डिप्रेशन : नींद क्यूँ रात भर नहीं आती!
अनुराधा शर्मा 23 मई 2024
मैंने अवसाद पर कई कविताएँ लिखी हैं, लेकिन वे सारी बीते दिनों में किसी को देख-समझकर लिखी गई थीं। इन दिनों दिमाग़ की दवा खाने के बाद भी जिस तरह की नकारात्मकता अंदर और मेरे बाहर पर क़ाबिज़ हो गई है, वह दुःखदायी हो रही है।
अवसाद को किस तरह से परिभाषित किया जाए, यह उसमें घिरे रहने के बावजूद बहुत मुश्किल-सा लगता है।
जब आपको कोई भी बात, एहसास, कविता, व्यक्ति या दुनिया की कोई भी शै ज़रा देर की भी ख़ुशी न दे पाए, वह अवसाद का दौर है। आपको कभी-कभी लगता है कि आप जैसे लोगों के बीच अलफ़-नंगे घूम रहे हैं और सब आपको ऐसे ही देख रहे हैं और आप कुछ नहीं कर पा रहे हैं।
चालीस साल एक मुश्किल जीवन जीने के बाद, जहाँ दुनिया के सबसे सुंदर लोग आपके आस-पास हैं; उसके बावजूद कोई ऐसा साथ नहीं मिलता जिससे बात करके आपको सुकून मिले—यही शायद अवसाद है। आप एक ब्रिज के ऊपर से चलते हुए नीचे कूदकर इहलीला समाप्त करने पर विचार करने लगते हैं। यह कारणयुक्त होते हुए भी अकारण है। यह बिना सोचे की एक छोर पर आपका कुछ लोग इंतिज़ार कर रहे हैं। घर में रहने से लेकर सड़क पर चलते हुए जाने कितने ही तरह के डर आपके कंधे पर सवार रहते हैं कि आपकी चाल धीमी हो जाती है।
कुछ भी करने में अधिक मशक़्क़त लगने लगी है। दुनियादारी की चाल बहुत तेज़ हो गई है या मेरी धीमी। निढाल होकर भी कितना पड़ा रहा जाए। कामकाजी स्त्री, दो बच्चों की माँ। सुबह नाश्ते के बाद नींद की दवा के साथ दिन शुरू होता है और रात भी नींद की एक दवा के साथ होती है। दिन भर नींद आगे-पीछे चलती है और आपके बिस्तर पर पड़ते ही नींद बिस्तर से कोसो दूर जाने कौन-से सूरज की खोज में निकल जाती है। रात की नींद के कई हिस्से दिन भर दिमाग़ और जिस्म से लग-लगकर चुभते हैं और कोई राहत नज़र नहीं आती। जाने कितने ही करतब दिन भर देखती हूँ, तमाशे देखती हूँ... बस्स! मन नहीं रम रहा। मन का राम सीता की खोज में भूखा-प्यासा भटक रहा है और हाथ कुछ आता नहीं लगता। यही शायद अवसाद है।
पिता की याद आती है, जो अब नहीं रहे।
मैं अपने पिता को उस तरह याद नहीं कर पाती; जैसे दूसरे लोगों को करते हुए देखा, पढ़ा या समझा है। मेरे बचपन को पिता एक बीमारी के साथ बुरी तरह से आ घेरते हैं। उन्हें अपनी जवानी में ADHD और बाइपोलर के मकड़जाल ने ऐसा घेरा कि अपनी मृत्यु तक उसी में फँसे रहे। उसी पस-ओ-पेश में उनके परिवार का जीवन भी दाएँ-बाएँ होता रहा। एक भयंकर और ख़तरनाक बीमारी से मेरा बचपन से सामना होता रहा।
मैंने पिता के कंधे से कंधा 18 वर्ष की उम्र में मिलाया, जब पिता के साथ मैं इहबास उनके इलाज के लिए जाने लगी। एक दुनिया के कितने ही लोग दुनिया के एक कोने में अपने-अपने नुकीलेपन को लिए आते हैं, समांनातर होने के लिए कितनी जिद्द-ओ-जहद करते हैं... यह सब मैंने एक लंबे समय तक देखा।
पिता को मौसम बदलने पर मूड-स्विंग के दौरे पड़ते थे। तब सुबह के चार-पाँच बजे साथ उठकर उनके साथ हॉस्पिटल आना होता था। लोकल EMU में जनरल डिब्बे में उनके साथ शाहदरा तक का सफ़र सबसे मुश्किल हुआ करता था, क्योंकि उन्हें तब पता नहीं चल पाता था कि साथ चल रही बेटी को यूँ गालियाँ नहीं दी जातीं। अक्सर साथ के यात्री मुझसे पूछते थे कि मालिक है क्या तुम्हारा या कौन है जो लगातार बोले जा रहा है—वो भी इस तरह... मैं समझाती—पिता हैं, बीमार हैं। लेकिन लोगों के चेहरे का भूगोल बताता था कि यह समझ से परे की कोई बात है! वे मुस्कुराते या चुप हो जाते।
