों की तो हत्या तक कर दी गई। तमिल लेखक पेरुमल मुरुगन ने लिखना छोड़ने की घोषणा की। रोहित वेमुला जैसे नौजवान को आत्महत्या के लिए विवश किया गया। ऐसी तमाम घटनाएँ साबित करती हैं कि फ़ाशिस्ट सत्ताएँ बौद्धिक आवाज़ों को दबाने की हरसंभव कोशिश करती हैं। इसके लिए चाहे उन्हें किसी किताब को बैन करना पड़े या किसी लेखक-कलाकार को देश छोड़ने पर मजबूर किया जाए या किसी लेखक की हत्या ही क्यों न करनी पड़े, वे इससे चूकती नहीं। इतिहास गवाह है कि पूरी दुनिया में फ़ाशिस्ट हुकूमतों ने बौद्धिक चिंतकों के साथ ऐसा ही सुलूक किया है। जिन लेखकों-कवियों ने फ़ाशिस्ट सत्ता के होते हुए भी, वस्तुनिष्ठ और वैज्ञानिक चिंतन से जनचेतना को संपन्न करने की साहसिक कोशिश की है, उन्हें इसकी क़ीमत चुकानी पड़ी है। मुक्तिबोध को तो उस सत्ता के दरमियान प्रताड़ित होना पड़ा, जब लोकतंत्र में यक़ीन करने वालों का शासन था। दरअस्ल, पूँजीपतियों और सत्ताधारियों के गठजोड़ से एक बहुत ख़तरनाक क़िस्म का युग्म बनता है, जो अपने लोभ-लाभ के लिए हमेशा जनचेतना को कुंद करना चाहता है। इस मामले में भी यही हुआ। यह केवल सत्ताधारियों की साज़िश नहीं थी, इसमें पुस्तक-प्रकाशकों का गिरोह भी पूरी तरह से शामिल था।
मुक्तिबोध के मन-मस्तिष्क पर यदि किसी घटना का असर होता था तो उसका प्रभाव क्षणिक नहीं होता था, बल्कि लंबे समय तक उनके भीतर उसकी प्रतिक्रिया चलती रहती थी। यदि उन प्रतिक्रियाओं का काव्यात्मक रूपांतरण होता था, तो उसकी भी प्रक्रिया बेहद धीमी और लंबी होती थी। इस बेहद लंबी और संघर्षधर्मी प्रक्रिया के कारण ही मुक्तिबोध के यहाँ शायद ऐसी कविताएँ संभव हो पाती थीं, जिनमें अपने वर्तमान का शल्य-चिकित्सकीय मूल्यांकन करने के साथ-साथ चकित करने वाली भविष्य-दृष्टि हमें दिखाई देती है। उदाहरण के रूप में यहाँ हम उनकी एक बेहद महत्त्वपूर्ण कविता ‘उस दिन’ की रचना-प्रक्रिया की चर्चा कर सकते हैं। इस कविता के लिखे जाने की पृष्ठभूमि में वही त्रासद और दुर्भाग्यपूर्ण घटना है, जिसका ऊपर ज़िक्र हुआ है। ‘नई कविता एवं मेरी रचना-प्रक्रिया’ शीर्षक लेख में, जो कि दरअस्ल मुक्तिबोध के एक वक्तव्य का लिखित रूप है, में वह कहते हैं :
‘‘साधारण तौर पर मेरे मन में यदि किसी बात की प्रतिक्रिया होती है तो क्षण दो क्षण के लिए नहीं होती, बल्कि वह परिस्थिति काफ़ी देर तक बनी रहती है, एक विशेष प्रकार का परिवेश बना रहता है। मैं काफ़ी दिनों तक चिंतन एवं संवेदनात्मक स्थिति में डूबा रहता हूँ। उदाहरण के तौर पर, गत वर्ष मेरी एक पुस्तक ज़ब्त हो गई। तत्काल कोई गहरी प्रतिक्रिया नहीं हुई। मुझ पर तुरंत कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, और होती भी है तो काव्य-रूप में नहीं। और यदि मैं उसे काव्य-रूप में प्रगट करूँ तो असफल हो जाऊँगा। पुस्तक ज़ब्त होने की प्रक्रिया अभी कुछ दिन पूर्व अकस्मात् हुई और कविता की कुछ पंक्तियाँ बनीं :
जल रही है लाइब्रेरी
पार्सिपालिस की
मैंने सिर्फ़ नालिश की
मैंने सिर्फ़ नालिश की
अँधेरी जिस अदालत में...
उक्त कविता अधूरी है। अभी अधूरी है, बन जाएगी तो काव्य के पूरे पहलू सामने आएँगे।’’
और जब जनवरी 1963 में यह कविता पूरी होती है तो ‘उस दिन’ जैसी कालजयी कविता के रूप में हमारे सामने आती है। मौजूदा समय में मुक्तिबोध की इस कविता और उनकी ऐसी अनेक कविताओं को बार-बार याद करने और पढ़े जाने की ज़रूरत है। ऐसे वक़्त में जब एक ख़ास एजेंडे के तहत लोगों को मारा जा रहा है, इतिहास को जानबूझकर तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है, तब मुक्तिबोध के लेखन में हम मौजूदा परिवेश का न केवल प्रतिबिंब देख सकते हैं, बल्कि लड़ने का औज़ार भी प्राप्त कर सकते हैं। ऐसे जलते हुए समय में हम मुक्तिबोध के इस ज्वलंत प्रश्न से मुँह नहीं चुरा सकते, जिसे उन्होंने इसी कविता में बार-बार पूछा है :
‘‘हमीं में-से विदेशी-सा
हमारे बीच का ही एक
नव-साम्राज्यवादी...
लोभ के आवेश में आकर
उजाड़े जा रहा है ज़िंदगी की बस्तियाँ
पददलित मानव-मूल्य
हैं आक्रांत आत्माएँ
तुम्हें क्या चाहिए
पिस्तौल या वायलिन!!’’
मुक्तिबोध अपनी कविताओं में न केवल ऐसे आवश्यक प्रश्न पूछते हैं, बल्कि इन प्रश्नों का उत्तर भी देते हैं। इस अँधेरे समय से लड़ने के लिए उनकी कालजयी कविता ‘अँधेरे में’ की ये पंक्तियाँ मशाल बनकर हमारे सामने आती हैं :
‘‘अब न समय है,
जूझना ही तय है
फ़ज़ूल है इस वक़्त कोसना ख़ुद को
एकदम ज़रूरी दोस्तों को खोजूँ
पाऊँ मैं नए-नए सहचर
सकर्मक सत्-चित्-वेदना-भास्वर’’
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