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डिप्रेशन : नींद क्यूँ रात भर नहीं आती!

मैंने अवसाद पर कई कविताएँ लिखी हैं, लेकिन वे सारी बीते दिनों में किसी को देख-समझकर लिखी गई थीं। इन दिनों दिमाग़ की दवा खाने के बाद भी जिस तरह की नकारात्मकता अंदर और मेरे बाहर पर क़ाबिज़ हो गई है, वह दुःखदायी हो रही है। 

अवसाद को किस तरह से परिभाषित किया जाए, यह उसमें घिरे रहने के बावजूद बहुत मुश्किल-सा लगता है।

जब आपको कोई भी बात, एहसास, कविता, व्यक्ति या दुनिया की कोई भी शै ज़रा देर की भी ख़ुशी न दे पाए, वह अवसाद का दौर है। आपको कभी-कभी लगता है कि आप जैसे लोगों के बीच अलफ़-नंगे घूम रहे हैं और सब आपको ऐसे ही देख रहे हैं और आप कुछ नहीं कर पा रहे हैं। 

चालीस साल एक मुश्किल जीवन जीने के बाद, जहाँ दुनिया के सबसे सुंदर लोग आपके आस-पास हैं; उसके बावजूद कोई ऐसा साथ नहीं मिलता जिससे बात करके आपको सुकून मिले—यही शायद अवसाद है। आप एक ब्रिज के ऊपर से चलते हुए नीचे कूदकर इहलीला समाप्त करने पर विचार करने लगते हैं। यह कारणयुक्त होते हुए भी अकारण है। यह बिना सोचे की एक छोर पर आपका कुछ लोग इंतिज़ार कर रहे हैं। घर में रहने से लेकर सड़क पर चलते हुए जाने कितने ही तरह के डर आपके कंधे पर सवार रहते हैं कि आपकी चाल धीमी हो जाती है। 

कुछ भी करने में अधिक मशक़्क़त लगने लगी है। दुनियादारी की चाल बहुत तेज़ हो गई है या मेरी धीमी। निढाल होकर भी कितना पड़ा रहा जाए। कामकाजी स्त्री, दो बच्चों की माँ। सुबह नाश्ते के बाद नींद की दवा के साथ दिन शुरू होता है और रात भी नींद की एक दवा के साथ होती है। दिन भर नींद आगे-पीछे चलती है और आपके बिस्तर पर पड़ते ही नींद बिस्तर से कोसो दूर जाने कौन-से सूरज की खोज में निकल जाती है। रात की नींद के कई हिस्से दिन भर दिमाग़ और जिस्म से लग-लगकर चुभते हैं और कोई राहत नज़र नहीं आती। जाने कितने ही करतब दिन भर देखती हूँ, तमाशे देखती हूँ... बस्स! मन नहीं रम रहा। मन का राम सीता की खोज में भूखा-प्यासा भटक रहा है और हाथ कुछ आता नहीं लगता। यही शायद अवसाद है।

पिता की याद आती है, जो अब नहीं रहे। 

मैं अपने पिता को उस तरह याद नहीं कर पाती; जैसे दूसरे लोगों को करते हुए देखा, पढ़ा या समझा है। मेरे बचपन को पिता एक बीमारी के साथ बुरी तरह से आ घेरते हैं। उन्हें अपनी जवानी में ADHD और बाइपोलर के मकड़जाल ने ऐसा घेरा कि अपनी मृत्यु तक उसी में फँसे रहे। उसी पस-ओ-पेश में उनके परिवार का जीवन भी दाएँ-बाएँ होता रहा। एक भयंकर और ख़तरनाक बीमारी से मेरा बचपन से सामना होता रहा। 

मैंने पिता के कंधे से कंधा 18 वर्ष की उम्र में मिलाया, जब पिता के साथ मैं इहबास उनके इलाज के लिए जाने लगी। एक दुनिया के कितने ही लोग दुनिया के एक कोने में अपने-अपने नुकीलेपन को लिए आते हैं, समांनातर होने के लिए कितनी जिद्द-ओ-जहद करते हैं... यह सब मैंने एक लंबे समय तक देखा। 

पिता को मौसम बदलने पर मूड-स्विंग के दौरे पड़ते थे। तब सुबह के चार-पाँच बजे साथ उठकर उनके साथ हॉस्पिटल आना होता था। लोकल EMU में जनरल डिब्बे में उनके साथ शाहदरा तक का सफ़र सबसे मुश्किल हुआ करता था, क्योंकि उन्हें तब पता नहीं चल पाता था कि साथ चल रही बेटी को यूँ गालियाँ नहीं दी जातीं। अक्सर साथ के यात्री मुझसे पूछते थे कि मालिक है क्या तुम्हारा या कौन है जो लगातार बोले जा रहा है—वो भी इस तरह... मैं समझाती—पिता हैं, बीमार हैं। लेकिन लोगों के चेहरे का भूगोल बताता था कि यह समझ से परे की कोई बात है! वे मुस्कुराते या चुप हो जाते। 

मुझे सदा समझदारों और समझदारी की बहुत कमी महसूस होती है—इस संसार में। 

लोग कैंसर, ट्यूमर या अन्य किसी भी बीमारी के प्रति संवेदनशील होते हैं; लेकिन जब-जहाँ भी दिमाग़ या मन की बीमारी की बात आती है, वे अपने दिमाग़ और मन के द्वार बहुत मुश्किल से ही खोल पाते हैं। आज भी स्थिति बहुत बदली नहीं है। हम बताने में हिचकिचाते हैं। किसी से हिम्मत करके कहें तो सामने वाले के यक़ीन पर यक़ीन-सा नहीं होता। 

इस स्थिति में मीर, मुक्तिबोध या परसाई की पारसाई भी काम नहीं आ रही। मुझे लगता है कि ग़ालिब को भी डिप्रेशन रहा होगा :

‘‘आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी 
अब किसी बात पर नहीं आती 

मौत का एक दिन मुअ'य्यन है 
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती’’  
 
मैं इस विकलता में बस इस बात से ही थोड़ा-सा आश्वस्त रहती हूँ कि जिस लिखने-कहने-पढ़ने ने अब तक बचाए रखा है... वही इस आड़ी-टेढ़ी, ऊँची-नीची दुनिया में आगे भी बचाए और बनाए रखेगा।

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