मुझे सदा समझदारों और समझदारी की बहुत कमी महसूस होती है—इस संसार में।
लोग कैंसर, ट्यूमर या अन्य किसी भी बीमारी के प्रति संवेदनशील होते हैं; लेकिन जब-जहाँ भी दिमाग़ या मन की बीमारी की बात आती है, वे अपने दिमाग़ और मन के द्वार बहुत मुश्किल से ही खोल पाते हैं। आज भी स्थिति बहुत बदली नहीं है। हम बताने में हिचकिचाते हैं। किसी से हिम्मत करके कहें तो सामने वाले के यक़ीन पर यक़ीन-सा नहीं होता।
इस स्थिति में मीर, मुक्तिबोध या परसाई की पारसाई भी काम नहीं आ रही। मुझे लगता है कि ग़ालिब को भी डिप्रेशन रहा होगा :
‘‘आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती
मौत का एक दिन मुअ'य्यन है
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती’’
मैं इस विकलता में बस इस बात से ही थोड़ा-सा आश्वस्त रहती हूँ कि जिस लिखने-कहने-पढ़ने ने अब तक बचाए रखा है... वही इस आड़ी-टेढ़ी, ऊँची-नीची दुनिया में आगे भी बचाए और बनाए रखेगा।
संबंधित विषय
'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए
कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें
आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद
हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे
बेला पॉपुलर
सबसे ज़्यादा पढ़े और पसंद किए गए पोस्ट
06 अक्तूबर 2024
'बाद मरने के मेरे घर से यह सामाँ निकला...'
यह दो अक्टूबर की एक ठीक-ठाक गर्मी वाली दोपहर है। दफ़्तर का अवकाश है। नायकों का होना अभी इतना बचा हुआ है कि पूँजी के चंगुल में फँसा यह महादेश छुट्टी घोषित करता रहता है, इसलिए आज मेरी भी छुट्टी है। मेर
24 अक्तूबर 2024
एक स्त्री बनने और हर संकट से पार पाने के बारे में...
हान कांग (जन्म : 1970) दक्षिण कोरियाई लेखिका हैं। वर्ष 2024 में, वह साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित होने वाली पहली दक्षिण कोरियाई लेखक और पहली एशियाई लेखिका बनीं। नोबेल से पूर्व उन्हें उनके उपन
21 अक्तूबर 2024
आद्या प्रसाद ‘उन्मत्त’ : हमरेउ करम क कबहूँ कौनौ हिसाब होई
आद्या प्रसाद ‘उन्मत्त’ अवधी में बलभद्र प्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’ की नई लीक पर चलने वाले कवि हैं। वह वंशीधर शुक्ल, रमई काका, मृगेश, लक्ष्मण प्रसाद ‘मित्र’, माता प्रसाद ‘मितई’, विकल गोंडवी, बेकल उत्साही, ज
02 जुलाई 2024
काम को खेल में बदलने का रहस्य
...मैं इससे सहमत नहीं। यह संभव है कि काम का ख़ात्मा किया जा सकता है। काम की जगह ढेर सारी नई तरह की गतिविधियाँ ले सकती हैं, अगर वे उपयोगी हों तो। काम के ख़ात्मे के लिए हमें दो तरफ़ से क़दम बढ़ाने
13 अक्तूबर 2024
‘कई चाँद थे सरे-आसमाँ’ को फिर से पढ़ते हुए
शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के उपन्यास 'कई चाँद थे सरे-आसमाँ' को पहली बार 2019 में पढ़ा। इसके हिंदी तथा अँग्रेज़ी, क्रमशः रूपांतरित तथा अनूदित संस्करणों के पाठ 2024 की तीसरी तिमाही में समाप्त किए। तब से अब